शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

गांधी जयंती के बहाने।

दो अक्तूबर गांधी जयंती के उपलक्ष में प्रधान मंत्री ने कहा कि नफरत और संघर्ष के कारण महात्मा गांधी का शांति(सत्य का नहीं?)और अहिंसा का संदेश आज भी दुनियां में प्रासंगिक है।लेकिन अपने समाज में अप्रत्याशित रफ्तार से बढ़ रही हिंसा की प्रवृति के कारणों और शीघ्रातिशीघ्र निदान खोजने की आवश्यकता उनको महसूस नही हुई।आज देश के किसी भी भाग में इंसान स्वयं को सुरक्षित महसूस नही कर रहा है। कहीं पर बम के धमाके हैं तो कहीं सांप्रदायिक हिंसा। सांप्रदायिक तत्व अपनी राजनीतिक रोटी सेकने के लिए आम लोगों को धर्म, जाति, भाषा प्रांत आदि के खांचों में बाट कर हिंसा के लिये भड़का रहे हैं।सरकारें इन असामाजिक तत्वों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने से बचती हैं । कारण उनके स्वंय के राजनीतिक हित इस प्रकार की हिंसा से ही सधते हैं। समाज में गरीबी, बेरोरजरगारी इस कदर बढ़ रही है कि समाज के बड़े तबके को वर्ग संघर्ष के अलावा न्याय पाने का दूसरा रास्ता नजर नहीं आता। क्रांतिकारी आंदोलनों को दबाने के लिए सरकारें गरीबों, शोषितों, विस्थापितों को आपस में बाटने में तथा एक दूसरे के विरुद्ध उकसाने लगी हैं(मसलन् छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम)। गाधी जयंती पर राष्ट्रपिता को सच्ची श्रद्धांजलि तो हिंसा के कारणों की समीक्षा ही होगी। क्योंकि सत्य के बगैर अहिंसा संभव ही नही है ।पर हमारे प्रधान मंत्री शांति तो याद रखते हैं सत्य नहीं।
‘त्याग की मूर्ति’ कांग्रेस अध्यक्ष ने भी पानीपत की अपनी रैली में गांधी के आदर्शों का बखान किया। परन्तु केन्द्रीय की सरकार की उपलब्धियों में उन्होंने केवल परमाणु करार का नाम लिया जिसको अमेरिकी सीनेट ने गुरुवार दो अक्तूबर को ही पास कर दिया था।परमाणु करार अपने आप में हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने वाला समझौता है। परमाणु ऊर्जा के जिस उत्पादन को इस करार से बढ़ाया जा सकेगा उससे पर्यावरण के प्रदूषण की जो आशंक्षा व्यक्त की जारही है। इस प्रदूषण से सार्वजनिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। और इस कुप्रभाव से मासूम बच्चे सर्वाधिक पीड़ित होते हैं। परमाणु ऊर्जा उत्पादन में लगी विदेशी कंपनियों के पुराने संयंत्रों को खरीदने में हमारे राजनेता इतने आत्मविभोर हुए हैं कि उनको दीवार पर लिखी यह इबारत नजर नही आती।उनको अपने नौनिहालों के उज्ज्वल भविष्य पर मडराने वाला खतरा भी नहीं दिखता। उन्हें यह जानने की आवश्यकता ही महसूस नही होती कि क्यों फ्रांस,डेनमार्क, नीदरलैंड परमाणु ऊर्जा उत्पादन से अपना हाथ खीच रहे हैं । अमेरिका में भी आखिरी परमाणु संयंत्र व्यावसायिक रूप में 1996 में चालू किया गया था।
सामयिक वार्ता में मनमोहन सिंह पर रत्नेश कुमार कविती छपी है।उसमें लिखा गया है प्रिय मनमोहन/भारतीय तन/ अमेरिकी मन/ कहता जन-जन। मनमोहन ही क्यों?अमेरिकी मन तो आज हर उस मध्यवर्गीय भारतीय का है जो कोई न कोई जुगाड़ लगा कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था की हिस्सा बनने की कोशिश में लगा है। या बन गया है। हम भारतीयों का यह मर्ज पुराना है।अंग्रेजों के भारत आने के बाद से ही अधिकतर संभ्रांत भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने में ही अपना भविष्य देखने लगे थे। हिन्द स्वराज के सातवे अध्याय में गांधी लिखते हैं कि फटापट धनी बनने के चक्कर में भारतीयों ने कम्पनी के कारिन्दों की सहायता की उनको गले लगाया। 1947 में अंग्रेज चले गए।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय जगत में इग्लेंन्ड का स्थान अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने ले लिया। अब अधिकतर संभ्रांत भारतीय (उनकी विचारधारा अमेरिका विरोधी ही क्यों न हो) अमेरिका से जुड़ने में ही अपना भविष्य देखते हैं। सरकारी स्तर पर 1992 से पूरे भारतीय व्यवस्थआ को ही अमेरिका के सांचे में ढ़ालने की कवायद होरही है। लेकिन अमेरिकीकरण की इतने सालों की प्रक्रिया में भी हम आजतक उनके(आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के) उस गुण को नही आत्मसात कर पाए जिसके गांधी भी कायल थे। हिन्द स्वराज के पांचवे अध्याय में अंग्रेजों के सदगुण बताते हुए गांधी लिखते हैं कि अंग्रेज कभी अपने देश की किसी प्रकार की हानि बर्दास्त नही करते । यह गुण अमेरिकियों में भी कूट कूट कर भरा है। इंग्लेंड से आजादी हासिल करने के बाद अमेरिका ने इंग्लेंड पर अपनी असमान आर्थिक निर्भरता से पूरी तरह निजात पा ली और ब्रितानी साम्राज्यवाद से अन्तर्राष्ट्रीय जगत में होड़ करने लगा । प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश की भूमिका में उभरा।
अमेरिका के विपरीत हम भारतीयों में ठेट भारतीय हितों के संरक्षण एवं संवर्धन की कोई जीजीविषा नही दिखती।(अपने को सबसे बड़े राष्ट्रवादी का तमगा देने वाले हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन अंग्रेजों के समय से ही उनके हाथ की कठपुतली बने रहे। आज भी देश के विभिन्न भागों को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झौक कर साम्राज्यवादी तत्वों का ही हित साध रहे हैं।) यदि जीजीविषा होती तो अमेरिका के एक इशारे पर हमारे ईमान्दार प्रधान मंत्री अपनी सरकार को दांव पर नही लगाते तथा हर प्रकार के अनैतिक हथकंडे अपना कर संसद में विश्वास मत हासिल करने की औपचारिकता पूरी नही करते। जिस प्रकार राजनीतिक दलों ने, सांसदों ने पाले बदले वह दर्शाता है कि हमारी मानसिकता आज भी गुलामी की ही है।आज भी हम अपने पूर्वजों की तरह ही (इंग्लेंन्ड की जगह)अमेरिका का स्वागत,उसकी मदद अपने क्षुद्र निजी स्वार्थों की पूर्ति या प्रतिरोध की क्षमता की कमी की वजह से कर रहे हैं। गांधी ने इस खतरे से हमें 1909 में ही सावधान कर दिया था उन्होंने लिखा कि पूँजी अंग्रेजों के लिए ईश्वर है। आज अमेरिकियों के लिए भी यह ईश्वर से कम नही है। अमेरिकियों का व्यापार भी हमें 1909 में अंग्रेजों के व्यापार की तरह अति पसंद है। ब्रितानियों की तरह अपने तौर तरीकों से अमेरिकी हमें खुश रखते हैं और जो चाहते हैं हमसे करवा लेते हैं।(2,10,2008 की परमाणु संधि इसका एक उदारहण है।)
1909 गांधी ने बताया कि अंग्रेज भारत में व्यापार करने आए थे। तथा पूरी दुनियां को अपना बाजार बनाना उनका लक्ष्य था । उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। अमेरिका ने भी आज पूरी दुनियां की अर्थव्यवस्थाओं को अपनी अर्थव्यवस्था का बंधक बनाकर रखा है।1909 की तरह आज भी हम देशवासी भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी पकड़ मजबूत करने में लगे हैं। 1909 में अंग्रेज पूरे विश्व को अपनी मंडी बनाने का प्रयास कर रहे थे पर पूरी तरह सफल नही हो पाए। इसके विपरीत आज अमेरिका ने पूरे विश्व को कमोवेश अपनी मंडी बना ही लिय़ा है। 1909 में यदि हमने आपस में लड़कर अंग्रेजों की शक्ति को बढ़ाया था तो आज भी सभी समाजों के सांप्रदायिक तत्वों ने पूरे देश को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झौकने में कोई कोर कसर नही उठा रखी है।
हिन्द स्वराज के पंद्रहवे अध्याय में गांधी जी बताते हैं कि भारत को किस प्रकार का स्वराज नही चाहिये।अपना मंतब्य समझाने के लिए वे इटली का उदाहरण देते हैं। चूंकि समाज का भविष्य समाज को दिशा देने का दावा करने वाले नेताओं की विचारधारा पर निर्भर करता है इसलिए गांधी इटली के दो प्रमुख नेताओं की विचारधाराओं में भिन्नता की दर्शाते हुए राष्ट्र का मतलब समझाते हैं ।नेता का जनता के प्रति कर्तव्य बताते हैं। गांधी कहते हैं गैरीबाल्डी के लिए इटली का अर्थ वहां का राजा तथा उसके अनुचर थे, जबकि मैज्जिनी के लिए इटली का मतलब वहां की जनता थी। मैज्जिनी राजा को महज जनता का सेवक मानते थे।इटली और आस्ट्रिया के बीच हुआ युद्ध केवल दो राजाओं के बीच का टकराव था जिसमें इन देशों की जनता की हैसियत केवल प्यादे की थी। युद्ध जीतने के बाद इटली की उपलब्धियां मामूली रही। जिन सुधारों के नाम पर युद्ध लड़ा गया था उनको लागू नही किया गया। लोगों की हालत में कोई सुधार नही हुआ है। इसलिए इटली के मजदूरों में असंतोष पनपता रहा। वे हत्याएं करते रहे तथा विरोध प्रदर्शन करते रहे। उनके विद्रोह की आशंका हमेशा बनी रही। गांधी नही चाहते थे कि स्वराज मिलने पर भारत के लोगों की ऐसी दुर्गति हो। यहां के नेता जनता के नाम पर सत्ता हथिया लें ऐसा वे नही चाहते थे । गांधी के लिए राष्ट्र भक्ति (देश भक्ति ) का अर्थ आम जन को तानाशाही के दमन चक्र से बचाना था। देश भक्ति का गांधी के लिए मतलब था सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय । दबाव की राजनीति में गांधी विश्वास नही करते थे।वे मानते थे कि हिंसा के माध्यम से हासिल किये गए अधिकार स्थाई नही होते। कारण जैसे ही हिंसा का भय दूर होजाएगा व्यवस्था इन अधिकारों को वापस ले लेगी।
हमारी आजादी के साठ सालों का इतिहास दर्शाता है कि भारतीय लोगों को अधकचरी आजादी ही मिली।राजनीतिक दल सत्ता हथियाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते रहे हैं। आम इंसान की आवश्यकताएं, और महत्वाकाक्षाएं, हमारे राजनीतिक तंत्र की प्रार्थमिकता नही रही है। समय बीतने के साथ साथ नेताओं तथा उनके द्वारा चलाई जा रही व्यवस्था का असली रुप समाज के सामने आगया। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की जगह पूँजी खासकर विदेशी पूँजी हिताय उनका उद्देश्य रह गया है। 1992 के बाद स्थिति और भी खराब होने लग गई है। उदारीकरण की वजह से अमीर और अमीर गरीब और गरीब होरहे हैं।हताशा में विभिन्न वर्गों के लोग आत्महत्या कर रहे हैं। अभी तक किसानों की आत्मह्त्या सुर्खियों में थी तो अब बुरकरों के आत्महत्या के समाचार आने लगे हैं। आर्थिक मंदी के कारण डाक्टर सटोरियों के भी मानसिक परेशानियों का शिकार होने की घटनाएं बता रहे हैं।
लोगों का धैर्य उनका साथ छोड़ रहा है।अपनी जायज और नाजायज मागें मनवाने के लिए लोग हिंसा का सहारा ले रहे हैं। व्यवस्था का दमन भी चरम पर है।आज देश और देशवासियों की हालात उस तरह की ही है जिस तरह की हालत देख कर गांधी को 1909 में रोना आता था। भारतीय नेता भी गैरीबाल्डी की तरह हैं। इन नेताओं के लिए लोग राष्ट्र का निर्माण नही करते वरन् भौगोनिक सीमाएं देश का निर्माण करती हैं।