रविवार, 9 नवंबर 2008

भारत कभी जगत गुरु होता था और आज!!!



अभी हाल तक भारतीय जनता दल के नेता ताल ठोक कर कहते थे कि पकड़े गए आतंकी मुसलमान ही होते हैं। अब जब उनकी करीबी साध्वी के भेष में सांप्रदायिक जहर उगलने के साथ साथ मालेगांव और मोडासा में हुए बम धमाकों संलिप्त होने के आरोप में पकड़ी गई है तो संघ परिवार के कई नेता इसको इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध जन आक्रोष बताने की कोशिश कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि हिंदू आतंकवादी नही होता। उड़ीसा के कंधमाल में इसाइयों के विरुद्ध की गई योजनाबद्ध हिंसा को भी आम जन द्वारा की गई स्वतः स्पूर्त हिंसा की संज्ञा दी जाती है। सवाल उठता है कि स्वतः स्पूर्त हिंसा भी तभी भड़कती है जब उसके लिए जमीन तैयार की गई होती है। एक समुदाय के लोगों के मन में दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति घृणा, अविश्वास के बीज सतत् प्रयास से बोए जाते हैं। मौका मिलते ही ये बीज हिंसक घटनाओं के रूप में अंकुरित होते हैं। इससे पहले भी जब जब संघ परिवार ने दंगे भड़काए तो उन दंगो को जन आक्रोष की ही संज्ञा दी। 2002 के गुजरात के मुसलमानों के कत्लेआम को क्रिया प्रतिक्रिया कहा गया। जब जब जन आक्रोष की दलील दी गई तब तब दिमाग में एक सवाल कौंधा कि प्रतिद्वंदी को समूल नष्ट कर देना या उसकी कमर तोड़ देना तो भारतीय परंपरा नही रही। जब हमारी परंपरा ही नहीं रही तो फिर इस प्रकार का हिंसक व्यवहार अचानक 19वी 20बी सदी क्यों प्रारंभ हुआ वह भी धर्म के नाम पर।
हिंदू समाज में जाति-आधारित दमन शोषण रहा है पर प्रतिद्वंदी संप्रदायों का कत्लेआम नही
मसलन् जिस मर्यादा पुरुष राम का मंदिर बनाने के लिए अयोध्या और पूरे भारत में संघ परिवार हिंसा का तांडव नृत्य करवाता रहा है उस राम ने आताताई शासकों को हराया लेकिन कहीं भी प्रजा का कत्लेआम नही कराया।इसके विपरीत जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर जो हिंसा आज भड़काई जारही है उसमें निहत्थी गरीब प्रजा ही मारी जारही है। पांडवों को भी महाभारत का युद्ध मजबूरी में लड़ना पड़ा। युद्ध टालने के लिए उन्होंने कौरवों की हर जां बेजां शर्त मानी। लेकिन इसके बाद भी जब उनको पांच गांव देने के लिए भी कौरव राजी नही हुए तो महाभारत हुआ। इस महाभारत के युद्ध में भी सैनिक हताहत हुए। प्रजा का कत्लेआम तो नही हुआ। हां धर्म की रक्षा के नाम पर जातिवादी ब्राह्मणी व्यवस्था का ही संरक्षण किया।जिन शूद्रों व एकलव्यों ने इस ब्राह्मणी व्यवस्था को चुनौती देने की गुस्ताखी की उनको अपनी जान या अंगूठा खोना पड़ा। इस प्रकार भारतीय हिंदू जनमानस की आस्था के जो मुख्य प्रतीक माने जाते हैं जिनको आज भावनाएँ भड़काने तथा अपने ही देश के के लोगों को उजाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जारहा है वे भावनाओं में बह कर अनाचार और अत्याचार करने वाले नहीं थे।उन्होंने तो आताताई शासकों का ही विनाश किया। और यह विनाश एक प्रकार से बेकसूर प्रजा को इन राजाओं के अत्याचारों से बचाया। नारी का अपमान खासकर उसकी अस्मिता लूटने जैसा जघन्य अपराध तो किसी भी हाल में क्षम्य नही था। आज किस हिंदू धर्म को बचाने के नाम पर ये सभी दुष्कर्म किये जारहे हैं?यह प्रश्न उन सबको पूछना चाहिये जो इनके बहकावे में आकर आम जनजीवन असुरक्षित कर रहे हैं। नारी अस्मिता लूट रहे हैं।
भारत के प्राचीन इतिहास पर एक सरसरी नजर डालने पर भी यह स्पष्ट हो जाता है कि हम साम्राज्यवादी कभी भी नही रहे हैं। विद्वानों का मानना है कि वैदिक काल में राजा, जनजातीय-सभा, और समिति की सहमति से ही निर्णय लिए जाते थे। बौद्ध काल (600 B.C.-A.D. 200 ) में गणराज्यों का अधिक चलन था। कई गणराज्यों में सत्ता बहुत सारे व्यक्तियों के हाथ में होती थी।गणराज्य के मुखिया का चुनाव होता था।सभी महत्वपूर्ण मसले सभा में पेश किये जाते थे।स्थानीय प्रशासन स्थानीय सभाएँ चलाती थी तथा राज्य के प्रशासन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। कुछ गणराज्यों में गावों को विभिन्न आर्थिक पेशों के आधार पर संगठित किया जाता था। हालाकि निरंकुश राजतंत्र इस काल में नही था। परन्तु सत्ता की प्रकृति और चरित्र भी पूर्णरूप से लोकतांत्रिक नहीं था।सभा और समितियों में कुलीन वर्गों के प्रबुद्ध लोगों का दबदबा था।इसी वर्ग के बुजुर्गों का सभा में भी बोलबाला था।(Om Prakash,Negating the Colonial Construct of Oriental Despotism: The Science of Statecraft in Ancient India) संक्षेप में शासन एक व्यक्ति तथा उसके सहायकों की सहायता से नही वरन् ऊँची जातियों के प्रबुद्ध लोगों की सहमति से चलता था।शासन, प्रशासन, समाज और अर्थव्यवस्था में इन जातियों का दबदबा तब भी था और आज भी बरकरार है।
ईसा पूर्व 300 में कौटिल्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ अर्थशास्त्र में मजबूत राजतंत्र की वकालत की तथा चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में प्रथम हिंदू साम्राज्य स्थापित किया। इस ग्रंथ में कौटिल्य ने लिखा है कि राजा को वर्ण तथा आश्रम आधारित सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहिये। इस ब्यवस्था में किसी प्रकार के परिवर्तन की आज्ञा नही थी। ब्राह्मणों का समाज में विशेष स्थान था। इसकी वजह से उनका राजनीति में भी गहरा प्रभाव था। राजा के मंत्री इसी जाति के लोग होते थे। राज पुरोहित का राजा पर खासा प्रभाव होता था। हालाकि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था जाति आधारित असमान व्यवस्था थी। कौटिल्य का राजा प्रजा पालक था। कौटिल्य ने सेना में सभी वर्णों के लोगों की भर्ती का प्रावधान किया था। योगक्षेम जिसकों बनाए रखना राजा का मुख्य उद्देश्य था, उराके तहत जनता का हित ही नही वरन् जनता की सम्पंनता तथा जनता की खुशहाली भी आती थी।राजा की खुशी प्रजा की खुशी में निहित थी। प्रजा के हित में ही राजा का हित भी होता था। राजा का सर्वप्रथम कर्तब्य असामाजिक तत्वों से, धोखेबाज ब्यापारियों, और कारीगरों से, चोरों डाकुओं व हत्यारों से प्रजा की रक्षण व पालन माना गया।संरक्षण का अर्थ जान माल की रक्षा था। यह मान्यता थी कि जो राजा अपनी प्रजा के प्रति अपने कर्तब्यों का ईमानदारी से पालन करता है वह स्वर्ग का अधिकारी होता है।
चंद्र्गुप्त को भारत को एकता के सूत्र में बांधने वाला पहला सम्राट माना जाता है। चंद्रगुप्त के बाद पुत्र बिंदुसार फिर पोता अशोक गद्दी पर बैठा। इस महान साम्राज्य की जनसंख्या पचास मिलियन थी और क्षेत्र में यह मुगल साम्राज्य तथा भारत में अंग्रेजी साम्राज्य से भी बड़ा था। चंद्र गुप्त की राजधानी पाटलीपुत्र उस समय का विश्व में सबसे बड़ा शहर था।यह आठ मील लंबा व डेढ़ मील चौड़ा था।इसमें 570 स्तंभ थे और चौसठ दरवाजे थे। इतना बड़ा साम्राज्य स्थापित करने पर भी चमद्रगुप्त को नहीं उसके पोते अशोक को विश्व इतिहास में सर्वोत्तम शासक माना जाता है। क्यों ?क्योंकि सम्राट अशोक ने ही विश्व को समानता तथा नैतिकता का पाठ पढ़ाया। इसीलिए प्राचीन काल से ही भारत को विश्व में जगत गुरु माना जाता रहा है।
अशोक नैतिकता का वह पाठ जिसने भारत को जगत गुरु बनाया।
भारत को जगत गुरु बनाने का श्रेय सम्राट अशोक को जाता है। चंद्रगुप्त, बिंदुसार या इनके गुरु कौटिल्य को नहीं।अशोक ने क्या किया कि भारत जगत गुरु होगया। अशोक ने भारत का जबरदस्त नैतिक रूपांतरण किया।इसीलिए के. ए. नीलकांत शास्त्री ने लिखा है अशोक का राज्य भारतीय इतिहास के सर्वाधिक चमकदार पन्ने हैं। ये चमकदार पन्ने कलिंग की विजय नही हैं।वरन् इस विजय में हुई हिंसा से आहत होकर अशोक का भविष्य में केवल धम्म के माध्यम से ही विश्व विजयी होने का द्रढ़ निश्चय था। धम्म अशोक के लिए रामबांण होगया। अपने पहले शिलालेख में अशोक ने लिखवाया कि उनका सिद्दांत धम्म के माध्यम से रक्षा करना, धम्म के अनुसार ही शासन चलाना, धम्म से ही प्रजा को संतुष्ट रखना तथा धम्म से ही साम्राज्य की रक्षा करना।
नैतिकता से विश्वविजयी होने के लिए अशोक ने क्या किया? अपने निजी जीवन में आत्म-संयम, आत्म-नियंत्रण, मन की निर्मलता, पूर्ण समर्पण का भाव लाना, कृतज्ञता लाना सर्वाधिक आवश्यक बताया था।मन की निर्मलता प्राप्त किये बगैर धम्म का पालन संभव नही था। पड़ोसियों, रिस्तेदारों के लिए व्यवहार में ईमानदारी, उदारता बरतना,अपने से भिन्न लोगों(समाजों, संस्कृतियों) के प्रति सहिष्णुता, व आदर का भाव अपनाना,संपूर्ण प्राणी जगत के लिए स्नेह, सदभाव, आत्मीयता होना,बुजुर्गों के लिए श्रद्धा भाव व्यक्त करना, अपनी प्रजा की सुख सुविधा के लिए संचार माध्यमो तथा यातायात के साधनों की व्यवस्था करना, कुएँ खुदवाना, पेड़ लगवाना,सभी इंसानों और जानवरों के लिए इलाज की सुविधा करना आदि, आदि थे। गरीबों के हितों की बादशाह को खास चिंता थी। इसीलिए अशोक स्वयं ग्रामीण क्षेत्रों का अक्सर दौरा किया करते थे।(Roger Boesche
Kautilya's "Arthaωstra" on War and Diplomacy in Ancient India
The Journal of Military History, Vol. 67, No. 1 (Jan., 2003), pp. 9-37).
इसके विपरीत आज स्वंय को भारतीय मूल्यों के अनुसार आचरण करने वाले ,राष्ट्रवादी, हिन्दूवादी बताने वाले राजनीतिक दल अपने ही शासित राज्यों में प्रजा का कत्लेआम करवा रहे हैं। औरतों का असमत लूटी जारही है। घर और संपत्ति लूटी और जलाई जारही है। लोगों को जंगलों या राहत शिविरों में शरण लेने मजबूर किया जारहा है। धर्म के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति को ध्वस्त किया जाता है। हड़ताल और बंद का आह्वान कर शिक्षण संस्थानों,औद्योगिक इकाइयों, व व्यापारिक प्रतिष्ठानों को महिनों तक बंद रहने को मजबूर किया जाता है। अभी जिस प्रकार के समाचार पढ़ने और देखने में आरहे है उससे इन दलों द्वारा शासित राज्यों में आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त संगठनों को संरक्षण तथा पोषण की संभावनाएँ भी लग रही हैं। सेना में भी आतंकियों की घुसपैठ होने के सबूत या संभावनाओं की जांच चल ही है। एक सेवा निवृत एवं एक कार्यरत पदाधिकारी को पुलिस (आतंकवाद निरोधक दस्ते) ने गिरफ्दार किया है। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि राष्ट्रीय स्वंय सेवक का भूतपूर्व सैनिकों का एक प्रकोष्ठ है। कल रात (07, 11 ) ,के एनडीटीवी हिन्दी सेवा का पट्टी में लिखा आरहा था कि एन डी ए शासन काल में बड़ी संख्या भूतपुर्व सैनिकों ने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ली थी। आतंकी घटनाओं में सेना के अफसरों भी हाथ होने की आशंकाओं के संदर्भ में उपरोक्त सूचनाएं महत्वपूर्ण और धर्म के नाम पर फैलाई जारही इस प्रकार की अराजकता से कितने लोगों की रोजी रोटी जाती है कितनों का भविष्य बरबाद होता है। इससे हिंदुत्व के इन ठेकेदारों को मतलब नहीं। इनको स्वर्ग तो जाना नही है। इनको तो किसी भी कीमत पर सत्ता सुख चाहिये। सत्ता में आने के बाद ये भी कांग्रेस की तरह अमेरिका के पिछलग्गू बनने में ही फील गुड करते हैं। चूंकि ये फील गुड करते हैं इसलिए फलते फूलते अमेरिका में ही इनको इंडिया शाइनिंग नजर आती है।अनाज से भरे भंडारों के बावजूद भूख से होरही भारतीयों की मौतें इनको विचलित नही करती। जगत गुरु भारत की और भारतवासियों की ऐसी दुर्दशा करने वाले स्वयं भारतीय ही क्यों हैं यह समझना आवश्यक है।
1990 के अंतिम चरण में, देश में लालकृष्ण आडवाणी के ‘रामरथ’ यात्रा के कारण बड़े पैमाने में दंगे हुए।इन दंगों में हुई हिंसा से व्यथित होकर बंगला भाषा के प्रतिष्ठित साहित्यकार, व गांधी-विचारनिष्ठ लेखक शैलेशकुमार वंद्योपाध्याय ने दंगों के इतिहास पर पुस्तक लिखनी आरंभ की। पुस्तक लेखन के अंतिम दौर में बाबरी मस्जिद के तोड़ दिया गया था तथा पूरे देश को एक बार फिर दंगों की भयानक आग में झोंक दिया गया। इस पुस्तक के एक अध्याय दंगों की अनुवंशिकता में लेखक ने अंग्रेजों की बांटो राज करो नीति का पर्दाफास किया है। लेखक के ही शब्दों में
“1857 की घटना की पुनरावृत्ति न हो इसका उपाय सुझाने के लिए सन् 1859 में ब्रिटिश सरकार ने एक राँयल कमीशन की नियुक्ति की। ....उस राँयल कमीशन के सामने लाँर्ड एलिफिनस्टोन...ने कहा कि हिन्दू-मूसलमान की संयुक्त सैन्यशक्ति के कारण सैनिक विद्रोह आसान हुआ है। इसीलिए कमीशन ने भारतवासियों के बीच भेदभाव का बीज बोने के लिए सुनियोजित कार्यसूची की सिफारिश की।.... सन् 1862 में भारत सचिव उड ने बड़े लाट लाँड एलगिन को लिखा, भारत में हमने अपनी सत्ता एक दल को दूसरे दल से टकराकर कायम रखी है।और इस काम को हमें अभी जारी रखना होगा। अतः देशवासियों के अन्दर सामूहिक चेतना जागृत होने के मार्ग में रुकावट पैदा करने के लिए जो संभव हो किया जाय। सन् 1888 में भारत सचिव जार्ज फ्रांसिस हैमिल्टन ने कर्जन को लिखा ...हम यदि भारतवालियों को बिलकुल भिन्न भिन्न तरह के मतावलम्बी हिस्सों में विभक्त कर सकें तो शिक्षा –विस्तार के पलस्वरूप हमारी शासन-व्यवस्था के ऊपर जो प्रछन्न (गुप्त) तथा निरन्तर आक्रमण होने की सम्भावना है उसके विरुद्ध हमारी स्थिति और भी मजबूत हो सकेगी। पाठ्य पुस्तकों को हमें इस तरह तैयार करना होगा जिससे विभिन्न सम्प्रदायों के बीच के भेदभाबों को और भी बढ़ाया जासके।लाँर्ड क्रास ने भारत के बड़े लाँट डफरिन को बताया, धर्म के क्षेत्र में इस तरह का भेदभाव हमारे स्वार्थ के अत्यन्त अनुकूल है।अतः आपके द्वारा प्रायोजित भारत की शिक्षा- व्यवस्था तथा शिक्षण-सामग्री के सम्बन्ध में बनी जाँच कमिटी द्वारा दिये गये सुझावों से हमें कुछ फायदा होने की आशा है।”(पे. 140-141)
शैलेशकुमार वंद्योपाध्याय आगे जोड़ते हैं कि “भारत सचिव चार्ल्स उड ने वाइसराय को लिखा कि भारत में रह रहे जाति-समूहों का आपसी अन्तर्द्वन्द ही भारत में ब्रिटिशों को ताकत देगा। अतः एक फूट डालनेवाली शक्ति को हमेशा जिन्दा रखना होगा। क्योंकि यदि समग्र भारत हमारे विरुद्ध एक हो जाय तो हम कितने दिनों तक यहां टिके रह पायेंगे।”(पे.146) ऐसे ही कुछ उदगार गांधी ने भी हिन्द स्वराज में व्यक्त किये। गांधी ने लिखा कि अंग्रेजों ने अपनी ताकत के बल पर भारत नही लिया वरन् हम भारतीयों ने उन्हें दे दिया।
1904 में लिखी गई सखाराम गणेश देउस्कर की किताब देश की बात में भी लेखक ने आधुनिक भारत में पनपी धार्मिक असहिष्णुता के लिए अंग्रेजी राज को जिम्मेदार बताया। उनका मानना है कि “शरीर- युद्ध में भारतवासियों का बाहुबल और वाणिज्य-युद्ध में उनका धन बल हरण करके ही अंग्रेज शांत नहीं हुए। .…अंग्रेजों को भारतवासियों में बुद्धि-विप्लव उत्पन्न कर उनकी चित्त –वृतियों में खलबली पैदा करने के लिए भी युद्ध करना पड़ा है। इस देश में नई शिक्षा प्रणाली चलाकर देशवासियों का विचार- स्त्रोत नई राह में बहाना और पाश्चात्य सभ्यता की सहायता से लोगों की बुद्धि को मोहित कर उनमें आत्माभिमान और आत्म-शक्ति पर अविश्वास उत्पन्न कराना ही इस युद्ध का प्रधान लक्ष्य था।इस युद्ध से पराधीन जाति का मनरूपी खेत, जीतने वालों के हाथ में पूरी तौर पर चला जाता है।” (पे.261) इसी पुस्तक के संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण में (1910) लेखक ने लाला हरदयाल के एक लेख को उद्धृत किया है। 1909 में मा़डर्न रिव्यू में छपे लेख में लाला ने लिखा “…कि जब तक कोई विजेता विजित जाति के सामाजिक कार्यों पर अपना प्रभुत्व नहीं जमा लेता अर्थात उनका परिचालन नही करने लगता, तब तक उसकी राजनीतिक जय पूरी नही होती और उस जय की स्थिरता भी नही रहती। जाति की आत्मा को नष्ट करने के लिए सामाजिक जय की आवश्यकता है। विजेता हमें यह सदा सिखाएंगे कि हमलोग उनकी अपेक्षा निम्नकोटि के हैं। उनके आईन और शासन-पद्धति से उनकी यह बात हमारे दिल में चुभ जाएगी। राजनीतिक विजय डंडे की चोट उनकी श्रेष्ठता और हमारी अक्षमता बता देती है। विजित जाति इसी समय अपनी निकृष्टता स्वीकार करती है, और भविष्योन्नति की आशा छोड़ बैठती है। यहीं से उसका मानसिक अधःपतन प्रारंभ होता है। ” (पे. 265)
संघ परिवार के छपे साहित्य पर एक नजर डालने पर हिंदू जाति के उज्ज्वल भविष्य के बारे में उनकी हताशा परिलक्षित होती है। इस निराशा का ताजा उदाहरण विश्व हिंदू परिषद का हिंदुओं से चार बच्चे पैदा करने की फरमाइश है। इसके पीछे जो तर्क दिया गया है वह आने वाले सौ साल में हिंदुओं की स्थिति इतनी दयनीय होने की संभावना बताई गई है कि हिंदू लड़कियों को अपनी अस्मिता बचाने के लिए आत्महत्या करनी पड़ेगी। इस प्रकार की हीन भावना, आत्मविश्वास की कमी, असुरक्षा और हिंसा का वातावरण तो विजित कमजोर का ही आवरण हो सकता है विजेता की मानसिकता की नहीं। विजेता मजबूत होता है और मजबूत को अपनी मजबूती पर विश्वास होता है।इस प्रकार आजादी के साठ साल बाद भी संघ परिवार स्वंय विजित की मानसिकता से उबर पाया है और न ही हमारे समाज को उबरने देना चाहता है।
1947 से पहले भारत को कमजोर करके ही अंग्रेजी साम्राजाय के हित सधते थे। सवाल है भारत को, तथा विभिन्न धर्मों, संप्रदायों में बटे, विभिन्न क्षेत्रों में रह रहे , अलग अलग भाषा बोलने वाले भारतीयों को कौन कमजोर कर रहा है। दंगों से अब किसके हित सध रहे हैं।गुजरात में 2002 में जो हिंसा हुई वह भारत और गुजरात दोनों के माथे पर कलंक का टीका है। इस हिंसा में जो धन संपत्ति का नुकसान हुआ जो उत्पादन के साधन नष्ट हुए जो रोजगार के अवसर समाप्त हुए उससे हिंदू, मुसलमान, गुजराती, भारतीय सभी प्रभावित हुए। इसी प्रकार जम्मू के चालीस दिन से अधिक के बंध, हड़ताल, काश्मीर को जोड़ने वाले इकलौते राजमार्ग को बंद कर देने से जो नुकसान जम्मू काश्मीर की अर्थव्यवस्था को हुआ उससे कौन कमजोर हुआ कौन मजबूत हुआ।उड़ीसा के बारे में भी यही सवाल उठाए जासकते हैं। वह क्या भाषा, प्रांत,क्षेत्र और धर्म के नाम पर लोगों को भड़का कर हिंसा करवा कर भारतीयों का जो आर्थिक, सामाजिक, सास्कृंतिक नुकसान इन राजनीतिज्ञों ने किया है उसका कभी मुल्यांकन होगा? क्या कभी सर्वोच्च न्यायालय इन मुद्दों पर हिंसक राजनीति करने वालों को उनके द्वारा करवाई गई हिंसा की वजह से हुए नुकसान की भरपाई करवाएगा? उमीद तो नही ही है। भारत में संप्रदायिकता का लंबा इतिहास इतना तो स्पष्ट करता है कि संप्रदायिक तत्वों ने अंग्रेजों के राज में आमजन को धर्म के आधार पर बांट कर अंग्रेजी साम्राज्यवादियों के हित साधे। राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर किया। साम्राज्यवादियों की देश का बटवारा करने में मदद की। आज फिर चारों तरफ हिंसा, अराजकता, अविश्वास, वैमनस्य फैलाकर फिर वही चाल चली जारही है। हिंदुओं के कमजोर होने का भय दिखाना भी उसी कड़ी का एक हिस्सा है।




भारत में सिकंदर से लेकर आधुनिक काल तक विदेशी आक्रमण होते रहे हैं। परन्तु भारतीय राजाओं ने चीन की तरह पड़ोसी देशों में अपना कब्जा नही जमाया। भारत की ख्याति धर्म गुरु की रही है साम्राज्यवादी की नही। सम्राट अशोक भी महान बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार की वजह से बने कलिंग विजय की वजह से नहीं।
9,11 के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने पूरे विश्व को दो खेमों में बाटने की कोशिश की।एक खेमा वह जो अमेरिका के नेतृत्व में विश्व को इस्लामी आतंकवाद से निजात दिलाएगा। साथ में यह चेतावनी भी दी गई कि जो देश या समूह इस खेमे का साथ नही देंगे उनको आतंकवाद समर्थक माना जायगा। इसके साथ साथ आतंकवाद को इस्लाम से भी जोड़ दिया गया। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि ओसामा बिन लादेन को इस्लामी जेहादी संगठन बनाने, पाकिस्तानी और अफगानिस्तानी समाज को कट्टर सांप्रदायिक संगठनों में संगठित करने का काम अमेरिका ने ही किया।
संक्षेप में कहा जासकता है अंग्रेजी राज की तरह ही आज भी साम्प्रदायिकता पूँजीवादी नव-साम्राज्यवादी व्यवस्था जिसका अगुवा अमेरिका है को ही पोष रहा है। प्रश्न उठता है इसका जहर देश के विभिन्न इलाकों में, मतावलम्बियों में फैलाकर, हिंसा का तांडव करा कर हम किसका हित साध रहे हैं और क्यों साध रहे हैं?अमेरिकी नव-साम्राज्यवादियों का? भारत की तो यह परम्परा कभी नही रही है। यह हिन्दुत्व कहां से आयात किया गया है ?और क्य़ों?