रविवार, 9 नवंबर 2008

भारत कभी जगत गुरु होता था और आज!!!



अभी हाल तक भारतीय जनता दल के नेता ताल ठोक कर कहते थे कि पकड़े गए आतंकी मुसलमान ही होते हैं। अब जब उनकी करीबी साध्वी के भेष में सांप्रदायिक जहर उगलने के साथ साथ मालेगांव और मोडासा में हुए बम धमाकों संलिप्त होने के आरोप में पकड़ी गई है तो संघ परिवार के कई नेता इसको इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध जन आक्रोष बताने की कोशिश कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि हिंदू आतंकवादी नही होता। उड़ीसा के कंधमाल में इसाइयों के विरुद्ध की गई योजनाबद्ध हिंसा को भी आम जन द्वारा की गई स्वतः स्पूर्त हिंसा की संज्ञा दी जाती है। सवाल उठता है कि स्वतः स्पूर्त हिंसा भी तभी भड़कती है जब उसके लिए जमीन तैयार की गई होती है। एक समुदाय के लोगों के मन में दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति घृणा, अविश्वास के बीज सतत् प्रयास से बोए जाते हैं। मौका मिलते ही ये बीज हिंसक घटनाओं के रूप में अंकुरित होते हैं। इससे पहले भी जब जब संघ परिवार ने दंगे भड़काए तो उन दंगो को जन आक्रोष की ही संज्ञा दी। 2002 के गुजरात के मुसलमानों के कत्लेआम को क्रिया प्रतिक्रिया कहा गया। जब जब जन आक्रोष की दलील दी गई तब तब दिमाग में एक सवाल कौंधा कि प्रतिद्वंदी को समूल नष्ट कर देना या उसकी कमर तोड़ देना तो भारतीय परंपरा नही रही। जब हमारी परंपरा ही नहीं रही तो फिर इस प्रकार का हिंसक व्यवहार अचानक 19वी 20बी सदी क्यों प्रारंभ हुआ वह भी धर्म के नाम पर।
हिंदू समाज में जाति-आधारित दमन शोषण रहा है पर प्रतिद्वंदी संप्रदायों का कत्लेआम नही
मसलन् जिस मर्यादा पुरुष राम का मंदिर बनाने के लिए अयोध्या और पूरे भारत में संघ परिवार हिंसा का तांडव नृत्य करवाता रहा है उस राम ने आताताई शासकों को हराया लेकिन कहीं भी प्रजा का कत्लेआम नही कराया।इसके विपरीत जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर जो हिंसा आज भड़काई जारही है उसमें निहत्थी गरीब प्रजा ही मारी जारही है। पांडवों को भी महाभारत का युद्ध मजबूरी में लड़ना पड़ा। युद्ध टालने के लिए उन्होंने कौरवों की हर जां बेजां शर्त मानी। लेकिन इसके बाद भी जब उनको पांच गांव देने के लिए भी कौरव राजी नही हुए तो महाभारत हुआ। इस महाभारत के युद्ध में भी सैनिक हताहत हुए। प्रजा का कत्लेआम तो नही हुआ। हां धर्म की रक्षा के नाम पर जातिवादी ब्राह्मणी व्यवस्था का ही संरक्षण किया।जिन शूद्रों व एकलव्यों ने इस ब्राह्मणी व्यवस्था को चुनौती देने की गुस्ताखी की उनको अपनी जान या अंगूठा खोना पड़ा। इस प्रकार भारतीय हिंदू जनमानस की आस्था के जो मुख्य प्रतीक माने जाते हैं जिनको आज भावनाएँ भड़काने तथा अपने ही देश के के लोगों को उजाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जारहा है वे भावनाओं में बह कर अनाचार और अत्याचार करने वाले नहीं थे।उन्होंने तो आताताई शासकों का ही विनाश किया। और यह विनाश एक प्रकार से बेकसूर प्रजा को इन राजाओं के अत्याचारों से बचाया। नारी का अपमान खासकर उसकी अस्मिता लूटने जैसा जघन्य अपराध तो किसी भी हाल में क्षम्य नही था। आज किस हिंदू धर्म को बचाने के नाम पर ये सभी दुष्कर्म किये जारहे हैं?यह प्रश्न उन सबको पूछना चाहिये जो इनके बहकावे में आकर आम जनजीवन असुरक्षित कर रहे हैं। नारी अस्मिता लूट रहे हैं।
भारत के प्राचीन इतिहास पर एक सरसरी नजर डालने पर भी यह स्पष्ट हो जाता है कि हम साम्राज्यवादी कभी भी नही रहे हैं। विद्वानों का मानना है कि वैदिक काल में राजा, जनजातीय-सभा, और समिति की सहमति से ही निर्णय लिए जाते थे। बौद्ध काल (600 B.C.-A.D. 200 ) में गणराज्यों का अधिक चलन था। कई गणराज्यों में सत्ता बहुत सारे व्यक्तियों के हाथ में होती थी।गणराज्य के मुखिया का चुनाव होता था।सभी महत्वपूर्ण मसले सभा में पेश किये जाते थे।स्थानीय प्रशासन स्थानीय सभाएँ चलाती थी तथा राज्य के प्रशासन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। कुछ गणराज्यों में गावों को विभिन्न आर्थिक पेशों के आधार पर संगठित किया जाता था। हालाकि निरंकुश राजतंत्र इस काल में नही था। परन्तु सत्ता की प्रकृति और चरित्र भी पूर्णरूप से लोकतांत्रिक नहीं था।सभा और समितियों में कुलीन वर्गों के प्रबुद्ध लोगों का दबदबा था।इसी वर्ग के बुजुर्गों का सभा में भी बोलबाला था।(Om Prakash,Negating the Colonial Construct of Oriental Despotism: The Science of Statecraft in Ancient India) संक्षेप में शासन एक व्यक्ति तथा उसके सहायकों की सहायता से नही वरन् ऊँची जातियों के प्रबुद्ध लोगों की सहमति से चलता था।शासन, प्रशासन, समाज और अर्थव्यवस्था में इन जातियों का दबदबा तब भी था और आज भी बरकरार है।
ईसा पूर्व 300 में कौटिल्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ अर्थशास्त्र में मजबूत राजतंत्र की वकालत की तथा चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में प्रथम हिंदू साम्राज्य स्थापित किया। इस ग्रंथ में कौटिल्य ने लिखा है कि राजा को वर्ण तथा आश्रम आधारित सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहिये। इस ब्यवस्था में किसी प्रकार के परिवर्तन की आज्ञा नही थी। ब्राह्मणों का समाज में विशेष स्थान था। इसकी वजह से उनका राजनीति में भी गहरा प्रभाव था। राजा के मंत्री इसी जाति के लोग होते थे। राज पुरोहित का राजा पर खासा प्रभाव होता था। हालाकि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था जाति आधारित असमान व्यवस्था थी। कौटिल्य का राजा प्रजा पालक था। कौटिल्य ने सेना में सभी वर्णों के लोगों की भर्ती का प्रावधान किया था। योगक्षेम जिसकों बनाए रखना राजा का मुख्य उद्देश्य था, उराके तहत जनता का हित ही नही वरन् जनता की सम्पंनता तथा जनता की खुशहाली भी आती थी।राजा की खुशी प्रजा की खुशी में निहित थी। प्रजा के हित में ही राजा का हित भी होता था। राजा का सर्वप्रथम कर्तब्य असामाजिक तत्वों से, धोखेबाज ब्यापारियों, और कारीगरों से, चोरों डाकुओं व हत्यारों से प्रजा की रक्षण व पालन माना गया।संरक्षण का अर्थ जान माल की रक्षा था। यह मान्यता थी कि जो राजा अपनी प्रजा के प्रति अपने कर्तब्यों का ईमानदारी से पालन करता है वह स्वर्ग का अधिकारी होता है।
चंद्र्गुप्त को भारत को एकता के सूत्र में बांधने वाला पहला सम्राट माना जाता है। चंद्रगुप्त के बाद पुत्र बिंदुसार फिर पोता अशोक गद्दी पर बैठा। इस महान साम्राज्य की जनसंख्या पचास मिलियन थी और क्षेत्र में यह मुगल साम्राज्य तथा भारत में अंग्रेजी साम्राज्य से भी बड़ा था। चंद्र गुप्त की राजधानी पाटलीपुत्र उस समय का विश्व में सबसे बड़ा शहर था।यह आठ मील लंबा व डेढ़ मील चौड़ा था।इसमें 570 स्तंभ थे और चौसठ दरवाजे थे। इतना बड़ा साम्राज्य स्थापित करने पर भी चमद्रगुप्त को नहीं उसके पोते अशोक को विश्व इतिहास में सर्वोत्तम शासक माना जाता है। क्यों ?क्योंकि सम्राट अशोक ने ही विश्व को समानता तथा नैतिकता का पाठ पढ़ाया। इसीलिए प्राचीन काल से ही भारत को विश्व में जगत गुरु माना जाता रहा है।
अशोक नैतिकता का वह पाठ जिसने भारत को जगत गुरु बनाया।
भारत को जगत गुरु बनाने का श्रेय सम्राट अशोक को जाता है। चंद्रगुप्त, बिंदुसार या इनके गुरु कौटिल्य को नहीं।अशोक ने क्या किया कि भारत जगत गुरु होगया। अशोक ने भारत का जबरदस्त नैतिक रूपांतरण किया।इसीलिए के. ए. नीलकांत शास्त्री ने लिखा है अशोक का राज्य भारतीय इतिहास के सर्वाधिक चमकदार पन्ने हैं। ये चमकदार पन्ने कलिंग की विजय नही हैं।वरन् इस विजय में हुई हिंसा से आहत होकर अशोक का भविष्य में केवल धम्म के माध्यम से ही विश्व विजयी होने का द्रढ़ निश्चय था। धम्म अशोक के लिए रामबांण होगया। अपने पहले शिलालेख में अशोक ने लिखवाया कि उनका सिद्दांत धम्म के माध्यम से रक्षा करना, धम्म के अनुसार ही शासन चलाना, धम्म से ही प्रजा को संतुष्ट रखना तथा धम्म से ही साम्राज्य की रक्षा करना।
नैतिकता से विश्वविजयी होने के लिए अशोक ने क्या किया? अपने निजी जीवन में आत्म-संयम, आत्म-नियंत्रण, मन की निर्मलता, पूर्ण समर्पण का भाव लाना, कृतज्ञता लाना सर्वाधिक आवश्यक बताया था।मन की निर्मलता प्राप्त किये बगैर धम्म का पालन संभव नही था। पड़ोसियों, रिस्तेदारों के लिए व्यवहार में ईमानदारी, उदारता बरतना,अपने से भिन्न लोगों(समाजों, संस्कृतियों) के प्रति सहिष्णुता, व आदर का भाव अपनाना,संपूर्ण प्राणी जगत के लिए स्नेह, सदभाव, आत्मीयता होना,बुजुर्गों के लिए श्रद्धा भाव व्यक्त करना, अपनी प्रजा की सुख सुविधा के लिए संचार माध्यमो तथा यातायात के साधनों की व्यवस्था करना, कुएँ खुदवाना, पेड़ लगवाना,सभी इंसानों और जानवरों के लिए इलाज की सुविधा करना आदि, आदि थे। गरीबों के हितों की बादशाह को खास चिंता थी। इसीलिए अशोक स्वयं ग्रामीण क्षेत्रों का अक्सर दौरा किया करते थे।(Roger Boesche
Kautilya's "Arthaωstra" on War and Diplomacy in Ancient India
The Journal of Military History, Vol. 67, No. 1 (Jan., 2003), pp. 9-37).
इसके विपरीत आज स्वंय को भारतीय मूल्यों के अनुसार आचरण करने वाले ,राष्ट्रवादी, हिन्दूवादी बताने वाले राजनीतिक दल अपने ही शासित राज्यों में प्रजा का कत्लेआम करवा रहे हैं। औरतों का असमत लूटी जारही है। घर और संपत्ति लूटी और जलाई जारही है। लोगों को जंगलों या राहत शिविरों में शरण लेने मजबूर किया जारहा है। धर्म के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति को ध्वस्त किया जाता है। हड़ताल और बंद का आह्वान कर शिक्षण संस्थानों,औद्योगिक इकाइयों, व व्यापारिक प्रतिष्ठानों को महिनों तक बंद रहने को मजबूर किया जाता है। अभी जिस प्रकार के समाचार पढ़ने और देखने में आरहे है उससे इन दलों द्वारा शासित राज्यों में आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त संगठनों को संरक्षण तथा पोषण की संभावनाएँ भी लग रही हैं। सेना में भी आतंकियों की घुसपैठ होने के सबूत या संभावनाओं की जांच चल ही है। एक सेवा निवृत एवं एक कार्यरत पदाधिकारी को पुलिस (आतंकवाद निरोधक दस्ते) ने गिरफ्दार किया है। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि राष्ट्रीय स्वंय सेवक का भूतपूर्व सैनिकों का एक प्रकोष्ठ है। कल रात (07, 11 ) ,के एनडीटीवी हिन्दी सेवा का पट्टी में लिखा आरहा था कि एन डी ए शासन काल में बड़ी संख्या भूतपुर्व सैनिकों ने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ली थी। आतंकी घटनाओं में सेना के अफसरों भी हाथ होने की आशंकाओं के संदर्भ में उपरोक्त सूचनाएं महत्वपूर्ण और धर्म के नाम पर फैलाई जारही इस प्रकार की अराजकता से कितने लोगों की रोजी रोटी जाती है कितनों का भविष्य बरबाद होता है। इससे हिंदुत्व के इन ठेकेदारों को मतलब नहीं। इनको स्वर्ग तो जाना नही है। इनको तो किसी भी कीमत पर सत्ता सुख चाहिये। सत्ता में आने के बाद ये भी कांग्रेस की तरह अमेरिका के पिछलग्गू बनने में ही फील गुड करते हैं। चूंकि ये फील गुड करते हैं इसलिए फलते फूलते अमेरिका में ही इनको इंडिया शाइनिंग नजर आती है।अनाज से भरे भंडारों के बावजूद भूख से होरही भारतीयों की मौतें इनको विचलित नही करती। जगत गुरु भारत की और भारतवासियों की ऐसी दुर्दशा करने वाले स्वयं भारतीय ही क्यों हैं यह समझना आवश्यक है।
1990 के अंतिम चरण में, देश में लालकृष्ण आडवाणी के ‘रामरथ’ यात्रा के कारण बड़े पैमाने में दंगे हुए।इन दंगों में हुई हिंसा से व्यथित होकर बंगला भाषा के प्रतिष्ठित साहित्यकार, व गांधी-विचारनिष्ठ लेखक शैलेशकुमार वंद्योपाध्याय ने दंगों के इतिहास पर पुस्तक लिखनी आरंभ की। पुस्तक लेखन के अंतिम दौर में बाबरी मस्जिद के तोड़ दिया गया था तथा पूरे देश को एक बार फिर दंगों की भयानक आग में झोंक दिया गया। इस पुस्तक के एक अध्याय दंगों की अनुवंशिकता में लेखक ने अंग्रेजों की बांटो राज करो नीति का पर्दाफास किया है। लेखक के ही शब्दों में
“1857 की घटना की पुनरावृत्ति न हो इसका उपाय सुझाने के लिए सन् 1859 में ब्रिटिश सरकार ने एक राँयल कमीशन की नियुक्ति की। ....उस राँयल कमीशन के सामने लाँर्ड एलिफिनस्टोन...ने कहा कि हिन्दू-मूसलमान की संयुक्त सैन्यशक्ति के कारण सैनिक विद्रोह आसान हुआ है। इसीलिए कमीशन ने भारतवासियों के बीच भेदभाव का बीज बोने के लिए सुनियोजित कार्यसूची की सिफारिश की।.... सन् 1862 में भारत सचिव उड ने बड़े लाट लाँड एलगिन को लिखा, भारत में हमने अपनी सत्ता एक दल को दूसरे दल से टकराकर कायम रखी है।और इस काम को हमें अभी जारी रखना होगा। अतः देशवासियों के अन्दर सामूहिक चेतना जागृत होने के मार्ग में रुकावट पैदा करने के लिए जो संभव हो किया जाय। सन् 1888 में भारत सचिव जार्ज फ्रांसिस हैमिल्टन ने कर्जन को लिखा ...हम यदि भारतवालियों को बिलकुल भिन्न भिन्न तरह के मतावलम्बी हिस्सों में विभक्त कर सकें तो शिक्षा –विस्तार के पलस्वरूप हमारी शासन-व्यवस्था के ऊपर जो प्रछन्न (गुप्त) तथा निरन्तर आक्रमण होने की सम्भावना है उसके विरुद्ध हमारी स्थिति और भी मजबूत हो सकेगी। पाठ्य पुस्तकों को हमें इस तरह तैयार करना होगा जिससे विभिन्न सम्प्रदायों के बीच के भेदभाबों को और भी बढ़ाया जासके।लाँर्ड क्रास ने भारत के बड़े लाँट डफरिन को बताया, धर्म के क्षेत्र में इस तरह का भेदभाव हमारे स्वार्थ के अत्यन्त अनुकूल है।अतः आपके द्वारा प्रायोजित भारत की शिक्षा- व्यवस्था तथा शिक्षण-सामग्री के सम्बन्ध में बनी जाँच कमिटी द्वारा दिये गये सुझावों से हमें कुछ फायदा होने की आशा है।”(पे. 140-141)
शैलेशकुमार वंद्योपाध्याय आगे जोड़ते हैं कि “भारत सचिव चार्ल्स उड ने वाइसराय को लिखा कि भारत में रह रहे जाति-समूहों का आपसी अन्तर्द्वन्द ही भारत में ब्रिटिशों को ताकत देगा। अतः एक फूट डालनेवाली शक्ति को हमेशा जिन्दा रखना होगा। क्योंकि यदि समग्र भारत हमारे विरुद्ध एक हो जाय तो हम कितने दिनों तक यहां टिके रह पायेंगे।”(पे.146) ऐसे ही कुछ उदगार गांधी ने भी हिन्द स्वराज में व्यक्त किये। गांधी ने लिखा कि अंग्रेजों ने अपनी ताकत के बल पर भारत नही लिया वरन् हम भारतीयों ने उन्हें दे दिया।
1904 में लिखी गई सखाराम गणेश देउस्कर की किताब देश की बात में भी लेखक ने आधुनिक भारत में पनपी धार्मिक असहिष्णुता के लिए अंग्रेजी राज को जिम्मेदार बताया। उनका मानना है कि “शरीर- युद्ध में भारतवासियों का बाहुबल और वाणिज्य-युद्ध में उनका धन बल हरण करके ही अंग्रेज शांत नहीं हुए। .…अंग्रेजों को भारतवासियों में बुद्धि-विप्लव उत्पन्न कर उनकी चित्त –वृतियों में खलबली पैदा करने के लिए भी युद्ध करना पड़ा है। इस देश में नई शिक्षा प्रणाली चलाकर देशवासियों का विचार- स्त्रोत नई राह में बहाना और पाश्चात्य सभ्यता की सहायता से लोगों की बुद्धि को मोहित कर उनमें आत्माभिमान और आत्म-शक्ति पर अविश्वास उत्पन्न कराना ही इस युद्ध का प्रधान लक्ष्य था।इस युद्ध से पराधीन जाति का मनरूपी खेत, जीतने वालों के हाथ में पूरी तौर पर चला जाता है।” (पे.261) इसी पुस्तक के संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण में (1910) लेखक ने लाला हरदयाल के एक लेख को उद्धृत किया है। 1909 में मा़डर्न रिव्यू में छपे लेख में लाला ने लिखा “…कि जब तक कोई विजेता विजित जाति के सामाजिक कार्यों पर अपना प्रभुत्व नहीं जमा लेता अर्थात उनका परिचालन नही करने लगता, तब तक उसकी राजनीतिक जय पूरी नही होती और उस जय की स्थिरता भी नही रहती। जाति की आत्मा को नष्ट करने के लिए सामाजिक जय की आवश्यकता है। विजेता हमें यह सदा सिखाएंगे कि हमलोग उनकी अपेक्षा निम्नकोटि के हैं। उनके आईन और शासन-पद्धति से उनकी यह बात हमारे दिल में चुभ जाएगी। राजनीतिक विजय डंडे की चोट उनकी श्रेष्ठता और हमारी अक्षमता बता देती है। विजित जाति इसी समय अपनी निकृष्टता स्वीकार करती है, और भविष्योन्नति की आशा छोड़ बैठती है। यहीं से उसका मानसिक अधःपतन प्रारंभ होता है। ” (पे. 265)
संघ परिवार के छपे साहित्य पर एक नजर डालने पर हिंदू जाति के उज्ज्वल भविष्य के बारे में उनकी हताशा परिलक्षित होती है। इस निराशा का ताजा उदाहरण विश्व हिंदू परिषद का हिंदुओं से चार बच्चे पैदा करने की फरमाइश है। इसके पीछे जो तर्क दिया गया है वह आने वाले सौ साल में हिंदुओं की स्थिति इतनी दयनीय होने की संभावना बताई गई है कि हिंदू लड़कियों को अपनी अस्मिता बचाने के लिए आत्महत्या करनी पड़ेगी। इस प्रकार की हीन भावना, आत्मविश्वास की कमी, असुरक्षा और हिंसा का वातावरण तो विजित कमजोर का ही आवरण हो सकता है विजेता की मानसिकता की नहीं। विजेता मजबूत होता है और मजबूत को अपनी मजबूती पर विश्वास होता है।इस प्रकार आजादी के साठ साल बाद भी संघ परिवार स्वंय विजित की मानसिकता से उबर पाया है और न ही हमारे समाज को उबरने देना चाहता है।
1947 से पहले भारत को कमजोर करके ही अंग्रेजी साम्राजाय के हित सधते थे। सवाल है भारत को, तथा विभिन्न धर्मों, संप्रदायों में बटे, विभिन्न क्षेत्रों में रह रहे , अलग अलग भाषा बोलने वाले भारतीयों को कौन कमजोर कर रहा है। दंगों से अब किसके हित सध रहे हैं।गुजरात में 2002 में जो हिंसा हुई वह भारत और गुजरात दोनों के माथे पर कलंक का टीका है। इस हिंसा में जो धन संपत्ति का नुकसान हुआ जो उत्पादन के साधन नष्ट हुए जो रोजगार के अवसर समाप्त हुए उससे हिंदू, मुसलमान, गुजराती, भारतीय सभी प्रभावित हुए। इसी प्रकार जम्मू के चालीस दिन से अधिक के बंध, हड़ताल, काश्मीर को जोड़ने वाले इकलौते राजमार्ग को बंद कर देने से जो नुकसान जम्मू काश्मीर की अर्थव्यवस्था को हुआ उससे कौन कमजोर हुआ कौन मजबूत हुआ।उड़ीसा के बारे में भी यही सवाल उठाए जासकते हैं। वह क्या भाषा, प्रांत,क्षेत्र और धर्म के नाम पर लोगों को भड़का कर हिंसा करवा कर भारतीयों का जो आर्थिक, सामाजिक, सास्कृंतिक नुकसान इन राजनीतिज्ञों ने किया है उसका कभी मुल्यांकन होगा? क्या कभी सर्वोच्च न्यायालय इन मुद्दों पर हिंसक राजनीति करने वालों को उनके द्वारा करवाई गई हिंसा की वजह से हुए नुकसान की भरपाई करवाएगा? उमीद तो नही ही है। भारत में संप्रदायिकता का लंबा इतिहास इतना तो स्पष्ट करता है कि संप्रदायिक तत्वों ने अंग्रेजों के राज में आमजन को धर्म के आधार पर बांट कर अंग्रेजी साम्राज्यवादियों के हित साधे। राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर किया। साम्राज्यवादियों की देश का बटवारा करने में मदद की। आज फिर चारों तरफ हिंसा, अराजकता, अविश्वास, वैमनस्य फैलाकर फिर वही चाल चली जारही है। हिंदुओं के कमजोर होने का भय दिखाना भी उसी कड़ी का एक हिस्सा है।




भारत में सिकंदर से लेकर आधुनिक काल तक विदेशी आक्रमण होते रहे हैं। परन्तु भारतीय राजाओं ने चीन की तरह पड़ोसी देशों में अपना कब्जा नही जमाया। भारत की ख्याति धर्म गुरु की रही है साम्राज्यवादी की नही। सम्राट अशोक भी महान बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार की वजह से बने कलिंग विजय की वजह से नहीं।
9,11 के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने पूरे विश्व को दो खेमों में बाटने की कोशिश की।एक खेमा वह जो अमेरिका के नेतृत्व में विश्व को इस्लामी आतंकवाद से निजात दिलाएगा। साथ में यह चेतावनी भी दी गई कि जो देश या समूह इस खेमे का साथ नही देंगे उनको आतंकवाद समर्थक माना जायगा। इसके साथ साथ आतंकवाद को इस्लाम से भी जोड़ दिया गया। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि ओसामा बिन लादेन को इस्लामी जेहादी संगठन बनाने, पाकिस्तानी और अफगानिस्तानी समाज को कट्टर सांप्रदायिक संगठनों में संगठित करने का काम अमेरिका ने ही किया।
संक्षेप में कहा जासकता है अंग्रेजी राज की तरह ही आज भी साम्प्रदायिकता पूँजीवादी नव-साम्राज्यवादी व्यवस्था जिसका अगुवा अमेरिका है को ही पोष रहा है। प्रश्न उठता है इसका जहर देश के विभिन्न इलाकों में, मतावलम्बियों में फैलाकर, हिंसा का तांडव करा कर हम किसका हित साध रहे हैं और क्यों साध रहे हैं?अमेरिकी नव-साम्राज्यवादियों का? भारत की तो यह परम्परा कभी नही रही है। यह हिन्दुत्व कहां से आयात किया गया है ?और क्य़ों?

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

गांधी जयंती के बहाने।

दो अक्तूबर गांधी जयंती के उपलक्ष में प्रधान मंत्री ने कहा कि नफरत और संघर्ष के कारण महात्मा गांधी का शांति(सत्य का नहीं?)और अहिंसा का संदेश आज भी दुनियां में प्रासंगिक है।लेकिन अपने समाज में अप्रत्याशित रफ्तार से बढ़ रही हिंसा की प्रवृति के कारणों और शीघ्रातिशीघ्र निदान खोजने की आवश्यकता उनको महसूस नही हुई।आज देश के किसी भी भाग में इंसान स्वयं को सुरक्षित महसूस नही कर रहा है। कहीं पर बम के धमाके हैं तो कहीं सांप्रदायिक हिंसा। सांप्रदायिक तत्व अपनी राजनीतिक रोटी सेकने के लिए आम लोगों को धर्म, जाति, भाषा प्रांत आदि के खांचों में बाट कर हिंसा के लिये भड़का रहे हैं।सरकारें इन असामाजिक तत्वों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने से बचती हैं । कारण उनके स्वंय के राजनीतिक हित इस प्रकार की हिंसा से ही सधते हैं। समाज में गरीबी, बेरोरजरगारी इस कदर बढ़ रही है कि समाज के बड़े तबके को वर्ग संघर्ष के अलावा न्याय पाने का दूसरा रास्ता नजर नहीं आता। क्रांतिकारी आंदोलनों को दबाने के लिए सरकारें गरीबों, शोषितों, विस्थापितों को आपस में बाटने में तथा एक दूसरे के विरुद्ध उकसाने लगी हैं(मसलन् छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम)। गाधी जयंती पर राष्ट्रपिता को सच्ची श्रद्धांजलि तो हिंसा के कारणों की समीक्षा ही होगी। क्योंकि सत्य के बगैर अहिंसा संभव ही नही है ।पर हमारे प्रधान मंत्री शांति तो याद रखते हैं सत्य नहीं।
‘त्याग की मूर्ति’ कांग्रेस अध्यक्ष ने भी पानीपत की अपनी रैली में गांधी के आदर्शों का बखान किया। परन्तु केन्द्रीय की सरकार की उपलब्धियों में उन्होंने केवल परमाणु करार का नाम लिया जिसको अमेरिकी सीनेट ने गुरुवार दो अक्तूबर को ही पास कर दिया था।परमाणु करार अपने आप में हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने वाला समझौता है। परमाणु ऊर्जा के जिस उत्पादन को इस करार से बढ़ाया जा सकेगा उससे पर्यावरण के प्रदूषण की जो आशंक्षा व्यक्त की जारही है। इस प्रदूषण से सार्वजनिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। और इस कुप्रभाव से मासूम बच्चे सर्वाधिक पीड़ित होते हैं। परमाणु ऊर्जा उत्पादन में लगी विदेशी कंपनियों के पुराने संयंत्रों को खरीदने में हमारे राजनेता इतने आत्मविभोर हुए हैं कि उनको दीवार पर लिखी यह इबारत नजर नही आती।उनको अपने नौनिहालों के उज्ज्वल भविष्य पर मडराने वाला खतरा भी नहीं दिखता। उन्हें यह जानने की आवश्यकता ही महसूस नही होती कि क्यों फ्रांस,डेनमार्क, नीदरलैंड परमाणु ऊर्जा उत्पादन से अपना हाथ खीच रहे हैं । अमेरिका में भी आखिरी परमाणु संयंत्र व्यावसायिक रूप में 1996 में चालू किया गया था।
सामयिक वार्ता में मनमोहन सिंह पर रत्नेश कुमार कविती छपी है।उसमें लिखा गया है प्रिय मनमोहन/भारतीय तन/ अमेरिकी मन/ कहता जन-जन। मनमोहन ही क्यों?अमेरिकी मन तो आज हर उस मध्यवर्गीय भारतीय का है जो कोई न कोई जुगाड़ लगा कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था की हिस्सा बनने की कोशिश में लगा है। या बन गया है। हम भारतीयों का यह मर्ज पुराना है।अंग्रेजों के भारत आने के बाद से ही अधिकतर संभ्रांत भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने में ही अपना भविष्य देखने लगे थे। हिन्द स्वराज के सातवे अध्याय में गांधी लिखते हैं कि फटापट धनी बनने के चक्कर में भारतीयों ने कम्पनी के कारिन्दों की सहायता की उनको गले लगाया। 1947 में अंग्रेज चले गए।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय जगत में इग्लेंन्ड का स्थान अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने ले लिया। अब अधिकतर संभ्रांत भारतीय (उनकी विचारधारा अमेरिका विरोधी ही क्यों न हो) अमेरिका से जुड़ने में ही अपना भविष्य देखते हैं। सरकारी स्तर पर 1992 से पूरे भारतीय व्यवस्थआ को ही अमेरिका के सांचे में ढ़ालने की कवायद होरही है। लेकिन अमेरिकीकरण की इतने सालों की प्रक्रिया में भी हम आजतक उनके(आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के) उस गुण को नही आत्मसात कर पाए जिसके गांधी भी कायल थे। हिन्द स्वराज के पांचवे अध्याय में अंग्रेजों के सदगुण बताते हुए गांधी लिखते हैं कि अंग्रेज कभी अपने देश की किसी प्रकार की हानि बर्दास्त नही करते । यह गुण अमेरिकियों में भी कूट कूट कर भरा है। इंग्लेंड से आजादी हासिल करने के बाद अमेरिका ने इंग्लेंड पर अपनी असमान आर्थिक निर्भरता से पूरी तरह निजात पा ली और ब्रितानी साम्राज्यवाद से अन्तर्राष्ट्रीय जगत में होड़ करने लगा । प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश की भूमिका में उभरा।
अमेरिका के विपरीत हम भारतीयों में ठेट भारतीय हितों के संरक्षण एवं संवर्धन की कोई जीजीविषा नही दिखती।(अपने को सबसे बड़े राष्ट्रवादी का तमगा देने वाले हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन अंग्रेजों के समय से ही उनके हाथ की कठपुतली बने रहे। आज भी देश के विभिन्न भागों को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झौक कर साम्राज्यवादी तत्वों का ही हित साध रहे हैं।) यदि जीजीविषा होती तो अमेरिका के एक इशारे पर हमारे ईमान्दार प्रधान मंत्री अपनी सरकार को दांव पर नही लगाते तथा हर प्रकार के अनैतिक हथकंडे अपना कर संसद में विश्वास मत हासिल करने की औपचारिकता पूरी नही करते। जिस प्रकार राजनीतिक दलों ने, सांसदों ने पाले बदले वह दर्शाता है कि हमारी मानसिकता आज भी गुलामी की ही है।आज भी हम अपने पूर्वजों की तरह ही (इंग्लेंन्ड की जगह)अमेरिका का स्वागत,उसकी मदद अपने क्षुद्र निजी स्वार्थों की पूर्ति या प्रतिरोध की क्षमता की कमी की वजह से कर रहे हैं। गांधी ने इस खतरे से हमें 1909 में ही सावधान कर दिया था उन्होंने लिखा कि पूँजी अंग्रेजों के लिए ईश्वर है। आज अमेरिकियों के लिए भी यह ईश्वर से कम नही है। अमेरिकियों का व्यापार भी हमें 1909 में अंग्रेजों के व्यापार की तरह अति पसंद है। ब्रितानियों की तरह अपने तौर तरीकों से अमेरिकी हमें खुश रखते हैं और जो चाहते हैं हमसे करवा लेते हैं।(2,10,2008 की परमाणु संधि इसका एक उदारहण है।)
1909 गांधी ने बताया कि अंग्रेज भारत में व्यापार करने आए थे। तथा पूरी दुनियां को अपना बाजार बनाना उनका लक्ष्य था । उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। अमेरिका ने भी आज पूरी दुनियां की अर्थव्यवस्थाओं को अपनी अर्थव्यवस्था का बंधक बनाकर रखा है।1909 की तरह आज भी हम देशवासी भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी पकड़ मजबूत करने में लगे हैं। 1909 में अंग्रेज पूरे विश्व को अपनी मंडी बनाने का प्रयास कर रहे थे पर पूरी तरह सफल नही हो पाए। इसके विपरीत आज अमेरिका ने पूरे विश्व को कमोवेश अपनी मंडी बना ही लिय़ा है। 1909 में यदि हमने आपस में लड़कर अंग्रेजों की शक्ति को बढ़ाया था तो आज भी सभी समाजों के सांप्रदायिक तत्वों ने पूरे देश को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झौकने में कोई कोर कसर नही उठा रखी है।
हिन्द स्वराज के पंद्रहवे अध्याय में गांधी जी बताते हैं कि भारत को किस प्रकार का स्वराज नही चाहिये।अपना मंतब्य समझाने के लिए वे इटली का उदाहरण देते हैं। चूंकि समाज का भविष्य समाज को दिशा देने का दावा करने वाले नेताओं की विचारधारा पर निर्भर करता है इसलिए गांधी इटली के दो प्रमुख नेताओं की विचारधाराओं में भिन्नता की दर्शाते हुए राष्ट्र का मतलब समझाते हैं ।नेता का जनता के प्रति कर्तव्य बताते हैं। गांधी कहते हैं गैरीबाल्डी के लिए इटली का अर्थ वहां का राजा तथा उसके अनुचर थे, जबकि मैज्जिनी के लिए इटली का मतलब वहां की जनता थी। मैज्जिनी राजा को महज जनता का सेवक मानते थे।इटली और आस्ट्रिया के बीच हुआ युद्ध केवल दो राजाओं के बीच का टकराव था जिसमें इन देशों की जनता की हैसियत केवल प्यादे की थी। युद्ध जीतने के बाद इटली की उपलब्धियां मामूली रही। जिन सुधारों के नाम पर युद्ध लड़ा गया था उनको लागू नही किया गया। लोगों की हालत में कोई सुधार नही हुआ है। इसलिए इटली के मजदूरों में असंतोष पनपता रहा। वे हत्याएं करते रहे तथा विरोध प्रदर्शन करते रहे। उनके विद्रोह की आशंका हमेशा बनी रही। गांधी नही चाहते थे कि स्वराज मिलने पर भारत के लोगों की ऐसी दुर्गति हो। यहां के नेता जनता के नाम पर सत्ता हथिया लें ऐसा वे नही चाहते थे । गांधी के लिए राष्ट्र भक्ति (देश भक्ति ) का अर्थ आम जन को तानाशाही के दमन चक्र से बचाना था। देश भक्ति का गांधी के लिए मतलब था सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय । दबाव की राजनीति में गांधी विश्वास नही करते थे।वे मानते थे कि हिंसा के माध्यम से हासिल किये गए अधिकार स्थाई नही होते। कारण जैसे ही हिंसा का भय दूर होजाएगा व्यवस्था इन अधिकारों को वापस ले लेगी।
हमारी आजादी के साठ सालों का इतिहास दर्शाता है कि भारतीय लोगों को अधकचरी आजादी ही मिली।राजनीतिक दल सत्ता हथियाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते रहे हैं। आम इंसान की आवश्यकताएं, और महत्वाकाक्षाएं, हमारे राजनीतिक तंत्र की प्रार्थमिकता नही रही है। समय बीतने के साथ साथ नेताओं तथा उनके द्वारा चलाई जा रही व्यवस्था का असली रुप समाज के सामने आगया। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की जगह पूँजी खासकर विदेशी पूँजी हिताय उनका उद्देश्य रह गया है। 1992 के बाद स्थिति और भी खराब होने लग गई है। उदारीकरण की वजह से अमीर और अमीर गरीब और गरीब होरहे हैं।हताशा में विभिन्न वर्गों के लोग आत्महत्या कर रहे हैं। अभी तक किसानों की आत्मह्त्या सुर्खियों में थी तो अब बुरकरों के आत्महत्या के समाचार आने लगे हैं। आर्थिक मंदी के कारण डाक्टर सटोरियों के भी मानसिक परेशानियों का शिकार होने की घटनाएं बता रहे हैं।
लोगों का धैर्य उनका साथ छोड़ रहा है।अपनी जायज और नाजायज मागें मनवाने के लिए लोग हिंसा का सहारा ले रहे हैं। व्यवस्था का दमन भी चरम पर है।आज देश और देशवासियों की हालात उस तरह की ही है जिस तरह की हालत देख कर गांधी को 1909 में रोना आता था। भारतीय नेता भी गैरीबाल्डी की तरह हैं। इन नेताओं के लिए लोग राष्ट्र का निर्माण नही करते वरन् भौगोनिक सीमाएं देश का निर्माण करती हैं।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

पतिव्रता की मजबूरी

अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने कांग्रेस के पास भेजे गए 123 के नीतिगत दस्तावेज में कहा कि करार में भारत को ईधन आपूर्ति का आश्वासन एक राजनीतिक वादा है और इसे कानूनी बाध्यकारी वादे में तब्दील नही किया जासकता। बुश का बयान आते ही भारत सरकार सफाई देने में या कहिये लीपा पोती में लग गई।कानूनी मामलों में कानूनविद ही ज्यादा अच्छी तरह समझा सकते हैं। अतः कपिल सिब्बल आगे आये उन्होंने फरमाया कि अमेरिका ने राजनीतिक वादा किया है कि परमाणु ईधन की आपूर्ति में रुकावट आने की स्थिति में वह परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के अन्य सदस्यों से मदद मांगेगा। कपिल सिब्बल ने सफाई दी कि बुश ने यह नही कहा कि वे इस राजनीतिक वादे का सम्मान नही करेंगे।सिब्बल का मानना है कि कानूनी बाध्यता एक अलग सवाल है। (जनसत्ता,13,09) भारत अमेरिका के संबंधों को समानता के तथा आपसी हितों के संरक्षण व संबर्धन के पटल पर स्थापित करने के आधार तो कानूनी प्रावधान ही होंगे। इसीलिए अमेरिकी सरकार ने हाइड कानून पास किया और इस संधि को हाइड कानून तथा 123 के तहत ही कांग्रेस से पास करवा रहा है। सरकारें तो शायद कानूनी बाध्यताओं के आधार पर ही चलती हैं राजनीतिक वायदों के आधार पर नहीं। क्योंकि राजनीतिक वादा तो वुश ने किया है। बुश की कुर्सी गई तो वादा भी गया। यदि कुर्सी रहते भी बुश वादे को भूल जाते हैं तो भारत क्या कर सकता है। यदि राजनीतिक वादे में कोई बाध्यता होती तो बुश को यह सफाई देने की क्या आवश्यकता थी कि कोई कानूनी बाध्यता नही है। इस संदर्भ में इतिहास से यह उद्धरण भी प्रासंगिक है। प्रथम विश्व युद्ध के समय में अपनी आजादी की अलख जगाए देशों का समर्थन पाने के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विलसन ने वादा किया कि युद्ध के बाद गुलाम देशों को स्वनिर्णय का अधिकार दिया जायगा।इसी उमीद में गांधी जी ने भारत में अंग्रेजी सेना में सैनिकों की भर्ती का अभियान चलाया। लेकिन बाद में जब अमेरिकी कांग्रेस ने वर्साय संधि पर मुहर लगाने से इंकार कर दिया तो वुडरो विलसन के सारे वादे धरे के धरे रह गये। किसी ने उन पर मुकरदमा भी नही चलाया। अपने देश में दुर्भाग्य से बुश की कांग्रेस को सफाई के बाद यह राजनीतिक बनाम् कानूनी बाध्यता चिंता का विषय नही बनी। चिंता का विषय बना तो सरकार पर इस संधि का विरोध करने वाले वाम पंथियों के हाथ सरकार पर प्रहार करने के लिए आया यह नया हथियार। अमेरिका से संबंध बनाए रखने के लिए इस हथियार को भोथरा करना आवश्यक था।आज अधिकतर तथाकथित जागरूक भारतीय, मीडिया सभी अमेरिका के अनुकरण में ही देश का हित देख रहे हैं। सरकार और उसके समर्थक राजनीतिक दलों को तो इसी प्रकार के जनमानस की दरकार है।इसीलिए 11 सितंबर को अपने रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने वाशिंगटन में अमेरिकी हथियार कंपनियों को भरोसा दिलाया कि उनको देश में व्यापार करने का बराबरी का मौका दिया जायगा। भारतीय समुदाय के समारोह में मंत्री महोदय ने वियना में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से मिली छूट के लिए भी बुश प्रशासन का आभार जताया। लेकिन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में आने वाली दिक्कतों को ठंडे बस्ते में ही बंद रखना रक्षा मंत्री ने सुविधाजनक समझा।(जनसत्ता 12,9,) उल्लेखनीय है कि वाशिंगटन पोस्ट ने अपने संपादकीय Yes for an Answer में लिखा है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि अमेरिका के हित में है। इससे अमेरिकी परमाणु उद्दोगों को बाजार मिलेगा। पोस्ट ने चिंता व्यक्त की कि यदि कांग्रेस इस विधेयक को पास नही करेगी तो बाजार का यह लाभ फ्रांसीसी कंपनियां ले लेंगी।(पी.टी.आई. 12,09,08) 13 सितंबर को संधि के विरोधी से समर्थक बने, मनमोहन सरकार के संजीवनी बने अमर सिंह ने फरमाया कि भारत अमेरिका असैन्य समझौते के बाद भारत जब उपकरणों का आर्डर देगा तो अमेरिका कंपनियों को घाटे नहीं रखा जाएगा।(जनसत्ता 14 सितंबर)स्मरणीय है कि इस प्रकार का बेवाक शर्त विहीन आश्वासन ये मंत्री व जन नेता अपने लोगों को नही देते। किसान 10 पंद्रह हजार का कर्ज नही चुका पाने के कारण देश के हर राज्य में आत्महत्या कर रहे हैं। पर है कोई माई का लाल नेता जो यह कह दे कि बहुत हो चुका अब भारत का किसान आत्महत्या नहीं करेगा। हमारे संवेदनशील प्रधान मंत्री भी पैकेज की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। दलितों, आदिवासियों, गरीब गुरबों के बीच जाकर, उनकी रोटी पानी का सेवन करने की हिम्मत करने वाले, उनकी झुग्गियों में रात विता कर भारत के हासिये में रह रहे इंसान की मुश्किलों को समझने की कोशिश कर रहे भारत के युवा नेता राहुल गांधी भी आम भारतीय की हालत नही सुधरने का सारा दोष राज्य सरकारों पर मढ़ देते हैं। काग्रेस शासित राज्यों में भी हालात बेहतर नही हैं यह तथ्य उनकी जवान नही लड़खड़ाता। यही बात आतंकवादी हमलों या बाढ़ पीड़ितो को राहत पहुचाने के संदर्भ में कही जासकती है। इस प्रकार भारतीय नेताओं की भारतवासियों के लिए प्रतिबद्धता व अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्धता में साफ फर्क नजर आता हैं।अमेरिका के लिए जब हम प्रतिबद्ध होते हैं तो बदले में अमेरिका से उसी प्रकार की प्रतिबद्धता की अपेक्षा भी नही करते।उल्टे जब कभी इस प्रकार के प्रश्न को दबाए रखना संभव नही होता तो लीपा पोती करने लगते हैं। ऐसा लगता है कि अमेरिका के एक खास प्रकार के संबंध बनाए रखने की हमारी मजबूरी एक पतिव्रता स्त्री की मजबूरी की भांति है।भारतीय पतिव्रता नारी भी अपने पति के हर अवगुण और वादखिलाफी को नजरअंदाज कर उसको परमेश्वर मानकर उसकी सेवा में लगी रहने में ही अपना सौभाग्य समझती रही है।आधुनिक भारत में राजा राम मोहन राय के समय से ही संपूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय नेता व समाज सुधारक पतिव्रता स्त्री को पतिव्रत के इस गैर बराबरी तथा दोहरे मापदंड़ों की गुलामी से आजाद करने की कोशिश करते रहे। आज दुर्भाग्य से पूरे देश को ही अमेरिका के संदर्भ में इस प्रकार की गैर बराबरी के, आर्थिक गुलामी के रिस्तों में धकेला जारहा है। यह सब महान त्यागी कर रहे हैं। जाने माने अर्थशास्त्री कर रहे है और राष्ट्र हित के नाम पर होरहा है।

सोमवार, 8 सितंबर 2008

जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तो...

जनसत्ता के 24 अगस्त के अंक में साजिद रशीद ने अजित साही की 16 अगस्त के तहलका पत्रिका में छपी रपट पर अपनी टिप्पणी खुले पत्र की शैली में लिखी। तहलका पत्रिका में छपी रपट में लेखक ने सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आँफ इंडिया ) के गिरफ्दार सदस्यों पर पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों को बेबुनियाद ठहराने की कोशिश की। साजिद रशीद ने कुछ और पहलुओं को उजागर कर यह समझाने की कोशिश की कि समस्या का दूसरा पहलू भी है। साजिद रशीद की रपट पढ़ कर लगा कि वे इस्लाम के नाम पर आम युवकों को हिंसा के मार्ग पर लेजाने वाले संगठनों की बड़ी बेवाकी से भर्तस्ना करने की कुव्वत रखते हैं। साथ ही जैसा कि उन्होंने स्वयं ही लिखा है कि हिंदू अतिवादी संगठनों के विरुद्ध गवाही देने में भी वह पीछे नही रहे हैं। उनकी आपत्तियों का अजित साही ने 7,9 के जनसत्ता में जो उत्तर दिया वह साजिद रशीद के तर्कों को अपने तत्थों से काटने नूरा कुश्ती भर थी। दुर्भाग्य से अजित साही ने साजिद रशीद की चिंता पर गौर करने का कष्ट नही किया। साजिद रशीद ने 10 अगस्त को भी सिमी पर जमात-ए-इस्लामी का बजरंग दल शीर्षक से लेख लिखा। साजिद रशीद के तीनों लेखों को पढ़ने से यह समझ में आया कि उनकी चिंता उनके समाज का भविष्य है। सिमी के गिरफ्दार नेताओं का कानून का नजर में निर्दोष होना उनके लिए इतना मायने नही रखता जितना अजित साही के लिए दिखता है।साजिद रशिद उनको बेकसूर नही मानते। फिर भी इसमें कोई शक नही है कि पुलिस आतंकी घटना के बाद अल्पसंख्यक समाज के गरीब तबके के बेकसूर लोगों को पकड़ कर उन पर जुल्म करती है। (आरुसि हत्या कांड में भी घरेलू नौकर ही पकड़े गए हैं। उनमें से एक को सबूतों के अभाव में जमानत भी मिल गई है।) ।
साजिद रशीद महत्वपूर्ण सवाल उठा रहे है। धर्म के नाम पर सिमी द्वारा फैलाई जारही जो आतंकी विचारधारा है वह नव युवकों को गुमराह कर रही है।और ये भोले भाले नवयुवक बहकावे में आकर अपना और साथ में पूरे समाज का नुकसान कर रहे हैं। अजित साही से उम्मीद थी कि वे अपने उत्तर में या तो यह सिद्ध कर दें कि सिमी एक अहिंसक संगठन है और उसकी गतिविधियों से इस्लाम व मुसलमानों का भला ही होरहा है। पर वह यह नही कहते हैं। खाली सिमी के उद्देश्य लिख देते हैं। हमें यह नही भूलना चाहिये कि आज पूरे देश में धर्म, जाति, क्षेत्र के आधार पर आम जनता का भावनाएं भड़काई जारही हैं। राजनीतिक स्वार्थों के लिए यह सब किया जारहा है। जो काम मुसलमानों के बीच सिमी कर रहा है वही काम हिंदुओं के बीच संघ परिवार कर रहा है।ओडिसा में गरीब दलित व आदिवासी धर्म के नाम पर आपस में मर कट रहे हैं। ये हिंसा कौन फैला रहा है धार्मिक संगठन। महाराष्ट्र में भाषा के नाम पर लोगों को उकसाया जारहा है। कुछ साल पहले खालिस्तान के नाम पर सिख युवकों को गुमराह किया गया। पंजाब के एक प्रोफेसर व प्रसिद्ध रंगकर्मी जो खालिस्तान आंदोलन का खुलकर विरोध कर रहे थे ने दिल्ली में एक जन सभा में कहा था कि बम फटने की हर घटना के बाद पुलिस आस पास के दस बीस गावों से नौ जवानों को उठा लेजाती थी।अपने बच्चों को छुड़ाने के लिए हर माता पिता को 10,000 रुपये घूस देनी पड़ती थी। उस समय 10,000 रुपये आज के मुकाबले बड़ी राशि हुआ करती थी। खालिस्तान आंदोलन ने पंजाब खासकर सिखों को जो नुकसान पहुचाया क्या कभी उसका आंकलन होगा। क्या कभी आंदोलन के नेता उन माताओं से माफी मांगेंगे जिन्होंने अपने बच्चों को खोया है। काश्मीर में तो खोये हुए व्यक्तियों के रिस्तेदारों ने एक संगठन ही बना लिया है। धर्म, भाषा,क्षेत्र, वर्ग संघर्ष के नाम पर जो भी हिंसक वारदातें होती हैं उनमें मरते तो बेकसूर ही हैं।छत्तीसगड़ में भी नक्सली हिंसा व सलवा जूडूम में मर तो आदिवासी ही रहे हैं। बिहार में नक्सलियों व जमींदारों की सेनाओं के बीच होने वाली हिंसक झड़पों में मरे तो दलित ही।अक्सर हिंसक आंदोलनों को चलाने वाले नेता या तो विदेश में आराम फरमाते हैं या देश में सुरक्षित ठिकानों में रहते हैं। लिट्टे के प्रभाकरन् भी गरीबों को ही मानव बम बनाते हैं। बम विस्फोटों में असंख्य बेकसूर मरते हैं। कई वेकसूरों को पुलिस पकड़ कर यातना देती है। प्रभाकरन् तो सुरक्षित ही रहते हैं। क्या आमजन को बलि का बकरा बनाने की इस साजिस का भंडाफोड़ नही होना चाहिये?संक्षेप में समाज में विष राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले नेता ही अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए फैलाते हैं उससे मरते आम बेकसूर हैं। करता कोई है भरता कोई है। साजिद रशीद इस करने वाले पर अंगुली उठा रहे है। काश अजित साही इस इशारे को समझ पाते और माकूल जबाब देते। अब समय आगया है अपने समाज के ताने बाने को बनाए रखाने के लिए हम सबको मिलकर, अपने निहित स्वार्थों के लिए इस ताने बाने को नष्ट करने वालों को रोकना चाहिये।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

सांप्रदायिकता का यह दंश तो भारतीय नही है।

आज हिंदुओं की अस्मिता की रक्षा के नाम पर जिस तरह की हिंसा हिंदूवादी संगठन फैला रहे हैं उस तरह की हिंसा की परंपरा न भारतीय है और न ही हिंदू है। बिनौय कुमार सरकार का हिंदू राजनीतिक दर्शन पर एक लेख दिसंबर 1918 के पोलिटिकल साइंस क्वाटरली, पेज 482-500 में छपा।इस लेख में बिनौय कुमार सरकार लिखते हैं कि भारत कट्टर प्रकार की थिआँक्रसि कभी नही था। यहां राज्य धार्मिक संस्थाओं के अधीन कभी नही रहा। हिंदू राज्यों की एक अंय विशेषता यह थी कि वे पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष थे। भारत में धर्म का राजनीति पर कभी भी प्रभुत्व नही रहा। हमेशा ही राज्य का धार्मिक संस्था से अलग स्वतंत्र अस्तित्व रहा। धार्मिक संस्थाओं ने कभी भी राज्य की शक्तियां हासिल करने की कोशिश नही की। धार्मिक संस्थाओं ने कभी राज्य के मामलों में हस्तक्षेप नही किया। इसके विपरीत यूरोप में चर्च और राजा के बीच अक्सर टकराव होते रहते थे। चर्च धार्मिक और भौतिक दोनों क्षेत्रों को अपना नियंत्रण में रखना चाहता था। इसके अलावा पोप अपने कार्डिनल तथा लें गिट्स के माध्यम से भी यूरोपीय राज्यों के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करते रहते थे । हिंदू धार्मिक संस्थाओं का इस प्रकार का इतिहास नही रहा है।

13वीं सदी के प्रारंभ से भारत में इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ। पर भारत के इतिहास में कोई मुसलिम काल नही है इस्लाम के भारत आगमन के पश्चात भी यहां का कोई हिस्सा किसी विदेशी शक्ति के अधीन नही था। सर्व प्रथम इस्लाम ने राजनीतिक तौर पर भारतीयों की आजादी पर अंकुश नही लगाया। दूसरा पूरे देश में कभी भी मुसलमान राजाओं का शासन नही रहा। तीसरा मुसलमान राजाओं व हिंदू राजाओ के आपसी रिस्ते,मुसलमान राजाओं और उनकी हिंदू प्रजा के बीच के रिस्ते,हिंदू राजाओं तथा उनकी मुसलमान प्रजा के बीच के रिस्ते कभी भी रोमन कै थँलिक –प्रा टिस्टैंट के रिस्तों की तरह कटु तथा हिंसक नही रहे। आमतौर पर हिंदू राजाओं के गैर हिंदू प्रशासनिक अधिकारी तथा गैर हिंदू राजाओं के हिंदू सलाहकार व सेनापति होते थे। पुजारी का प्रभाव केवल राजा की तथा जनता निजी धार्मिक जिंदगी तक सीमित था। राज्य की समितियों में पुजारी का दखल केवल तीज त्यौहारों तक सीमित होता था। हर शासक का नैतिक आचरण पर अवश्य धार्मिक मूल्यों के अनुसार होता था। मध्य काल के भारत के राजनीतिक इतिहास में उस प्रकार की अशांति और असुरक्षा कभी नही रही जिस प्रकार रोमन साम्राज्य के उत्थान व पतन के समय दिखी, या इग्लेंन्ड के वेल्स, आइरिस, व स्काट की लड़ाइयों में, या इग्लेंन्ड और फ्रांस के बीच सौ साल के युद्ध में , या इटली के गणराज्यों के मध्य हुए संघर्ष में,या इग्लेंन्ड के गृह युद्ध में, व अन्य यूरोपी देशों में हुए युद्धों में दिखी।
समाज में सारी अच्छाई का स्त्रोत नीति शास्त्र को माना गया जिस प्रकार शरीर को हृष्ट पुष्ट रखने के लिए पौष्टक आहार आवश्यक होता है उसी प्रकार व्यक्ति एवं राज्य के जीवन में स्थायित्व लाने के लिए नीति शास्त्र के सिद्धांतों का अनुकरण आवश्यक था।हिंदू राजाओं के लिए नीति शास्त्र के सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक था। नीतिशास्त्र के सिद्धांतों का अनुकरण करके ही राजा प्रजा दोनों के ही हितों का संरक्षण व संवर्धन होसकता है ऐसी मान्यता थी। चूंकि राजा पर अपनी प्रजा के हितों के संरक्षण संबर्धन की जिम्मेदारी थी इसलिए राजा के लिए नीति शास्त्र के सिद्धांतों का प्रशिक्षण आविश्यक था।
16वी सदी में अब्दुल फजल ने आइने अकबरी में हिंदू नियमों कानूनों का संक्षिप्त विवरण पारसी भाषा में छापा। अब्दुल फजल अकबर के मंत्री थे. अब्दुल फजल ने लिखा कि बुद्धिमान राजा अपने दरबार से भ्रष्ट व षडयंत्रकारियों का सफाया कर देगा।अपने इस महत्वपूर्ण ग्रंथ में अब्दुल फजल ने राजा की तुलना माली से की गई है। जैसे माली बगीचे से खरपतवार उखाड़ कर एक ओर कर देता है और बगीचे को सुंदर बना देता है। साथ ही बगीचे की रखवाली के लिए बाड़ भी चारों ओर उगाता है। ताकि कोई बाहरी तत्व बगीचे में नहीं घुस सके। उसी प्रकार राजा अपने राज्य व प्रजा की देखभाल करता है। अपने प्रशासकों व प्रजा के बीच द्वंद होने पर राजा को प्रजा के साथ खड़ा होना होता था। शुक्र के नीतिशास्त्र के अनुसार राजा को भ्रष्ट लोगों, चोरों उचक्कों,बतमाशों, व अन्य प्रकार की नकारात्मक प्रवृति के लोगों को राज्य का संरक्षण नही देना चाहिये। संक्षेप में बिनौय कुमार सरकार का मानना है कि धार्मिक उन्माद फैला कर समाज में हिंस फैलाना न हिंदू धर्म दर्शन का हैं और न ही कई धर्मों का गुलदस्ता भारतीय धर्म दर्शन का।

बुधवार, 3 सितंबर 2008

धर्म पर अधर्म की विजय का दिवस

शनिवार (30 अगस्त 2008)) देर रात या यों कहे रविवार के तड़के श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति और जम्मू काश्मीर सरकार के बीच समझौता हो जाने का समाचार सोमवार 1सितम्बर के समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपा। जम्मू काश्मीर सरकार ने श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति को काश्मीर में 40 हेक्टेयर जमीन के यात्रियों के लिए अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत मिल गई। श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति के संयोजक लीलाकरण शर्मा ने कहा कि “यह ऐतिहासिक और हमारे लिए विजय का दिन है।”विजय किसकी किस पर ? समझ में नही आया। काश्मीर के कट्टरपंथी इसका विरोध कर रहे हैं। तो क्य़ा जम्मू के कट्टरपंथी इसको काश्मीर के कट्टरपंथियों पर अपनी जीत मान रहे थे? इस मायने में यह जीत तो काफी संकीण हुई। धर्म की तो नही ही हुई है।64 दिन के इस आंदोलन से जम्मू काश्मीर अर्थव्यवस्था को, वहां की शिक्षा व्यवस्था को, वहां के सामाजिक ताने बाने को, राज्य के विभिन्न हिस्सों के आपसी रिस्तों पर जो गहरी चोट पहुचाई है उसके एवज में सौ एकड़ जमीन के यात्रियों के लिए अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत से किसकी जीत हुई है—अहंकार और अभिमान की? धर्म अहंकार, अभिमान को जीतने का रास्ता दिखाता है । धर्म अहंकार और अभिमान के मद में मस्त होकर दूसरों को नीचा दिखाने,दुखी करने, दीन हीनों को और परेशान करने की इजाजत कभी नही देता। धर्म कभी भी इतना संकीर्ण नही होता है कि 40 हेक्टेयर जमीन के अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत पाने के लिए एक पूरे प्रांत के जन जीवन को 64 दिन तक अराजकता की आग में झौंक दे। धर्म किसी की भावनाओं को आहत नही करता। जब कि यह आंदोलन तो एक ही प्रांत के दो हिस्सों के राजनीतिक संगठनों का वोटों के लिए धर्म के नाम पर लोगों की भावना भड़का कर, हिंसा, आगजनी के बल पर अपनी बात मनवाने की कवायत भर थी।इस कवायत में सभी संगठनों ने अर्ध सत्य व झूठ का सहारा लिया। यह तो अधर्म के लिए धर्म का इस्तेमाल था।
64 दिन के इस आंदोलन में भोले का नाम खूब उछाला गया। उस भोले के नाम पर सारी हिंसा हुई जो इस देश के लोगों के कल्याण के लिए स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरती गंगा के वेग को अपनी जटाओं में संभाल लेता है। ताकि पृथ्वी पर गंगा के तेज पर पृथ्वी की तथा उस पर रह रहे प्राणियों की कोई हानि न हो । उस भोले शंकर के नाम पर सारा विष उगला गया जिसने समुद्र मंथन में मिले विष का पान इसलिए किया था ताकि देवता अमृत पान कर सकें। ऐसे भोले बाबा जाति, धर्म , वर्ण,लिंग के संकुचित खानों में कब सिमटे ? दुर्भाग्य से अपने निहित निजी स्वार्थों के लिए देवी देवताओं का गलत इस्तेमाल करने वालों को भगवान के पालनहार चरित्र को कलुषित करने में कभी संकोच नही हुआ।
आज से दो दशक पहले मर्यादा पुरषोतम राम के नाम पर जो अ-मर्यादा का प्रदर्शन किया गया उससे तो स्वंय राम भी शर्मिंदा हुए होंगे। प्रजा की भावनाओं का आदर करने के लिए जिस राम ने अपनी गर्भवती पत्नी को वनवास दिया, स्वंय विरह की अग्नि में जलते रहे, लेकिन लांछन लगाने वाले इंसान को सजा नही दी। उस करुणानिधान राम का मंदिर बनाने के नाम पर राम रथ विभिन्न राज्यों में घुमाया गया। अपने भाषणों में तथाकथित राम भक्तों ने जो जहर उगला उससे से इस देश का धर्म निरपेक्ष ताना बाना बूरी तरह चरमराया। आगे आगे राम रथ जाता पीछे पीछे सांप्रदायिक हिंसा में निहत्थे गरीब उजाड़े व मारे जाते। करोड़ों ,अरबों की संपत्ति के नष्ट किया जाता। इसकी परिणिति तत्पश्चात केन्द्र व राज्यों में हुए चुनावों में जीती सीटों की संख्या में इजाफा थी।अब तो सांप्रदायिकता का खुन मुह में लग गया था। बाबरी मस्जिद डहाने के लिए पूरे देश में फिर सांप्रदायिक उंमाद फैलाया गया। पूरे देश में एक बार फिर हिंसा का तांडव हुआ। यह सब बाबरी मस्जिद तोड़ कर वहां पर राम मंदिर बनाने के नाम पर किया गया। बाबरी मस्जिद तोड़ दी गई। राम की वह मूर्ति जो मंदिर के अंदर स्थापित थी अब खुले आकाश के नीचे आगई। मूर्ति की पूजा अर्चना सुलभ बनाने के लिए वहां पर अस्थाई ढ़ाचा बनाया गया। इस प्रकार इन तथाकथित राम भक्तों की सत्ता की भूख मिटाने के लिए राम को पक्का आसरा छोड़ कर अस्थाई ढ़ाचे में रहना पड़ रहा है। जिस दिन बाबरी मस्जिद ढ़हाई गई उस दिन को शौर्य दिवस मनाने की घोषणा भी तथाकथित राम भक्तों ने की।(अब भोले भक्तों ने विजय दिवस मनाने की घोषणा की है।) लेकिन जब लिब्राहन आयोग ने इन शूर वीरों को अपना पक्ष रखने बुलाया तो ये बगलें झाकने लगे। अपने अपने को बचाने के प्रयास में फिर अ-सत्य व अर्ध सत्य का सहारा लेने लगे। राम मंदिर के आंदोलन के शीर्ष में रहे एक शूर वीर तो बाबरी मस्जिद विध्वंस पर खेद प्रकट करने से भी स्वंय को नही रोक पाए। ऐसी रीत उन तथाकथित राम भक्तों की है जिन रघुपति(की) रीत सदा चलि आई, प्राण जाय पर वचन न जाई। जो पिता के दिए वचन को निभाने के लिए राज पाट त्याग कर 14 साल वनवास पर रहे।
बाबरी मस्जिद ढ़हाने के बाद बम विस्पोटों का जो सिलसिला चला है वह थमने के बजाय दिन पर दिन बढ़ ही रहा है। (अब अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद से भी उसको जोड़ा जारहा है।) दोनों समुदायों के कट्टरपंथियों के हाथ निरपराध लोगों के खून से रंगे होने के सबूत मीडीया में आते ही रहते हैं। सत्ताशीन दल को भी सत्ता हासिल करने के लिए वोटों की आवश्यकता होती है। अतः वह भी कट्टरपंथियों के जहर उगलने की क्षमता से लोहा लेना नही चाहते। आखिर सत्ता सुख अपने कर्तब्य निर्वाह से अधिक आकर्षक होता है।
तथाकथित राम भक्तों की वर्षों की मेहनत आखिर रंग लाई। इन राम भक्तों को जोड़ तोड़ कर सत्ता मिल भी गई। इस जोड़ तोड़ मे बेचारों को राम को ही भुलाना पड़ा। छः साल के अपने शासन में वे राम मंदिर बनाने का मसला किसी न किसी बहाने टालते रहे। हां विष वमन कर बाबरी मस्जिद ढ़हाने में अहम् भूमिका निभाने वाले संतों और साध्वियों को कौडि़यों के मोल सरकारी जमीन आश्रम बनाने के लिए मिल गई। अब राम अस्थाई ढ़ाचे में पुलिस पहरे में रह रहे हैं । तथाकथित राम भक्त आधुनिक सुविधाओं से लैस अपने आश्रमों में सुख से धर्म की विवेचना करने में व्यस्त हैं। इन आश्रमों के संचालन के लिए भी धन चाहिये । धर्म चर्चा से ही भक्तों से वह धन लिया जासकता है।सेक्षेप में तथाकथित राम भक्तों के सत्ता के मोह ने राम को तो सड़क पर ला ही दिया। इसके साथ साथ भारत के इतिहास को, हिंदुओं , हिंदु धर्म के इतिहास को जो कलुषित किया है उसका कभी कोई पश्चाताप करेगा। क्या कभी कोई धर्मभीरु इन तथाकथित राम भक्तों को समझाएगा कि धर्म की राजनीति करना धर्म का कुर्सी पाने के लिए दुरुपयोग करना नही है। धर्म की राजनीति क्या है इसका महात्मा गांधी जी ने विस्तृत विष्लेषण किया है।
छः वर्षों बाद सत्ता सुख भी जाता रहा। पांच साल के सत्ता से वनवास का दुख झेला है।अब फिर मौका है। चुनाव आने वाले हैं।सत्ता पाने के साथ साथ प्रधान मेत्री की कुर्सी भी दाव पर है। राम के नाम पर लोग अब घास नही डाल रहे हैं। सत्ता में बैठे सत्ता भक्तों ने बैठे बैठे भोले बाबा के यात्रियों की सुविधाओं का मसला सत्ता बाहर इंतजार कर रहे तथाकथित राम भक्तों को पकड़ा दिया। इसी का तो उन्हें इंतजार था। अब क्या करना है उन्हें मालूम है। उसका पुराना अनुभव है। इस प्रकार धर्म का दुरुपयोग करने वालों को कभी भी न तो धार्मिक सिद्धांतों से कोई मतलब रहा है।न ही धर्म के लोकहितकारी इतिहास के संरक्षण की जिम्मेदारी का इनको एहसास है।

राम मंदिर आंदोलन चलाने वालों की तरह श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति व अंय आंदोलनकारी भूल ही गए कि मृगछाला पहने कैलाश वासी भोले शंकर को विधर्मियों से अधिक खतरा तो इस देश के करोड़ों भूखे नंगे लोगों के परिश्रम से अर्जित धन संपदा से अघाए आधुनिक सुख सुवुधाओं से लैस अपने भक्तों से होरहा है। पुराने जमाने में तीर्थ यात्रा का अर्थ अनगिनत शारीरिक कष्ट उठाकर, जान जोखिम में डालकर,बद्रीनाथ अमरनाथ जैसे दुर्गम स्थानों की यात्रा पैदल करनी होती थी। तीर्थयात्रियों को जीवित वापस घर लौटने का भरोसा भी नही होता था। इसलिए तीर्थ पर जाने से पहले सभी इष्ट मित्रों से मिलकर जाते थे।तीर्थयात्रियों की संख्या कम होती थी। शुचिता में उनकी रुचि अधिक होती थी। आज तो तीर्थयात्रा पर्यटन का हिस्सा हो गई है। तीर्थ यात्रियों की रुचि तीर्थ यात्रा, व उपवास में भी उपभोग में ही अधिक रहती है। अमरनाथ व बद्रीनाथ जैसे दुर्गम तीर्थ स्थानों पर भी हर प्रकार की सुख सुविधाएं उपलब्ध है। आज तीर्थ यात्रा के लिए शारीरिक कष्ट उठाने की इच्छाशक्ति या क्षमता की आवश्यकता नही है। आवश्यकता है तो केवल धन की। उसकी मध्यवर्ग के पास कोई कमी नही है। धन के बल पर हैलीकाप्टर से अमरनाथ जाया जासकता है। यदि इतना धन नही है तो भी घोड़े पर या स्थानीय मजदूर की पीठ पर चढ़ कर तो जाया जासकता है। तीर्थ यात्रियों की यह आरामपरस्ती भोले के निवास पर किस प्रकार का कहर ढ़ा रही है। काश इसकी चिंता भी भोले भक्त करते। पता नही भोले शंकर को भक्तों की यह आरामपरस्ती रास आती है या नही। सुना तो यही है कि वह कठोर तप करने वाले को मुह मांगा वरदान दे देते थे। तप करने वाला रावण या भष्मासुर ही क्यों न हो। भोले बाबा तो भोले बाबा हैं उनको इससे क्या लेना देना।
भोले शंकर तो भोले हैं।शायद भक्तों की इन नादानियों को नजरअंदाज कर दें। पर क्या 40 हेक्टेयर जमीन के लिए इतनी कुर्बानियां देने वाले भक्तों को नही सोचना चाहिये कि उनकी भक्ति से भोले का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है।शायद पिछले साल की ही बात है जब पवित्र अमरनाथ गुफा में शिवलिंग के नकली होने पर विवाद हुआ था। जांच समिति भी बैठी थी। तभी अमरनाथ के वातावरण के गरमाने की बात भी सामने आई थी। हैलीकाप्टरों से आने वाले यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी तथा आम यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी गुफा का तापमान बढ़ जाने का कारण बताया गया। इसी की वजह से लिंग समय से पहले ही पिघल गया। इसी संदर्भ में बताया गया कि उसी साल वहां पर आशाराम बापू ने राम कथा की थी । उनके अनुयाई कथा स्थल तक हैलीकाप्टरों से ही गए। अनुयाइयों की इस प्रकार की लापरवाही से भोले शंकर का निवास स्थान अपना नैसर्गिक चरित्र खो रहा है इसकी चिंता किसी समिति ने नही व्यक्त की । न ही तीर्थयात्रा को स्थानीय परिस्थितों(पर्यावरण) के अनुरूप योजनाबद्ध कराने की किसी नीति का समाचार पढ़ने को नही मिला। हां लद्दाख के पर्यावरण पर चर्चा में एक टी.वी. चैनल ने अवश्य बताया कि हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।शायद 2015 तक पूरी तरह पिघल जाने की संभावना जताई। इनके पिघल जाने के बाद क्या भोले शंकर कैलाश में वास कर पाऐंगे। आज भोले भक्तों की मुख्य चिंता कैलाश का पर्यावरण बचाने की होनी चाहिये थी। गुणी भक्तों को सुझाना चाहिये था कि वैज्ञानिक अध्ययनों से हिमालय में बने तीर्थ स्थलों के पर्यावरण की क्षमता का अध्ययन कर वहां प्रति वर्ष जाने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या सुनिश्चित की जानी चाहिये। कैलाश मानसरोवर के यात्रियों की तरह इनकी सूची बननी चाहिये। यात्रा पर रवाना होने से पहले यात्रियों को हिमालय को कूड़ाघर बनने से बचाने के उपायों की उचित जानकारी और निर्देश भी दिये जाने चाहिये।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

आधुनिक सभ्यता का संकट

भाग दो
जिम्मेदारी सरकार की है। हम तो सिर्फ मलाई चाटते हैँ
बिहार की बाढ़ से हुई तबाही के हृदय-विदारक दृष्यों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद बिहार के नेताओं को संवाददाताओं से बतियाते टी.वी. के चैनल दिखा रहे थे।नेताओं के कपड़े धवल सफेद थे उनके चमकते दमकते चेहरे सुख सुविधाओं से लैस सम्पंन जीवन की अभिव्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व को कही पर भी बाढ़ की विभीषिका ने उद्वेलित किया हो ऐसा नही लग रहा था। उनके चेहरों में बाढ़ पीड़ितों के दर्द कोई झलक नही दिख रही थी।बिना पलक झपकाए ये नेतागण बिहार सरकार को इस त्रासदी का दोषी बता रहे थे।
दोषी कोई भी हो आम जनता तबाह हुई है उसके दुख दर्द में उसकी तन मन धन से सेवा करने का संकल्प किसी नेता ने व्यक्त नही किया। एक ऐसी विपदा जिसमें 40लाख लोग अपना सब कुछ खो चुके हों अकेले सरकार पर राहत और पुनर्वास की जिम्मेदारी डाल देना बाढ़ पीड़ितों के साथ भद्दा मजाक नही तों नही तो क्या है। स्मरणीय है कि ये नेता भी गरीब तबकों से आते हैं। इसी गरीब व असहाय जनता ने इनको सत्ता की गलियों में पहुचाया है.। आज ये कानूनी और गैर-कानूनी तरीके से अरबों रुपये कमा रहे हैं।इस कमाई का कुछ हिस्सा यदि उन्ही गरीब गुरबा के राहत पुनर्वास में लग जाता तों उसका फायदा भी अगले चुनाव में इन्ही नेताओं को होता।
दूसरा बिहार सरकार को दोषी ठहराने के लिए हवाई सर्वेक्षण की क्या आवश्यकता थी। यह काम तो बिना हवाई सर्वेक्षण किये भी संवाददाताओं को बुला कर भी किया जासकता था। जो संसाधन हवाई सर्वेक्षण में खर्च हुए उनको राहत काम में लगाया जासकता था। इन नेताओं के हवाई सर्वेक्षणों से राहत काम में कितनी रुकावट आती है वह एन डी टी वी संवाददाता बता रहा था। मधेपुरा बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के तीन घंटे की यात्रा के दौरान पहले तो अधिकतर क्षेत्रों में कोई राहत कर्मी दिखे ही नही। जहां इक्का दुक्का नावें थी भी तो काम नही कर रही थी। ईधन नही था। सरकारी कर्मचारी कह रहे थे जब तक प्रधान मंत्री का हवाई सर्वेक्षण चल रहा है तब तक कुछ भी नही किया जासकता है। यहां पर यह भी विचारणीय है कि विपदा के समय सीमित संसाधनों का दुरुपयोग नेताओं के दौरों पर होना चाहिये या पीड़ितों को राहत पहुचाने में। इस सवाल पर तय नीति होनी आवश्यक है। अन्यथा विरोधी दल सरकार पर असंवेदनशील होने का इलजाम लगाते हैं।
हवाई जहाज से उतरकर प्रधान मंत्री ने दस अरब रुपये व सवा लाख टन अनाज मुप्त देने की घोषणा कर दी। इस घोषणा को सुनते ही पी. साइनाथ की प्रसिद्ध पुस्तक ऍव् रि बडी लव्स अ गुड ड्राउट की याद ताजा होगई। इस घोषणा के बाद टी वी पर मुस्कराते हुए बिहार के मुख्य मंत्री अपनी रेडियो पर की गई अपील की पुनरावृति कर रहे थे।उनकी उन लोगों से अपील थी जो अभी तक प्रभावित नही हुए है परन्तु बारिष की निरन्तरता के कारण कोशी के टूटे तटबन्ध की चौड़ाई और बढ़ने का खतरा था। ऐसी हालत में संभावित क्षेत्रों के लोगों से मुख्य मंत्री बाढ़ आने से पहले ही राहत शिविरों में शरण लेने की अपील कर रहे थे। उनके चमकते दमकते चेहरे तथा हाव भाव से भी इस बिन बुलाए आई बिपदा से निपटने की चिंता का नामोनिशान भी नही था।लोगों के लिए इधर खाई उधर कुआं है। घर छोड़कर राहत शिविरों में जाते हैं तो पीछे से चोर लुटेरे घर लूट रहे हैं । सरकार माल की सुरक्षा के किसी प्रबंध का दावा भी नही कर रही है।जब सुरक्षा बल जम्मू काश्मीर,ओड़िसा में राष्ट्रवादी, प्रांतवादी, हिंदूवादियों द्वारा की जारही हिंसा और आगजनी से निपटने में लगे हों तो आम आदमी की सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन निभाएगा।
उधर ओडिशा के कंधमाल जिले में 23 अगस्त को विश्व हिन्दु परिषद के लक्ष्मणानंद सरस्वती हत्या कर दी गई। प्रदेश के सत्तारूढ़ गठबंधन में सहयोगी होने के बाबजूद स्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाले भारत में हिंदू हितों के सबसे बड़े स्वयंभू ठेकेदार हिंसा पर उतर आये।सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति जलाई गई। एक महिला को जिंदा जला दिया गया। ये तथाकथित हिंदू हितों के सबसे बड़े स्वयंभू ठेकेदार भूल गए कि हिंदू धर्म ग्रंथों में लिखा है जहां नारी की पूजा होती है वहां ईश्वर की वास करते हैं।क्या ये हिंदू धर्म के स्वयंभू ठेकेदार बताएँगे कि जो नारी को जिंदा जला देते है वे कौन हैं और जिस जमीं पर यह जघन्य अपराध हुआ है वहां किसका निवास होसकता है। 29 अगस्त के जनसत्ता में छपी फोटो में एक उदास बच्चा अपने जले घर के प्रागण खड़ा है पास ही घर की औरतें जले घर से बचा खुचा अनाज बटोर रही हैं।क्या वह उदास मासूम ,वह जलकर राख हुआ घर भारतीय का नही हैं।इस देश में करोड़ों लोगों को पास पेट भरने अनाज नही है और ये दंगाई लोगों का बहुत जतन से सहेजा अनाज जला कर राख कर आये। यह कौन सा हिंदू धर्म है यह कौन सी भारतीयता है। हिंदुत्व के नाम पर यह कैसी दानवता है। ओडिसा में विनाश करने उठे हाथ बिहार में बाढ़ पीड़ितों को बचाने के लिए नही उठे है। कारण बाढ़ पीड़ितों के राहत में सहयोग देने से हिंदू वोटों ध्रुवीकरण नही होता। ध्रुवीकरण नही होने से सत्ता मे आने का रास्ता साफ नही होता। सारा खेल वोटों का है। हिंदूवादी राष्ट्रवादी तो महज मुखौटा है जो आम जनता को बरगलाने के लिए पहना जाता है।
इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां का जनमानस सब समझते हुए भी सांप्रदायिक संगठनों के बहकावे आजाता है और इनकी काठ की हाडी बार बार चूल्हे पर चढ़ जाती है।मध्य वर्ग भी यह जानते हुए भी कि यह सब सत्ता में आने की रणनीति है इनका समर्थन करता दिखता है।इनके द्वारा की गई हिंसा में जो जान माल का नुकसान होता है उसके लिए भारतीय जन मानस नही कल्पता। सरकारी संपत्ति का नुकसान हमें अपना नुकसान नही लगता। इसलिए बसो की तोड़ फोड़ आगजनी हमें उद्वेलित नही करती है। ऐसा भान होता है कि अभी भी हम औपनिवेशिक मानसिकता से नही उबर पाए है।
जारी है

बुधवार, 27 अगस्त 2008

भारत में आधुनिक सभ्यता का संकट

भाग एक
आवश्यकता है इन आताताइयों से सावधान रहने की।
24 अगस्त के जनसत्ता में प्रभाष जोशी जी ने पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर की पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री नवाज शरीफ के साथ सार्क सम्मेलन में हुई व्यक्तिगत वार्ता का उल्लेख करते हुए काश्मीर की पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी की नेता महबूबा सईद को समझाने की कोशिश की कि संस्थाओं की मर्यादा का सम्मान करना किसी भी समाज को चलाने के लिए आवश्यक है। लेकिन यदि राजनीतिक हित लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा का हनन् करके सधते हों तो इस देश में कौन सा राजनीतिक दल है जो इस देश व इसकी जनता के हित को अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर रखने का दावा कर सकता है। ढ़ूढ़ कर भी शायद ही मिले। जम्मू काश्मीर के मसले पर ही यह तो सभी मान ही रहे हैं कि जम्मू के साथ भेदभाव होता रहा है। पर भारतीय जनता पार्टी यह बताने का कष्ट नही करती कि अपने शासन के दौरान उसने क्यों जम्मू के साथ न्याय करने की कोशिश नही की? क्यों वह कांग्रेस के नक्से कदम पर चलती रही? यह भी समझ में नही आता कि कैसे अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन दे देने से जम्मू के साथ हुए अन्याय की भरपाई हो पाएगी? पिछले 45-50 दिन से जम्मू में जो हिंसा आगजनी होरही है उससे जो नुकसान इस क्षेत्र को हुआ है क्या वह पिछले 60 साल में किये गए भेदभाव से हुए नुकसान से कम है। जम्मू के संगठनों द्वारा किये जारहे हिंसक आंदोलन से किसका नुकसान होरहा है? जो व्यापारिक और ओद्योगिक संस्थान बंद हैं उससे जो नुकसान होरहा है वह किसका नुकसान है?जिन बच्चों की पढ़ाई शिक्षण संस्थानों को बंद करने से चौपट होरही है उनके भविष्य को कौन सवारेगा? स्थिति सामान्य होने पर प्रशासन उनको परीक्षा में रियायत दे भी दे तो भी इतने लम्बे समय तक पढ़ाई छूटने से कमजोर हुई नींव के कारण जम्मू काश्मीर के बच्चों व युवाओं के आगे रोजगार पाने के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धाओं में असफल होने पर उनके भविष्य को सवारने की जिम्मेदारी कौन लेगा? युवाओं की वह जमात जो इस साल प्रतिस्पर्धा परीक्षाओ में बैठने की तैयारी कर रही होगी उनको इस आंदोलन से जो नुकसान होरहा है उसकी भरपाई कौन करेगा? इस लम्बे बंद को दौरान जिन लागों ने अपनी रोजी रोटी खोई है उसकी भरपाई कौन करेगा?जिन असंख्य दिहाड़ी मजदूरों,बीमारों, बूढ़ों, अपाहिजों आदि को इससे आंदोलन से परेशानी होरही होगी उसकी पूर्ति कौन करेगा? जम्मू के वे सारे संगठन तथा काश्मीर के वे सारे संगठन जो इस पूरे क्षेत्र को तहस नहस करने में आमदा हैं उनको उनके द्वारा किये जारहे इस नुकसान के लिए जिम्मेदार ठहराने का काम कौन करेगा?
उल्लेखनीय है कि यह तोड़ फोड़ खून खराबा जम्मू काश्मीर में ही नही होरहा है।यह पूरे देश में होरहा है।उड़ीसा में विश्व हिन्दूपरिषद के नेता की हत्य़ा के विरोध में निहत्थे स्थानीय लोगों को मारा जलाया जारहा है । सम्पत्ति को नुकसान पहुचाया जारहा है। यह नुकसान स्वयं को देशभक्त बताने बाले संगठन कर रहे है।महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता के ठेकेदार ही हिंसा और तबाही मचाए हुए हैं।गूर्जर आंदोलन के दौरान हुई हिंसा से सार्वजनिक एवं निजी सम्पत्ति का जो नुकसान हुआ वह गूजरों का भी नुकसान नही था? सुप्रीम कोर्ट ने यह मसला उठाया भी था। पर फिर दब गया।यही नही गुजरात में जो मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा कराई गई उससे क्षति किसको पहुची—गुजरातियों को, भारतियों को , मानवता को या सिर्फ मुसलमानों को? इसी प्रकार 1984 में सरदारों के विरुद्ध की गई हिंसा में भी अपने ही मरे, अपने ही उजड़े और अपनों ने ही मारे व उजाड़े। बार बार निहत्थे बेकसूर लोग बेमौत क्यों मर रहे हैं? क्योंकि इन हिंसाओं को भड़काने वालों को चुनाव जीतना था। इतिहास में पढ़ा था कि विदेशी आताताई देशी राजाओं को हरा कर धन सम्पत्ति की लूटपाट कर बचे खुचे को आग लगा कर चले जाते थे।अब तो अपने ही अपनों के हितों की रक्षा के नाम पर अपनी ही सरजमीं को आग के हवाले कर रहे हैं। अतः तर्क या हाजिर जबाबी से इन तत्वों के मुंह तो कुछ क्षणों के लिए शायद बंद किया जासकता है परन्तु इन स्वार्थी तत्वों के काले कारनामों पर लगाम नही लगाई जासकती।आज आवश्यकता है ऐसे नेताओं दलों व संगठनों पर लगाम लगाने की जो किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं। इसके लिए नागरिक समाज को आगे आना होगा तथा चुनाव कानून व चुनाव प्रक्रिया में ऐसे सुधारों के लिए दबाव बनाना होगा जिससे ये स्वार्थी तत्व जन भावना भड़का कर सत्ता हासिल नही कर सकें।

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

परमाणु ऊर्जा कुछ अनबुझे प्रश्न

हाल ही में हरियाणा के झज्जर जिले के झाड़ली गांव में इन्दिरा गांधी बिजली परियोजना की आधारशिला रखने के बाद रैली को सम्बोधित करते हुए सोनिया गांधी ने एटमी करार का विरोध करने वालों को विकास और अमन का दुश्मन बताया। सोनिया गांधी ने आगे जोड़ा कि अमेरिका के साथ एटमी करार का मकसद गांव गांव बिजली पहुचाना है। यह हताशा में की गई टिप्पणी थी। सोनिया गांधी समझ गई थी कि अमेरिका के साथ परमाणु समझौता की कीमत संयुक्त प्रगतिशील सरकार की स्थिरता थी।लेकिन सोनिया गांधी ने हताशा में ही सही एक बड़ा अहम मुद्दा उठा दिया। इस लेख में परमाणु कार्यक्रम सम्बन्धी उपलब्ध तथ्यों की सहायता से यह समझने की कोशिश की जाएगी कि परमाणु ऊर्जा से आम आदमी की खुशहाली में कितना इजाफा होता है
परमाणु कार्यक्रम से होने वाले तथाकथित विकास की एक झलक डा. रोजेली बर्टेल,(अध्यक्ष इन्टरनेशनल इन्स्टिट्यूट आफ कनसर्न फार पब्लिक हेंल्थ तथा इन्टरनेशनल परस्पैक्टिव इन पब्लिक हेंल्थ के प्रधान संपादक) द्वारा दिये गए आकड़ों से मिल जाती है।डा. रोजेली बर्टेल का कहना है कि परमाणु हथियारों के परीक्षण से लगभग 1,200 मिलियन लोग यानि 120 करोड़ प्रभावित हुए हैं। 1943 से 2000 तक बिजली उत्पादन से दस करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। इस दौरान रेडियेशन के सम्पर्क में आने से ही पांच सौ करोड़ बच्चे मरे पैदा हुए हैं। वह आगे जोड़ते है कि परमाणु उद्योग इन आकड़ों को छुपाने की कोशिश करता रहा है ताकि परमाणु शक्ति की वास्तविक कीमत को कम आंका जासके।
अब जरा परमाणु ऊर्जा से कार्यक्रम से भारत के गांवों का कितना विकास हो सकता है यह भी जान लिया जाए।इसकी एक बानगी डा. संघमित्रा गडकर व सुरेन्द्र गडकर(पी.एच.डी.) के 1991 में राजस्थान के रावलभाटा में किये गए एक सर्वेक्षण की रपट से साफ होजाता है। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य भी रावलभाटा परमाणु ऊर्जा संयत्र का वहां के निवासियों में पड़े प्रभाव का अध्ययन करना था।इस अध्ययन में रावलभाटा के पास के गांवों के लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति पर कुछ चौकाने वाले तथ्य सामने आए।इस सर्वेक्षण की रपट अणुमुक्ति (भारत में अपनी किस्म की अकेली पत्रिका) के अप्रेल मई 1993 के अंक में छपी बाद में साइन्स फार डैमोक्रैटिक एक्शन के नवम्बर 2002के अंक में छापी गई।
अणुमुक्ति समूह परमाणु संयंत्रों के विरोध में 1986 की चर्नोबिल की दुर्घटना के बाद कूदा ।इसी दौरान सरकार अणुमुक्ति के कार्यस्थल वड़छी गांव के पास में ही काक्रापार नामक जगह परमाणु संयंत्र लगाने का निर्णय किया। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया। परन्तु सरकारी दमन के आगे विरोध टिक नही पाया। इस आन्दोलन के दौरान यह भी समझ में आया कि भारत में परमाणु संयंत्रों से स्थानीय निवासियों को होरहे नुकसान को आंकने के लिए कोई विश्वस्त सर्वेक्षण नहीं किया गया था। इसीलिए जनआन्दोलन भी इन संयंत्रों का सिद्दत से विरोध नही कर पारहे थे। अतः सितम्बर 1991 में राजस्थान के रावलभाटा में दस साल पुराने परमाणु संयंत्र के पास रह रहे स्थानीय निवासियों की स्थिति को बारे में जानने का निर्णय लिया गया।हालांकि सर्वेक्षण रपट स्थानीय निवासियों के जीवन के हर पहलू के छूती थी, और सर्वेक्षण के नतीजे बहुत उत्साहबर्धक नही थे। लेकिन स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थिति बहुत भयावह पाई गई।
कुल 1,023परिवारों का सर्वेक्षण किया गया। इनमें से 571 परिवार रावटभाटा परमाणु बिजली संयत्र से 10 किलोमीटर से कम दूरी पर थे। 472 परिवार इस संयंत्र से 50 किलोमीटि से अधिक दूरी पर स्थित चार गांवों से थे। पास केगावों से 2860 तथा दूर के गावों से 2544 लोगों का सर्वेक्षण किया गया। वैसे इन गांवों को रहन सहन खान पान आदि में काफी समानता थी ऊर्जा संयंत्र की वजह से ही असमानताएं आई थी। सबसे बड़ी असमानता करीब और दूर के गावों के लोगों के स्वास्थ्य के क्षेत्र में दिखी।रावलभाटा के पास के गांवों के अधिकतर(45प्रतिशत) लोगों ने बीमारी की शिकायत की जबकि दूर के गावों के 25 प्रतिशत लोगों ने बीमारी की शिकायत की।पास के 551 गावों में 68 परिवारों में कम से कम एक सदस्य को चार अलग अलग बीमारियों ने घेर रखा था।दूर के 472 गावों में ऐसे घरों की संख्या केवल 9 थी।परमाणु ऊर्जा संयंत्र के पास के गावों में 30 मरीजों के शरीर में बड़े बड़े ट्यूमर(गांठें) थी। एक महिला की छाती में तो फूटबाल जैसी गोल गांठ थी। कइयों की गाठें टेनिस की बाल के बराबर गोल थी।दूर के गावों में ऐसे पांच केस मिले।पर किसी की भी गांठ फूटबाल जैसी गोल व बड़ी नही थी। गर्भवती स्त्रियों के गर्भपात, समय से पहले जन्म, मरे हुए बच्चों का जन्म ,नवजात शिशुओं की मृत्यु, तथा विकलांगता की दर अधिक पाई गई। संयंत्र के पास के गावों के 44 लोगों को विकलांगता थी। इनमें से पांच की आयु ही 18 साल से ऊपर थी। 33 की आयु 11साल से कम थी तथा 6 की आयु 11 और 18 के बीच थी। दूर के गावों में 14 केस विकलागंता के मिले। इनमें से 4 की उम्र 18 वर्ष से ऊपर थी।6 बच्चे 11से कम उम्र के थे जबकि चार बच्चे 11से 18 के बीच में थे। पास के गावों में 1989 व 1991 के बीच 16 बच्चे विकलागं पैदा हुए, सामान्य बच्चे 236 पैदा हुए। दूर के गावों में इस दौरान 194 सामान्य बच्चे पैदा हुए तीन विकलागं पैदा हुए। इसी दौरान पास के गांवों में चार विकलांग मरे हुए बच्चे पैदा हुएथे जबकि दो सामान्य बच्चे मरे हुए पैदा हुए थे। दूर के गांवों में यह संख्या जीरो थी।नजदीक के गावों में पांच को कई विकलागंताएं थी। इनमें से चार में से हरएक को दो दो विकलागंताएं थी।एक को तीन विकलागंताएं थी।यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि संयंत्र के चालू होने के बाद पास के गावों में पैदा हुए बच्चों में विकलांगों की संख्या बढ़ी थी ।(1981-1991 के बीच पैदा हुए बच्चों में 39 विकलांगता से ग्रस्त थे।)1989-1991के बीच सात नवजात शिशु एक दिन की आयु ही जी पाए। दूर के गांवों में एक शिशु एक ही दिन की अल्पआयु में चल बसा। 1981-91 के बीच 16 विकलांग बच्चे पैदा हुए।6 बच्चे मृत पैदा हुए,27 गर्भपात हुए तथा 31 बच्चे जन्म के बाद जल्दी ही काल के ग्रास बन गए। उल्लेखनीय है कि रावतभाटा भारत का प्रथम ऊर्जा संयंत्र है।कनाडा की मदद से इस संयंत्र का निर्माण 1964 में आरंभ हुआ.1973 में इसको कामर्शियल घोषित कर तिया गया। दूसरी इकाई का काम 1967 में प्रारम्भ हुआ 1981 में कामर्शियल हुआ।
1991 के सर्वेक्षण की रपट के मुख्य निष्कर्षों को हिन्दी में छाप कर रावतभाटा के समीपवर्ती गावों में वितरित किया गया।इसके छः महिने बाद स्थानीय लोगों ने एक जलूस निकाला और रिएक्टरों को बन्द करने की मांग की। एक बूढ़ी आदिवासी महिला अपना पारम्परिक पर्दा त्याग कर मंच पर आई और लोगों को बच्चों में बढ़ती विकलांगता के बावजूद बिजली बनाने की जिद पर अड़े रहने के लिए फटकारा। इस सर्वेक्षण से मिले तथ्यों से साफ होगया है कि रावतभाटा परमाणु ऊर्जा संयंत्र से स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति बिगड़ी और विकलागंता के आकड़ो का अवश्य विकास हुआ। मालूम नही सोनिया गांधी को उपरोक्त सर्वेक्षण की जानकारी था कि नही।यदि नही थी तो आम लोगों को गुमराह करने की कोशिश करने से पहले क्या उन्हें परमाणु ऊर्जा का सच जानने की कोशिश नही करनी चाहिये। यदि आम जनता को परमाणु संयंत्रों से होने वाली त्रासदी की भनक लग जाए तो वे कभी भी अपने निकटवर्ती इलाकों इस प्रकार के संयंत्रों के लगाने का पुरजोर विरोध करेंगे।
इसीलिए पूरे विश्व में सरकारें तथा परमाणु उद्योग परमाणु- परिक्षणों ,परमाणु- हथियारों, परमाणु- ऊर्जा,तथा परमाणु-संयंत्रों के रखरखाव के बारे में लापरवाही और गोपनीयता दोनों ही बरतती है।इससे एक ओर लोगों को इन परिक्षणों, व परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से होने वाले नुकसानों तथा खतरों के बारे में जानकारी नहीं होती है। दूसरी ओर उन्हें दुर्घटना के समय बरती जाने वाली(अ) सावधानियों के बारे में भी कोई ज्ञान नही होता। उचित जानकारी के अभाव में सरकार की जवाबदेही सुनिश्चत करना भी आसान नही होता। चूंकि हर प्रक्रिया गुप्त रखी जाती है इसलिए होचुके या सम्भावित नुकसान की जानकारी भी आम आदमी को नहीं होती। संक्षेप में आम लोगों को तथाकथित विकास का लाभ पहुचे या नही पहुचे पर परमाणु- हथियारों, परमाणु- ऊर्जा उनके बेमौत मारे जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। सरकारों का आलम यह है कि वह लीपापोती में ही अधिक लगी रहती हैं ताकि जवाबदेही से बची रहें।

अपने देश में चर्नोबिल दुर्घटना के बाद भी परमाणु संयंत्रों के रखरखाव में किस प्रकार की अ- सावधानी बरती गई इसका एक मिसाल रूपा चिनाय की सनडे आबजरवर 6,9,92 को भेजी एक खबर है। रूपा चिनाय के अनुसार मुम्बई से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित भाभा परमाणु शोध केन्द्र में 13 दिसम्बर 1991 को रिऍक्टर में काम कर रहे मजदूरों ने प्रबन्धन को बतायाकि समुद्र और रिऍक्टर के बीच के मैदान में पाइप लाइन फटने से पानी का फब्बारा फूटा था। प्रबन्धन ने आनन् फानन् में छः दिहाड़ी मजदूरों को गड्डा खोदने के काम पर लगा दिया। इन मजदूरों ने बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के व रेडिएशन मापने के बैज पहने जमीन के भीतर आठ फीट गहरा गड्डा खोदा । ताकि फटी हुई पाइप लाइन की मरम्मत की जा सके। शायद इन मजदूरों को बिना किसी सुरक्षा कवच के काम पर लगाने वारा प्रबन्धन भी रेडियेशन से होने वाले खतरे के बारे में अवगत नही था। रेडिएशन स्वास्थ्य जांच विभाग के एक अफसर को रेडियेशन से होने वाले प्रदूषण की आशंका हुई ।उन्हों ने दुर्घटना का पता चलने पर गड्डे के पास इकट्ठा पानी के नमूने लेकर जांच के लिए भेज दिये। तभी इलाके में रेडियोएक्टिविटी से खतरे की सम्भावना पर प्रबन्धन का ध्यान गया। तब भी ठीक से जांच कराने ,प्रभावित लोगों समुचित इलाज करवाने तथा सावधानी बरतने का प्रावधान करने के बजाय सारी घटना में लीपापोती करने की कोशिश की गई। ताकि किसी अफसर को लापरवाही बरतने की वजह से कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही का सामना न करना पड़े। उदाहरण के लिए जिन ठेके के मजदूरों ने करीब आठ घन्टों तक गड्डे में काम किया था उनको फटाफट गड्डे से बाहर निकाल कर नहला धुला कर नए कपड़े पहना कर घर भेज दिया। उसके बाद उन मजदूरों का क्या हुआ किसी को नही मालूम। खोदे हुए गड्डे ,उसके आसपास के क्षेत्र की घासपूस, पक्षियों व कीड़े मकोड़ों में विकिरण पाया गया।सम्भावना है कि पक्षियों और कीड़ों द्वारा यह विकिरण एक जगह से दूसरी जगह फैलाया गया होगा। यही नही ये नाले बरसाती पानी को भी समुद्र तक पहुचाते थे। जिससे यह शक पैदा होता है कि इस नाले से काफी समय से विकिरण समुद्र फैल रहा था। रूपा चिनाय जिन्होंने यह रपट सनडे आबजरवर के 6,9,92 को भेजी का कहना है कि इस प्लान्ट का प्रबन्धन 1978 से ही जानता था कि इस पाइप में रिसाव था। पर उसे न ठीक कराया गया न ही बदला गया।
यहां यह प्रासंगिक है कि भारत ही नहीं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी परमाणु संयंत्रों से होरहे नुकसान को नजरअन्दाज करने की कोशिश हमेशा से ही होती रही है। डा. रोजेली बर्टेल ने कहा कि चर्नोबिल में अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजन्सी (आइ ए ई ए) का वास्तविक चेहरा सामने आया। (अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजन्सी की स्थापना 1950 में हुई। इसका उद्देश्य परमाणु हथियारों के प्रसार तथा परमाणु ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना था। ये अपने आप में विरोधाभाषी उद्देश्य हैं। अन्तर्राष्ट्रीय रेडियेशन सुरक्षा आयोग की स्थापना बीसवी सदी के पचासवे दशक में हुई थी। इसका उद्देश्य रेडियेशन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले कुप्रभावों को जानना व लोगों का इससे बचाव करना है।) डा. रोजेली बर्टेल ने चर्नोबिल दुर्घटना के पीड़ितों के अध्ययन के दौरान यह देख कर हैरान थे कि आई ए ई ए मान रही थी कि इस दुर्घटना में कोवल32 लोगों की जानें गई।जबकि यूक्रेन के स्वास्थ मंत्री ने माना कम 10,000 लोग चर्नोबिल दुर्घटना के कारण मरे । बेलारूस में चर्नोबिल से सबसे अधिक जानी नुकसान हुआ। परन्तु आई ए ई ए व अन्तर्राष्ट्रीय रेडियेशन सुरक्षा आयोग ने इन पीड़ित लोगों की समस्याओं को पूरी तरह से नजरअन्दाज कर दिया। डा. रोजेली बर्टेल का मानना है कि इन दोनों संस्थाओं का विज्ञान से कोई लेना देना नहीं है।
चर्नोबिल दुर्घटना के बाद वहां पर राहत कार्यों में लगाए गए छः लाख लोगों को डां रोजली बर्टल ने जिन्दा लाश कहा है।ये छः लाख लोग रूस के कोने कोने से लाए गए किसान, फैक्टरी मजदूर, खदान मजदूर, सिपाही, व आग बुझाने वाले थे। इनमें से कई को विकिरण वाले धातुओं को नंगे हाथों से उठाना पड़ा था। दुर्घटना के बाद 300 से अधिक जगहों पर लगी आग इनको बुझानी पड़ी। सैकड़ों ट्रक, फायर इन्जिन , कारें आदि इनको जलानी पड़ी। घरों को गिराना पड़ा। एक जंगल को पूरी तरह जमीन पर गाड़ना पड़ा। परमाणु विकीरण से प्रभावित सारा कूड़ा, मिट्टी जमीन पर गाड़नी पड़ी। इन लागों को 180 दिन के लिए कन्सक्रिप्ट किया गया था। लेकिन कईयों से एक साल तक यह काम जबरदस्ती करवाया गया। ना नुकुर करने पर परिजनों को कड़ी से कड़ी सजा देने की चेतावनी दी गई। राहत कार्य पूरा होजाने पर इन लिक्वीडेटरों को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर कर भुला दिया गया।इनका एक संगठन है जिसका दफ्तर कीव के बाहर स्थित रेडियेशन शोध केन्द्र में है। इस संगठन के अनुसार 1995 तक इस संगठन के तेरह हजार सदस्य मर गए थे इनमें से बीस प्रतिशत ने आत्महत्या की थी। सत्तर हजार सदस्य हमेशा के लिए विकलांग होगए थे। चूंकि सभी लिक्विडेटर इस संस्था के सदस्य नही थे। अतः कइयों के बारे में सूचना जुटाना भी आसान नहीं था। कारण रूस के विघटन के बाद वे अपने अपने देशों के सुदूर इलाकों में बिखरे थे।
यहां यह तथ्य ध्यान में रखना आवश्यक है कि चर्नोबल न पहली दुर्घटना थी न आखरी। 1991 में तथ्यों को स्वयं बोलने दो (Let the Facts Speak)शीर्षक पुस्तक छपी।इसमें 1990 तक हुए परमाणु दुर्घटनाओं का लेखाजोखा है। 15 साल बाद इसका तीसरा संसकरण छपा।इसमें इस बात पर चिन्ता व्यक्त की गई कि 60 साल के दुर्घटनाओं से भरे इतिहास के बावजूद परमाणु ऊर्जा को बहुत नई, साफ सुथरी, सस्ती, पर्यावरण के लिए सुरक्षित, विश्वसनीय बताया जारहा था। इस पुस्तक में तथ्यों की सहायता से सिद्ध किया गया है कि परमाणु ऊर्जा का हर कदम—खनन से मिलिगं, इन् रिचमन्ट, रिएक्टर चलाने,तथा परमाणु कचरा ठिकाने लगाने तक सुरक्षित नही है।
मसलन् परमाणु कचरा नष्ट नही होता।.कुछ कचरा जैसे Plutonium करीब 250,000 साल तक विकिरण फैलाता है। दूसरा, विकिरण की बहुत थोड़ी मात्रा भी बहुत बड़ा नुकसान पहुचाती है। मसलन् 1987 में गोआना ब्राजील में कैन्सर थैरैपी मशीन से सीसियम (cesium) का एक फ्लास्क कबाडी को बेच दिया गया। लोगों ने इससे कोई पाउडर झरता देखा और दवा समझ कर शरीर पर मल लिया। कुछ समय बाद रेडियम से उनका शरीर जलने लगा तो उन्हों ने पानी से धो डाला इससे घरों का पानी व सीवर दोनों प्रदूषित हो गये। पास पड़ोसी इस प्रदूषण की चपेट में आने लगे.।इन प्रदूषित लोगों को हस्पताल ले जाने वाली ऐम्बुलैंस भी प्रदूषित होगई। इन वाहनों को प्रदूषण रहित करने की किसी को नही सूझी। 112,000लोगों को पकड़ कर जांच के लिए स्थानीय स्टेडियम में लाया गया। जांच में 249 में भारी मात्रा नें रेडियम जहर मिला। पांच लोग इस जहर से मर गए।उनको खास प्रकार के ताबूतों में विशेष तरीके से बनाई गई कब्रों में दफनाया गया।ताकि मुर्दों से प्रदूषण न फैले। विशेषज्ञों का मानना है कि प्रदूषित स्टेडियम , सीवर, व अन्य सुविधाएं लम्बे समय (कई जन्मों )तक खतरनाक रहेंगी।
इस पुस्तक में बताया गया है कि परमाणु ऊर्जा उद्योग अन्य उद्योगों से इस मायने में भिन्न है कि यह परमाणु हथियारों के उत्पादन के उद्योगों से तथा राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है। इस कारण इस उद्योग में बहुत गोपनीयता बरती जाती है तथा जनता को इनसे होने वाले नुकसान (दुर्घटनाओं से तथा प्रदूषण से) के बारे में अक्सर गलत सूचना दी जाती है। इन उद्योगों की जबाबदेही भी अन्य उद्योगों से कम होती है। परिणामस्वरूप अन्य उद्योगों की तुलना में परमाणु उद्योगों से खतरे अधिक होने के बावजूद सुरक्षा मापदन्ड कमजोर होते हैं। इस सब का खमिजाना सभी जीवित प्राणियों को भरना पड़ता है। इस खमिजाने की एक संक्षिप्त तसबीर इस प्रकार है।
11 जनवरी 1980 AAP-AP, ने बताया कि 1950 मेंउत्तरपूर्वी आस्टेलिया की एक युरेनियम खान के बांध की मिट्टी की दीवार तेज बारिष की वजह से टूट गई और रेडियोऐक् ‘टिव से आस पास के पानीके स्त्रोत प्रदूषित होगए। इस प्रदूषण को बारे में 1980 तक गोपनीयता बरती जारही थी। यह खान इग्लेंन्ड,व अमेरिका के परमाणु हथियार प्रोग्राम से जुड़ी कम्पनी ने ली थी तथा यहां सुरक्षा के मापदन्ड बहुत कमजोर थे।
The West Australian” –ने 3 जनवरी 1981को छापा कि एक सेवानिवृत नौसेना के पाइ ’ लट ने बताया कि उसने अक्तूबर 1947 में तीन फ्लाइट्स से अटलान्टिक समुद्रतट पर परमाणु कचरा डाला लेफ्टीनेंन्ट कमान्डर ने अखबार को बताया कि वे यह जानकारी मीडिया को इसलिए देरहे थे कि उन्हें डर था कि अमेरिकी सरकार परमाणु कचरे से भरे कनिस्टरों से कचरा रिसने को को गंभीरता से नही लेरही थी ।


14,9 , 1954,में रूस के. Tu-4 बम्बरों ने 40,000 टन परमाणु हथियार एक परमाणु परिक्षण के लिए गिराए । इससे 45,000 रूसी सेनिकों को परमाणु विकिरण का खतरे से दो चार कराया गया। Tu-4 बम्बरों को उड़ाने वाले पाइ लट को ल्युकेमिया हुआ उसके साथी को केंन्सर हुआ। इस परीक्षण के बाद हजारों लोग मरे।


1952, 12th December को कनाडा में पहली बड़ी रिएक्टर दुर्घटना मानवीय गलती की वजह ते हुई।
“Daily News” ने 6जून 1980 को लिखा कि अरिजोना ,स.रा . अमेरिका(AriZonA, U.s.A).में युरेनियम खान मजदूरों में radon daughter की वजह से मृत्यु दर काफी ज्यादा है।1978 में मरे 200 लोगों में 160 बे मौत मरे। नवाजो यूरेनियम खान मजदूरों को फेफड़ों के कैन्सर का खतरा कम से कम 85 गुना अधिक है।ये खान मजदूर स्थानीय आदिवासी हैं। खनन करने वाली कम्पनियों ने इन स्थानीय लोगों से तेल निकालने के नाम पर झूठ बोलकर जमीन लीज पर ली। इस प्रकार उन्हें मालूम ही नही है कि वे मौत से खेल रहे हैं।जमीन के खनन् से उस क्षेत्र का भू जल भी प्रदूषित होगया है।
1979, अक्तूबर में थ्री माइल आइलैंन्ड पनसिलवानिया, स. रा.अमेरिका में हुई दुर्घटना की वजह से परमाणु प्लान्ट पर $150,000 का जुर्माना लगाया। यह दुर्घटना परमाणु कम्पनी के सुरक्षा के मापदन्डों की कम से कम 17 जगहों उपेक्षा करने से हुई। एक रिपोर्ट के अनुसार 1979 की इस दुर्घटना में 20 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा संयंत्र गल गया था। अरिजोना के गवर्नर ब्रूस बेब्बिट ने राज्य में आपात काल लागू कर दिया।इस दुर्घटना में $300,000 मूल्य का भोजन भी प्रदूषित हुआ।

पुस्तक में बताया गया है कि लापरवाही के अलावा वैज्ञानिकों की अज्ञानता भी खतरे को बढ़ाती है।वैज्ञानिकों को थोड़ी थोड़ी मात्रा में लम्बे समय तक ग्रहण किये गए रेडियेशन क दुष्परिणामों के बारे में सीमित जानकारी है।मानव शरीर में इससे क्या कैमिकल व मोलिकुलर परवर्तन आसकते हैं यह भी नहीं मालूम। जैसे जैसे वैज्ञानिक ज्ञान इस दिशा में बढ़ रहा है परमाणु उद्यागों में वैसे वैसे मजदूरों को मिलने वाले रेडियेशन की सुरक्षित सीमा घटाई जारही है।रेडियेशन का आज सबसे बड़ा खतरा आने वाली पीड़ियों को है कारण जीन्स के डैमेज हो जाने से विकलागं बच्चे बड़ी सख्या में पैदा होरहे हैं।
5नवम्बर 1979 के द आस्ट्रेलियन ने छापा कि जापान में
ताकाहामा 11रिएक्टर (फूक्वे के पास) से मानवीय लापरवाही की वजह से 80 टन रेडियोएक्टिव पानी रिस गया।यह दुर्घटना जापान की सबसे गम्भीर दुर्घटना मानी जाती है। एक प्रवक्ता के अनुसार यह दुर्घटना ने सबको आश्चर्य में डाल दिया।इसके कारणों का पक्का पता नही था। प्रवक्ता के अनुसार शायद तापमान मापने वाली पाइप की बनावट में कोई कमी रह गई होगी या तापमान मापने वाली पाइप का ढ़क्कन गलती से खुल गया होगा। प्लान्ट के चार तापमान मापने वाली पाइपों में से एक का ढ़क्कन खुल कर गिर गया और पाइप से पानी तेजी से बाहर निकल आया। इसके बाद रिएक्टर को एक महिने के लिए बन्द करना पड़ा


परमाणु संयंत्रों के रखरखाव में कितनी लापरवाही बरती जाती है इसका अंदाजा
अमेरिकी न्यूक्लियर रेगुलेटरी कमिशन के मिशिगन पावर कम्पनी पर $402,750,का जुर्माना थोपने के प्रस्ताव से साफ होजाता है। यह राशि आजतक अमेरिका में थोपी गई जुर्माना की राशि में सबसे बड़ी है। जुर्माने का कारण कम्पनी का रिएक्टर कनटेन्मेंन्ट भवन से जोड़ने वाली पाइप का वाल्व बन्द करना भूल जाना था।किसी भी गम्भीर दुर्घटना के समय इस भवन का उपयोग परमाणु विकीरण को बाहर निकलने देने से रोकने के लिए होता है।चूंकि वाल्व अप्रेल 1978 से सितम्बर 1979 तक खुला रहा । इस दौरान यदि कोई दुर्घटना होती तो परिणाम भयावह होते। (“West Australian”, 12/11/1979).
सितम्बर 1980 में जापान के एक प्रतिनिधि ने न्यूक्लियर फ्री पैसिफिक फोरम आस्ट्रेलियाको बताया कि जापान के 21 परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में 6,280,000 से अधिक मजदूर रेडियेशन की खतरनाक सीमा तक ऐक्सपोज होते हैं।
एक अन्य प्रतिनिधि जो पेशे से डाक्टर था तथा जो हिरोसीमा में अमेरिकी बम्बारी के बावजूद बच गया था ने कहा कि हिरोसीमा नागासाकी में मरे लोगों की संख्या अमेरिका द्वारा आंकी संख्या से कहीं अधिक थी। डा. शुनतारो के अनुसार बम्बारी के एक साल के भीतर 160,000 निवासी काल का ग्रास बने जबकि अमेरिका ने यह संख्या 60,000 आंकी थी।नागासाकी में अमेरिकी अनुमान 28,000के विपरीत 70,000 लोगों ने अपनी जान गवाई।. “The Adelaide Advertiser”, 30th September 1980।
.उपरोक्त दी गई दुर्घटनाएं महज कुछ उदाहरण हैं ।इस पुस्तक में विभिन्न देशों में हुई दुर्घटनाओं का जो ब्योरा है वह परमाणु ऊर्जा को लोक- अहितकारी,और विनाशकारी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।
इसके अलावा अमेरिका जिसके साथ करार करने अपनी चुनी हुई सरकार आतुर है वहां की सरकार भी परमाणु परिक्षणों से वहां के जन स्वास्थय पड़ने वाले कुप्रभाव को नजरअंदार करती है। डा. बैनजामिन स्पोक ने किलिगं अवर ओन क्रोनिक्लिगं द डिजास्टर आफ अमेरिकाज एक्सपीरिएन्स विथ एटोमिक रेडिएशन, 1945-1982( Chronicling the Disaster of America's Experience with Atomic Radiation, 1945-1982 Harvey Wasserman & Norman Solomon with Robert Alvarez & Eleanor Walters) नामक पुस्तक की अपनी भूमिका में लिखा है कि अमेरिकी संघीय सरकार परमाणु तकनीक के विकास सम्बन्धी सभी मूलभूत मंत्रणाओं को गुप्त रखती है।इससे न तो इन कार्यक्रमों की सामाजिक कीमत आंकनी आसान होती है और न ही मानवीय स्वास्थ्य की कीमत पर कोई सार्वजनिक बहस मुबाहिसा होसकती है और न ही कोई जनचेतना जगाने के कार्यक्रम लिए जासकते हैं। यही नही संघीय सरकार परमाणु संयंत्रों की वजह से लोगों द्वारा भुगते हुए स्वास्थ सम्बन्धी समस्याओं को भी सिरे से इनकार कर देती है।इस पुस्तक के लेखकों की एक पूरी टीम है इस टीम के सदस्यों ने बम परीक्षण व बम विस्फोट की वजह से उत्पन्न हुए परमाणु विकीरण के कुप्रभावों के भुग्तभोगी सैनिकों, व नागरिकों से लम्बी बातचीत की।उन मजदूरों से भी जिन्होंने अपने काम के हिस्से के रूप में रेडियोएक्टिव इसोटोप्स पर और अन्य सामग्री पर काम किया बातचीत की।इसके अलावा उन वासिन्दों से भी बात की जो परमाणु बम परीक्षण क्षेत्र,रिएक्टर लगाए गए स्थान से, या यूरेनेयम उत्खनन्, मिलिंग व इनरिचमैंन्ट, परमाणु कूड़ा रखे गए स्थानों से नीचे की ओर रहते थे।
भुग्तभोगियों के अलावा सरकारी दस्तावेज-1974 से पहले परमाणु ऊर्जा आयोग की 1974 के बाद इसेक उत्तराधिकारी न्यूक्लियर रेगुलेटरी कमिशन की बन्द दरवाजों के पीछे हुई बैठकों के मिनट्स, और इनर्जी रिसर्च एण्ड डैवलपमैंन्ट एजन्सी व इसका नया अवतार डिपार्टमैंन्ट आफ इनर्जी के दस्तावेज भी इकट्ठे किये।
इन सबके आधार पर अपनी भूमिका में डा. बैनजामिन स्पोक ने लिखा कि हमारी सरकार परमाणु हथियारों तथा परमाणु ऊर्जा के लिए इतनी द्रढ़ संकल्प है कि वह इन कार्यक्रमों से होने वाले नुकसान के बारे में जो भी साक्ष्य सामने आएंगे उनको सिरे से नकार देती है। सत्य को झुठला देती है, लोगों को गुमराह करती है, जन स्वास्थ्य यहां तक कि आम लोगों की जान को भी दाव पर लगा देती है। जो वैज्ञानिक सरकार की नीतियों से असहमति जताते हैं उनका चरित्र हनन करने की कोशिश करती है। डा. स्पोक सबसे अधिक चिन्तित बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर दिखे। रेडियेशन के सम्पर्क में आने से बच्चों को केंन्सर व ल्युकेमियां जैसे रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है । साथ ही बच्चों में जन्म से ही शारीरिक और मानसिक विकलांगता होने की सम्भावना बढ़ जाती है। पैदाइशी विकलांगता के ये जीन्स अगली पीढ़िया उत्तराधिकार में पाती हैं। डा. अर्नस्ट स्टर्नग्लास व सिक्रेट फालआउट , लो लिवल रेडियेशन फ्राम हिरोशिमा टु थ्री माइल आइलैंड में लिखते है कि बहुत थोड़ी मात्रा में रेडियोएक्टिव विकीरण के रिसाव से (चाहे वह किसी भी कारण से हो )जान को खतरा बढ़ जाता है तथा जन्म से विकलांगता व जान लेवा बीमारियों की घटनाएं बढ़ जाती हैं।
परमाणु कार्यक्रम के खतरों के बारे में अमेरिका की सरकारों के झूठ व फरेब को उजागर करते हुए लिखा हैं कि थ्री माइल आइलैंड दुर्घटना के एक दिन बाद किसी ने फिज्यौलौजी एण्ड मैडिशन में नोबल पुरस्कार से सम्मानित डा. जार्ज वाल्ड से पूछा कि जनता को इस दुर्घटना के प्रभावों के बारे में यूटिलिटी के प्रवक्ता के आश्वासनों पर विश्वास करना चाहिये या उनके स्वयं के खतरों के मूल्यांकन पर। डा. वाल्ड ने उत्तर दिया कि हमें स्वयं से पूछना चाहिये कि किस का हित खतरों को कम बताने में सधता है परमाणु उद्योग का या उस स्वतंत्र वैज्ञानिक का जो जनता को खतरों से आगाह कर रहा है। उल्लेखनीय है कि उद्योग के प्रवक्ता ने जनता को आश्वस्त कर दिया था कि घबराने की कोई बात नही है।डा. वाल्ड ने आगे जोड़ा कि वर्तमान परिस्थियों में वे स्वयं परमाणु उद्योग के प्रवक्ता की बातों पर ज्यादा विश्वास नही करेंगे।
आज अपने देश अपनी जनता द्वारा चुनी हुई सरकार और विपक्ष दोनों ही परमाणु ऊर्जा उत्पादन से आम आदमी पर मडरा रहे खतरे के बारे में चिन्तित नही दिखते। ये सरकारें जनता द्वारा चुनी अवश्य गई है परन्तु इनका नीतियां दर्शाती हैं कि ये इस देश की सम्पदा को व्यापारिक घरानों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बिना किसी लाग लपेट के बेचने में लगी हैं।इनको न जनहित की चिन्ता है न इस देश को जो थोड़ी बहुत आजादी हासिल है उसको बचाए रखने की। ऐसे में आम आदमी को अपनी चिन्ता स्वयं करनी है ऐसी विनाशकारी योजनाओं का पुरजोर विरोध करना चाहिए। आज वामपंथी दलों के दबाव में भारत अमेरिकी परमाणु करार कुछ समय के लिए टल अवश्य गया है। पर परमाणु ऊर्जा के विकास की सम्भावनाएं बनी हुई हैं.। कारण किसी को परमाणु ऊर्जा के उपरोक्त खतरों से सरोकार नही है। तथाकथित विकास के नाम पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विकास का रास्ता खोला जारहा है।

मंगलवार, 15 जुलाई 2008

राष्ट्रपति बुश!तोहरी महिमा अपरम्पार !!!

राष्ट्रपति बुश !तोहरी महिमा अपरम्पार। तोहि हमार प्रधान मंत्री को मूंछ की लड़ाई लड़ना सिखा दियो। पिछले चार साल से लालकृष्ण आडवाणी सबसे कमजोर रहने का ताना देत रहत पर प्रधान मंत्री के कान में जूं भी नही रेंगी। वह हमेशा की भांति शान्त और सहज लहजे में अपना काम काज निपटाते रहे। इस बीच देश के विभिन्न भागों में किसान आत्महत्या करते रहे। प्रधान मंत्री जी किसानों के लिए पैकेज की घोषणा कर शांत और सहज होगए। प्रधान मंत्री जी के पैकेज की घोषणा के बाद भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा है। लेकिन इससे प्रधान मंत्री जी के संयम और सहजता में कोई खलल नहीं पड़ा।कहीं भी उनकी मूंछ आड़े नही आई।
केन्द्र सरकार की सहमति से राज्य सरकारें में औने पौने दामों में किसानों की अमूल्य कृषि भूमि विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए हड़पने में लगी हैं।इससे पूरे देश के किसानों,दलितों,आदिवासियों में इस कदर हाहाकार मचा हुआ है कि एक बार तो सोनिया गांधी भी विचलित होगयीं। उन्होंने आनन् फानन् में चिट्ठी भी लिख डाली। पर कुछ नही हुआ। इसके बाद उनने भी आंखें मूंद ली। अपने प्रधान मंत्री जी!वे तो हमेशा की तरह शान्त और सहज भाव से परन्तु ताल ठोक कर कहते रहे कि विशेष आर्थिक क्षेत्र तो बनेंगे ही। कारण तथाकथित विकास के लिए ये आवश्यक जो माने गए हैं। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों की मार झेल रहे भारतवासियों का क्रंदन हमारे प्रधान मंत्री जी के संतुलन को नही डोला पाया। प्रधान मंत्री स्वयं जनता द्वारा चुन के नहीं आए तो क्या हुआ वे जनता की चुनी सरकार के मुखिया तो हैं। जनता के हित उनकी मूंछ का सवाल बनने चाहिये थे। पर नही बने। विदेशी पूंजी व बाजार आधारित तथाकथित विकास उनकी मूंछ का सवाल बना और उनकी मूंछ की रक्षा के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र धड़ल्ले से बन रहे हैं।
खुदरा क्षेत्र में बड़े व्यापारियों को प्रवेश से रेहणी पटरियों के दुकानदारों में हाहाकार मचा है। देश के बड़े बड़े शहरों को शंघाई या पेरिस बनाने की सनक में झुग्गीवासियों को उजाड़ा जारहा है पर उन बेघर होते लोगों की चीत्कार प्रधान मंत्री जी की नीद हराम नहीं करती।यही हाल देशवासियों की अन्य ज्वलन्त समस्याओं का है। कहां कहां तक गिनाएं। प्रधान मंत्री अवश्य अपने देश के हैं पर चुनाव का डर उन्हें नहीं है। चुन के कभी आए ही नही। अपनी जनता का रहनुमा बनने का स्वाद तो कभी चखा ही नहीं। हां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रहनुमा नही बनने का खमिजाना क्या होगा यह शायद उन्हें खूब मालूम है। इसीलिए देश हित, सरकार के अस्तित्व की सुरक्षा की चिंता छोड़ उन्होंने भारत अमेरिका परमाणु संधि को नाक का और मूंछ का सवाल बना दिया है। हमें यह नही भूलना चाहिये कि इस नाक का और मूंछ का सवाल के पीछे अमेरिकी पूंजी का, बुश का सतत् दबाव रहा है। 21वी सदी के गणतंत्र की यही बिडम्बना है कि जनता द्वारा चुनी गई सरकारें जनता के दबाव में तो आती नही परन्तु विदेशी दबाव के सामने दोहरी हुई जाती है। हमार प्रधान मंत्री कोई अपवाद नही हैं । वह गांधी- नेहरु की कांग्रेस पार्टी के प्रधान मंत्री है पर उनका ब्यवहार भारतीय गणतंत्र के प्रधान मंत्री का सा नहीं लगता। अमेरिकी पूंजी के हितों के संरक्षण के बाद उनका मकसद नेहरु-गांधी परिवार के हित संरक्षण हो सकता है पर इस देश के आम जनता के हितों से उनको कोई सरोकार नही है।यह पिछले चार साल के उनके शासन में साफ होगया है

मंगलवार, 13 मई 2008

तिब्बत को दरकार है एक ईमानदार तथा सम्मानजनक समझौते की।

गोपा जोशी
चीनी सरकार द्वारा दिये गए एतिहासिक तथ्यों के आधार 13वी शताब्दी से पहले तो तिब्बत आजाद था। यानी कम से कम 1300 तो साल आजाद देश था।तिब्बत पर 700 साल का चीनी शासन कई सवाल छोड़ता है। मसलन् यदि चीनी शासकों ने तिब्बतियों के बिरुद्ध भेदभाव की नीति नही अपनाई होती तो इन 700 सालों के चीनी राज में तिब्बतियों और चीनियों के बीच आत्मीयता प्रगाड़ हुई होती।इससे भी महत्वपूर्ण सवाल है कि पिछले 57 साल के कम्युनिस्ट पार्टी के शासन में तिब्बतियों का आजादी का संघर्ष कमजोर होने के बजाय मजबूत हुआ है चीनी सरकार का आरोप है कि तिब्बत का आजादी का आंदोलन अमेरिका की साजिश है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी मानती है कि 1951 में चीनी सेना के तिब्बत में घुसने से पहले आम तिब्बतियों पर वहां के मुट्ठी भर(महज पांच प्रतिशत) सामंतों तथा बौद्ध भिक्षुओं की तानाशाही थी। तिब्बत के 95 प्रतिशत उत्पादन के साधनों पर उनका(सामंतों तथा बौद्ध भिक्षुओं) ही कब्जा था। तिब्बती खेतीहर मजदूरों की हालत ग्रहयुद्ध से पहले के अमेरिकी काले गुलामों से भी बदतर थी।उस समय तिब्बत में अमन चैन नही था। उस समय तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता नही थी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी दावा करती है कि तिब्बतियों को सामंती शोषण से मुक्ति मिल गई है। लेकिन आम तिब्बती इस शोषण और दमन से मुक्त होकर सन्तुष्ट नही है। वह अपने तथाकथित मुक्तिदाता से ही मुक्ति चाह रहा है। आखिर क्यों ?
तिब्बत की आर्थिक प्रगति का विवरण देते हुए चीनी सरकार बताती है कि जीडीपी बढ़ा है । पिछले छः साल से लगातार राष्ट्रीय औसत से अधिक रहा है। किसानों व चरवाहों की प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है। विदेशी शैलानियों की संख्या में वृद्धि हुई है।औद्योगिक उत्पाद बढ़ा है। तिब्बत का निर्यात बढ़ा है। पर चीनी सरकार यह नही बताती कि तिब्बत के वर्तमान उत्पादन के साधनों में चीनियों की कितनी हिस्सेदारी है तथा तिब्बतियों की कितनी है?
तिब्बतियों की शिकायत है कि चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया था। 1959 में करीब एक लाख रिफ्यूजी दलाई लामा के साथ भाग कर भारत आए।1993 में संयुक्त राष्ट्र के रिफ्यूजी मामलों के उच्चायुक्त ने 3,700 तिब्बती शरणार्थियों के मामले निपटाए। काफी बड़ी संख्या में शरणार्थी छुप कर कठिन पहाड़ी रास्ते से (नागपा-ला दर्रा )से आते हैं। तिब्बती चीन पर वादाखिलाफी का आरोप भी लगाते हैं। उनका कहना है कि 1951 में किये गए 17 सूत्री समझौते में चीन ने तिब्बत के आन्तरिक सरकारी व्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नही करने का वचन दिया था। पूर्वी तिब्बत में यह वादा तो कभी नही निभाया गया। 1959 में इस संधि को ही समाप्त कर दिया गया। तिब्बत के दो प्रदेशों को चीन के अन्य प्रदेशों में मिला दिया गया है बचे हुए तिब्बत को तिब्बत स्वायत क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। लेकिन यह स्वायत क्षेत्र नही है। सभी स्थानीय कानूनों को केन्द्रीय सरकार की सहमति मिलना आवश्यक है। स्थानीय सरकार पार्टी के तहत काम करती है। तिब्बत में कम्युनिस्ट पार्टी भी बाहरी लोग ही चलाते हैं तिब्बती नहीं।
तिब्बतियों की दूसरी शिकायत है कि 1959 के विद्रोह के बाद से ही चीन तिब्बतियों का नरसंहार कर रहा है। 1,10,1960 के रेडियों ल्हासा के अनुसार 1959 के विद्रोह दबाने के नाम पर 87,000 तिब्बतियों को मार दिया गया। प्रवासी तिब्बतियों का मानना है कि 1959 के विद्रोह तथा उसके बाद के 15 वर्षों के गुरिल्ला युद्घ के दौरान चार लाख तीस हजार तिब्बती मारे गए। 1950 से 1984 के बीच चीनी जेलों तथा लेबर कैम्पों में दो लाख, साठ हजार तिब्बतियों ने अपनी जान गवांई। तिब्बतियों की शिक्षा पर भी चीनी नियंत्रण होता है। तिब्बत की सरकारी भाषा चीनी होगई है। चीनी भाषा के ज्ञान के बगैर सरकारी नौकरी मिलनी संभव नही। तिब्बती स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम चीनी भाषा है। 1994 के बाद तिब्बती बच्चों को जो तिब्बती इतिहास पढ़ाया जाता है उसमे तिब्बत का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में कोई जिक्र नही है। तिब्बती धर्म संस्कृति व सामाजिक मुद्दों पर भी पार्टी लाइन ही पढ़ाई जाती है। 1979 तक धार्मिक कर्मकांड़ों पर पाबन्दी थी1इस दौरान 6हजार धर्मस्थलों को ध्वस्त किया गया।982 का चीन का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है। लेकिन भिक्षु बनने की स्वतंत्रता तिब्बतियों को नही है।चीनी सहकार ने भिक्षु बनने वालों की संख्या निर्धारित कर रखी है । 18वर्ष से छोटी उम्र के बच्चे भिक्षु नही बन सकते।तिब्बत की आजादी के आन्दोलन में सक्रिय रहने के कारण जेल की सजा काट चुके भिक्षुओं का,जेल से छूटने के बाद मठ में प्रवेश वर्जित कर दिया जाता है। 1994 में नए निर्देश जारी किये गए और धार्मिक स्वतंत्रता पर नए सिरे से प्रहार किये जाने लगे। 1995 में दलाई लामा ने जिस बच्चे को पंचनलामा का अवतार घोषित किया उसे चीन की सरकार ने नही माना तथा अपने उमीदवार को पंचन लामा का अवतार घोषित कर तिब्बतियों पर थोप दिया।
तिब्बतियों की तीसरी शिकायत है कि चीन हान चीनियों को जबरदस्ती तिब्बत में बसाया जारहा है।तिब्बतियों के चारागाह व कृषि भूमि छीन कर कृषि फार्म बनाए गए हैं उनमें आधुनिक प्रकार की खेती होती है। तिब्बत को बाजार व्यवस्था का अभिन्न अंग बनाने के लिए तिब्बत में विदेशी सहायता से नई नई फसलें उगाई जारही है।इससे पारंपरिक जौ की खेती घट रही है। तिब्बत को बाजार व्यवस्था का अभिन्न अंग बनाने के लिए तिब्बत में विदेशी सहायता से नई नई फसलें उगाई जारही है।इससे पारंपरिक जौ की खेती घट रही है। चीनियों के बसने के कारण तिब्बती कई इलाकों में मसलन् खाम, आमदो, व ल्हासा में अल्पसंख्यक होगए हैं। चीनियों के आगमन से तिब्बतियों में बेरोजगारी बढ़ गई है।
तिब्बत में चीन की आर्थिक नीतियों का उद्देश्य तिब्बत के संसाधनों का अत्यधिक दोहन रहा है। बाजारीकरण के इस युग में इस दोहन की रफ्तार बढ़ा दी गई है। इस दोहन का अत्यधिक लाभ हान चीनियों को ही मिलता है।हान चीनी व्यापारियों को करों में भारी छूट मिलती है। चीनी सरकार के हान चीनी अफसरों को तिब्बत में काम करने के लिए बोनस में मोटी राशि दी जाती है। विश्वस्त स्त्रोतों के अनुसार चीन के तिब्बत पर कब्जा करने के बाद तिब्बत का आधा जंगल साफ होचुका है। तिब्बत में सड़कों का जाल बिछाया जारहा है जिससे दुर्गम क्षेत्रों के वनों का दोहन सुलभ होगया है। पर्यटकों ने लड़की से लदे 60 ट्रक प्रति घन्टे के हिसाब से तिब्बत सा बाहर जाते देखेने का दावा किया है। भारतीय सरकार की सूचनाओं के अनुसार, चीन के तीन आणविक मिशाइल,तथा तीन लाख सैनिक तिब्बत में तैनात रहे हैं।60 और 70 के दशक में चीन छिंगहाइ प्रान्त में आणविक हथियारों में शोध कर रहा था। तिब्बतियों का दावा है कि चीन ने मान लिया है कि वह आणविक कचरा तिब्बती पठार में डाल रहा है। तिब्बती पठार की सबसे बड़ी झील कोकोनोर के पास बीस वर्ग किलोमीटर पर यह कचरा पड़ा हुआ है।
फ्री तिब्बत संगठन के अनुसार चीनी सरकार स्वतंत्रता के प्रश्न पर बातचीत नही करना चाहती।1979 में तगंश्यावपिगं ने कहा था कि तिब्बत की स्वतंत्रता के सवाल के अलावा हर मुद्दे पर दलाई लामा से बातचीत होसकती है।दलाई लामा इस शर्त पर भी बातचीत करने तैयार रहे हैं।उन्होंने चीन द्वारा परिभाषित सीमाओं के भीतर भी समस्याओं के समाधान के लिए कई प्रस्ताव रखे हैं। अभी हाल ही में एन डी टी वी के प्रनय राय के कार्यक्रम में भी दलाई लामा ने बातचीत के माध्यम से समस्याओं के निराकरण की इच्छा जताई थी।दलाई लामा ने मध्यम मार्ग अपनाया है ताकि दोनों पक्षों के बीच अविश्वास का वातावरण समाप्त हो, आपस में सौहार्द बढ़े और तिब्बतियों पर चीनियों का दमन रुके। दलाई लामा के लिए मुख्य मुद्दे तिब्बती लोगों की, उनकी संस्कृति की, उनकी अस्मिता की तथा उनकी सभ्यता की सुरक्षा रहे है।लेकिन चीनी सरकार तिब्बतियों की इन समस्याओं पर संवाद करने के बजाय दलाई लामा की तिब्बत वापसी, दलाई लामा का तिब्बत में रहने का अधिकार तथा दलाई लामा की चीन शासित तिब्बत में हैसियत आदि मुद्दों पर सारी बातचीत को उलझाती रही है।
दलाई लामा का सुझीव है कि आपसी बातचीत के माध्यम से चीन की तिब्बत में हान चीनियों को भारी संख्या में बसाने की नीति को समाप्त करना का,तिब्बती लोगों के मूल अधिकारों तथी लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं की रक्षा, तिब्बत का विसैन्यीकरण व denuclear-isationकरना । दलाई लामा तिब्बतियों से संबंधित सभी मामलों तथा पर्यावरण पर तिब्बतवासियों का नियंत्रण चाहते हैं। दलाई लामा के लिए तिब्बत का मतलब पूरा तिब्बत प्रदेश है न कि केवल वे जिले जिन्हें चीन तिब्बत स्वायत क्षेत्र कहता है। उल्लेखनीय है कि तिब्बत के कुछ जिलों को चीन ने अन्य प्रान्तों में मिला दिया है।
सोलोमन एम कारमल,1995-96 में पैशिफिक अंफेअर में छपे अपने लेख में चीन की तिब्बत नीति का चीनी स्त्रोतों के आधार पर विष्लेषण करते हैं। उन्होंने चीनी नेताओं को उद्धृत करते हुए दर्शाया है कि तिब्बत में चीन की भूमिका में खामियां रही हैं।मसलन्1980 में अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान हूयावपांग, उस समय के कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष ने माना कि उनकी पार्टी के 30 साल के शासन के बावजूद तिब्बती लोगों की स्थिति में सुधार नही हुआ था। तिब्बती लोगों की स्थिति में सुधार के लिए हू सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना तथा सत्ता स्थानीय लोगों को सोंपना चाहते थे।तिब्बतियों में चीनी शासन को मान्य बनाने के लिए हू तिब्बती संस्कृति का (सीमित ही सही) पुनर्रुत्थान करना चाहते थे। हालाकि पार्टी नेताओं ने हू की इन नीतियों का विरोध किया। फिर भी 1985 -88 के बीच तिब्बत में शासन की बागडोर वूचिंगहुवा, दोरजी जरिगं(अल्पसंख्यक नेताओं) के हाथ में थी ।इन दोनों नेताओं ने थोडी बहुत सांस्कृतिक स्वायत्ता देने की कोशिश की। वू स्वयं यी जनजाति से थे तथाअपने प्रशासकीय जीवन का अधिकांश समय अल्पसंख्यकों के मामलों के विभागों में खासकर तिब्बत संबधी मामलों के बिभागों में बिताया। वू तिब्बत में हूयावपांग की नीतियों को लागू करने की कोशिश कर रहै थे। पूरे चीन में इस दौरान हूयावपागं की नीतियां का विरोध होरहा था। हूयावपागं को उनके पद से हटा दिया गया था।
तिब्बतियों का विश्वास जीतने के लिए वूचिंगहुवा ने पार्टी के तिब्बत स्वायत क्षेत्र के सचिव का कार्यभार संभालते अपना पहला भाषण तिब्बती लिबास पहन कर दिया । इसके साथ ही अपने पूर्ववर्ती नेताओं द्वारा लगाए गए क्रांतिकारी पोस्टर तथा बैनर हटा दिये ।शहरों ,कस्बों, सड़कों व गलियों के क्रांतिकारी नाम हटा कर पुराने तिब्बती नाम रख दिये। वूचिंगहुवा तिब्बती संस्कृति के पुनर्रुद्धार के लिए जमीन तैयार कर रहे थे। वूचिंगहुवा ने माना कि तिब्बत में चीन का विरोध क्रान्तिकारी नीतियों की वजह से था। वू ने तिब्बती लोगों को भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, मकान व नौकरियों में धांधली के मामलों में शिकायत करने की छूट दी। वू ने तिब्बती भाषा, इतिहास, व संस्कृति के अध्ययन पर जोर दिया। तिब्बती क्षेत्रीय नेताओं तथा तिब्बती क्षेत्रीय सरकारों की भाषा भी तिब्बती करने का सुझीव दिया। वू तिब्बती भाषा के शिक्षण का स्तर भी सुधारना चाहते थे। वू ने माना कि तिब्बतियों में साक्षरता दर नही बढ़ी है वू तिब्बती व चीनी भाषा दोनों की शिक्षा का स्तर सुधारना चाहते थे।साहितिक व कलात्मक कृतियों के रीजनीतिक नजरिये से जाचने की प्रक्रिया को समाप्त करने का सुझाव दिया तथा तिब्बती बुद्धिजीवियो और साहित्यकारों पर लगाए गए आरोपों को वापस लेने के भी सुझाव दिये।
धर्म के मामले में भी वू का रवैया उदार था।उन्हों ने लोगों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने की चीनी आदत की भर्तसना की।साथ 1959-76 के बीच तोड़े गए मठों की मरम्मत की योजना भी बना डाली। पंचन लामा के चीनी सरकार के समर्थन के बावजूद उन्हें चीनी सरकार की ज्यादतियो का शिकार होना पड़ा।1964 से 1982 तक उन्हें आन्तरिक निर्वासन में रखा गया। श्रम शिविर में रख कर शारीरिक श्रम कराकर उनकी विचारधारा सुधारने का उपक्रम किया गया। पंचनलामा की ताशिलहुन्पो मठ में तोड़फोड़ की गई। इस मठ के सभी पवित्र ग्रंथों तथा पिछले पांच पंचन लामाओं के अवशेषों को भी नष्ट कर दिया। ये अवशेष पंचन लामा के मंदिर में श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए रखे थे।
वूचिगंह्वा के पार्टी के तिब्बत स्वायतक्षेत्र के सचिव का कार्यभार संभाल ने के बाद पंचन लामा ने अपना मुह खोलने की हिमाकत की। उन्होंने दलाई लामा को आध्यात्मिक गुरु माना तथा कहा कि उन्हें ल्हासा आकर बसने की स्वतंत्रता होनी चाहिये। पंचनलामा ने पुलिस का बौद्ध भिक्षुओं के साथ की गई मारपीट, उनकी गैरकानूनी गिरफ्तारी,उनके साथ हुई गोलीबीरी का भी खुलासा किया। 1959 के बाद बौद्ध मेदिरों में की गई तोड़फोड़, तिब्बती त्यौहारों पर प्रतिबन्ध की घटनाओं की भी पंचन लामा ने मुखाल्फत की।चीनी सरकार ने तिब्बतियों की सास्कृतिक एकता को तोड़ने की साजीश ने पंचन लामा को सर्वाधिक दुखी किया। वूचिंगहुवा को शीघ्र ही हटा दिया गया।नए सचिव ने इस प्रकार की किसी नीति के अस्तित्ल से ही इनकार कर दिया। दी। 1989 के बाद वू का नीतियां वापस ले ली गई।
जिस समय वूचिंगह्वा पार्टी की तिब्बत शाखा के मुखिया थे दोरजी जरिंग तिब्बती सरकार के मुखिया थे।दोरजी स्वयं तिब्बती मूल के थे, तथा तिब्बत में ही 1959 से सरकारी कर्मचारी रहे। प्रारंभ में स्थानीय स्तर पर कार्यरत रहे। धीरेधीरे उन्नति करते करते शीर्ष पद पर आसीन होगए। उनका मुख्य उद्देश्य तिब्बत की अर्थव्यवस्था का विकास था।दोरजी ने माना कि चीन की संसद की अल्पसंख्यक क्षेत्रों की विशेष समश्याओं के बारे में जागरूक नही थी। उनको उमीद थी कि हूयावपांग के सहयोग से प्रदेश की गरीबी दूर करने के लिए विशेष पैकेज मिल जायगा। दोरजी ने अधिक संख्या में अल्पसंख्यक काडरों के प्रशिक्षण पर भी जोर दिया.साथ ही उन अतिवामपंथी गल्तियों की समाप्ति पर जोर दिया जिनकी वजह से लोगों को अन्याय और मनोवैज्ञानिक दमन भुगतना पड़ा है। दोरजी ने तिब्बती सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने तथा विकसित करने का संकल्प किया।
दिसम्बर 1988 को चीनी केन्द्रीय सरकार ने तिब्बत के पार्टी तथा सरकार का नेतृत्व परिवर्तन आरंभ कर दिया।वू को पार्टी के शीर्ष पद से हटा दिया गया। दोरजी को भी केन्द्र में नागरिक मामलों का मंत्री बनाकर तिब्बत से बाहर कर दिया गया।वह केन्द्र में मंत्री बनने वाले पहले अल्पसंख्यक थे। इस प्रकार तिब्बतियों को कुछ राहत मिले चाहे न मिले दोरजी को अपनी बफादारी का इनाम मिल ही गया। पंचन लामा की मृत्यु के कुछ सप्ताह बाद मार्च 8,1989 को सेना ने तिब्बतियों के विरोध को दबाने के लिए पूरे प्रांत में मार्शल ला लागू कर दिया। इस दौरान सेंकड़ों तिब्बतियों के मारे जाने का अनुमान है।दिस्मबर 1,1988 को हूचिनताओ को वूचिगंह्वा के स्थान पर पार्टी सचिव बनाया गया।साथ ही हू तिब्बत में तैनात सेना की कमान भी पार्टी की ओर से संभाले थे।हू हान चीनी हैं। तिब्बती जलवायु उन्हें रास नही आई।तिब्बतियों के दर्द को समझने के लिए तिब्बती होना या वहां की परिस्थितियों से अवगत होना तथा तिब्बत्यों की आशाओं और आकांक्षाओं के बारे मैं जानना चीनी सरकार व कम्युनिस्ट पार्टी को आवश्यक नही लगा।इसीलिए हू ने बेइचिगं में रहकर भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। बिना किसी लागलपेट के तिब्बतियों के साथ नरमी बरतने का दौर समाप्त कर दिया। 1987-9 के बीच में, चीनी सरकार के मुताबिक तिब्बत में 21 दंगे हुए।लेकिन अधिकतर विरोध प्रदर्शन शान्तिपूर्ण प्रदर्शन थे।लेकिन इन शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर सरकार ने गंभीर इल्जाम लगाए। चीनी सरकार का मुख्य भय अल्पसंख्यकों में बढ़ती जागरूकता, बढ़ता स्वाभिमान,आत्मगौरव,तथा गहराती राष्ट्रीयता की भावना से था। मार्शल ला अप्रेल 1990 में उठा लिया गया।लेकिन सैनिक प्रशासन में किसा भी प्रकार की ढील नही दी गई।स्वतंत्र विशेषज्ञों का अनुमान है कि 1993 में चीन का कुल राजनीतिक गिरफ्दारियों और सजाओं में से 80 प्रतिशत तिब्बत में हुई थी।1994 में इन गिरफ्दारियों में 90 प्रतिशत का इजाफा हुआ।
चीनी सरकार का दमन चक्र विरोध प्रदर्शन करने वालों के साथ साथ राजनीतिक, धार्मिक ,व शैक्षणिक संस्थाओं पर भी चल पड़ा । अविश्वसनीय काडरों का सफाया किया गया। मान्यताप्राप्त मठों से सैकड़ों भिक्षु भिक्षुणिनयोंको गिरफ्दार किया गयाशेक्षणिक संस्थानों को बन्द कर दिया गया सन् 1991में, आमदो के तिब्बती किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया। उनकी मुख्य मांगें थी उनकी बर्फीली जमीन उनके चारागाह उनको वापस सोंप दिये जांय।किसानों का कहना था कि वे भूख से मर रहे हं।चीनी सरकार ने इनको गिरफ्दार कर 12 से 15 साल तक की सजा दी। 2005 में अमेरिकी कांग्रेस ने चीनी अल्पसंख्यकों तथा सरकार के अल्पसंख्यकों के स्वायत्ता संबंधी कानून के पालन पर रिपोर्ट निकाली।
भेदभाव—अमेरिकी कांग्रेस की चीन में अल्पसंख्यको के मानव अधिकारों की स्थिति पर 2005 में छपी रपट के अनुसार चीन में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव सरकार व हान चीनी दोनों करते हैं।सरकार अल्पसंख्यकों की स्वतंत्र अस्मिता की भावना को दबाने की कोशिश करती है तो हान चीनी अपने कारोबार में अल्पसंख्यकों को रोजगार देना पसन्द नही करते।तिब्बत में भी सार्वजनिक क्षेत्र में ऊंचे पदों पर हान चीनियों का ही कब्जा होता है। रोजगार में हान चीनियों को तरजीह दिये जाने से उनका अल्पसंख्यकों के क्षेत्रों की ओर पलायन सुलभ होजाता है और अल्पसंख्यकों का अपने क्षेत्रों की जनसंख्या में अनुपात कम होजाता है। मसलन् 1949 में सिन्च्यांग प्रांत में हान चीनियों की आबादी कुल आबादी का केवल 6 प्रतिशत थी, जो अब बढ़ कर 40 प्रतिशत होगई है।तंग सियाव पिगं की बाजार सम्मत नीतियों के बाद इन क्षेत्रों में बसे हान चीनियों की आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार हुआ जबकि स्थानीय अल्पसंख्यकों की स्थिति बदतर हुई है।इस प्रकार चीन में अल्पसंख्यक, आज चौतरफा मार झेल रहा है।राजनीतिक तथा आर्थिक हासियाकरण के साथ साथ वह अपनी अस्मिता के संकट से भी जूझ रहा है। इसलिए चीन के अल्पसंख्यक समुदायों खासकर तिब्बत को दरकार है एक ईमानदार तथा सम्मानजनक समझौते की।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

150 दिन की गृहबंदी

तसलीमा नसरीन को नारी के दमन शोषण की संस्कृति के खिलाफ आवाज उठाना महंगा पड़ा है। पड़ना ही था। आखिर औरत और नौकर को भोला भाला सीधा साधा होना होता है। तेज तर्रार(अपने अधिकारों के लिए सजग) औरत हो या नौकर उसको दबा कर रखना टेड़ा काम होता है। इसलिए धर्म का, ईश्वर का भय दिखाकर,नैतिकता का चाबुक चलाकर शोषण के विरोध की धार को कुन्द करने का षडयंत्र प्राचीन काल से चला आया है।जब भी नारी ने इस षडयंत्र का पर्दा फांस करने की कोशिश की तो समाज ने अपना आपा खोया। मसलन् ताराबाई ने 1874 में प्रकाशित पुस्तक स्त्री पुरुष तुलना में तत्कालीन समाज में प्रचलित दोहरे नैतिक मापदंडों पर अंगुली उठाने की धृष्टता की तो सारा प्रबुद्ध समाज उनके विरुद्ध खड़ा होगया और आग उगलने लगा। परिणामस्वरूप तारा बाई की कलम सदा के लिए मौन होगई। केवल महात्मा जोति बा फुले उनके समर्थन में सामने आए। जहां तक मेरी जानकारी है किसी ने ताराबाई के जान पर हमला नही किया। तसलीमा के पल्ले इतना सौभाग्य भी नहीं पड़ा। उनकी मातृभूमि तथा उनकी कर्मभूमि दोनों ही जगह उनके स्वधर्मी लोग उनके खून के प्यासे होरहे हैं। हालाकि माना तो यह भी जाता है कि उनका धर्म औरत पर हाथ उठाने की इजाजत नही देता। पर तसलीमा पर हाथ उठे हैं और उनके खून के प्यासे हैं।अब उन उठे हुए हाथों से तसलीमा को बचाने के नाम उनको ऐसे सुरक्षित घर (सेफ हाउस) में रखा है जिसमें कुंडी अंदर से नही वरन् बाहर से लगती है। जहां की खिड़की भी बंद है उस पर मोटे मोटे पर्दे लगे हैं।खुली हवा, खुले आकाश, पशु, पक्षी तथा इंसानी संपर्क से वंचित कर उनको जो सुरक्षा दी जारही है उसमें वह कितनी सुरक्षित है यह ऐहसास के स्तर पर मापा जासकता है।शब्दों में उस सुरक्षा/असुरक्षा को बयान करना आसान नहीं।गौरतलब है कि यह सुरक्षा भी उनको कलम चलाने की आजादी नही देती।दिल्ली में तथाकथित सेफ हाउस मुहैय्या कराने से पहले हमारे प्रबुद्ध माननीय विदेश मंत्री ने सार्वजनिकरूप से यह साफ कर दिया था कि उन्हें अपने लेखन में समाज की भावनाओं, तथा आस्था का ख्याल रखना होगा। तसलीमा की अपनी भावनाओं का क्या होगा?उनकी आस्था का क्या होगा? यह सरकार के लिए महत्वपूर्ण नही था। इस प्रकार एक झटके में –जहां न पहुचे रवि वहां पहुचे कवि-उनके स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार को छीन लिया गया। जहन को यह सवाल बार बार कचोटता है कि इस कीमत पर लेखक को दी गई शरण या सुरक्षा क्या शरण य़ा सुरक्षा है या कुआं या खाई में से एक को चुनने का दबाव? यदि तसलिमा महिला लेखक न होती और नारी के दमन शोषण के स्तंभों पर प्रहार नहीं करती तो क्या तब भी उनके सामने यही कुआं और खाई को चुनने का ही प्रस्ताव होता? प्रबुद्ध माननीय विदेश मंत्री के उपरोक्त सार्वजनिक बयान में पितृसत्ता की बू आती है।
साथ ही प्रबुद्ध माननीय विदेश मंत्री ने सार्वजनिक बयान में धार्मिक कट्टर ता भी टपकती दिखती है। अपने देश में कट्टरपंथियों द्वारा अल्पसंख्यकों अक्सर दी जाती रही वह धमकी —यहां रहना है तो वंदे मातरम् कहना है- का अहसास विदेश मंत्री का यह सार्वजनिक बयान कराता है। (यहां रहना है तो आस्था व भावनाओं को ध्यान में रख कर लिखना होगा।)
अफसोस है कि कांग्रेस राजाराम मोहन रौय, गांधी और नेहरू की परंपरा को त्याग कर कुर्सी के लालच में कट्टरपंथियों की जमात में शामिल हो गई है। अपनी इस ढ़ुलमुल नीति से कांग्रेस को चाहे फायदा हो या नुकसान, इससे समाज , देश, संस्कृति को जो नुकसान होरहा है उसकी भरपाई मुस्किल है।हम औरतों के लिए तो यह खतरे की घंटी है। आखिर औरतों के दमन को पोषित करने वाले दोहरे मापदंडों की जड़ें आस्था में ही हैं।
राजाराम मोहन रौय के भाई की मृत्यु के बाद उनकी भाभी अल्कामंजरी को सती होने मजबूर किया गया। भाभी के चेहरे पर डर साफ दिख रहा था। राजाराम मोहन रौय ने भाभी से सती नही होने की याचना की। पर वह कैसे सती नही होती आस्ता का सवाल था। रिस्तेदारों ने भी राजाराम का विरोध तथा जबरन् अल्कामंजरी को मृति पति के साथ बांध दिया गया और चिता में जला दिया गया। अल्कामंजरी चीखी चिल्लाई ,पर उसको नही खोला गया। ढ़ोल नगाड़े बजा कर उसकी चीख, पुकार व कराहें दबा दी गई।वह अपने मृत पति के साथ जल कर राख होगई। सभी रिस्तेदारों ने उसे महासती का खिताब दिया। इस हृदयविदारक घटना का राजाराम पर गहरा प्रभाव पड़ा।उसी समय उसी जगह पर उन्होंने ठान लिया कि इस कुप्रथा को समाप्त कर ही दम लेंगे।
उनका काम आसान नही था। लाखों लोगों को सती कुप्रथा पर आस्था थी।उनका विरोध हुआ। उनके साथ गाली गलौज किया गया। उनकी हत्या की भी कोशिश की गई। उन्होंने सभी धर्म ग्रंथों को छान मारा पर कहीं पर भी पत्नी के सती होने का प्रावधान नही था।अपने शोध के आधार पर उन्होंने लेख लिखे बहस चलाई।तत्कालीन सरकार भी इस मसले पर हाथ डालने में डर रही थी।राम मोहन ने जान के खतरे, कट्टरपंथियों की परवाह नही,और इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए माकूल वातावरण बनाने में सफल हुए। आखिर सरकार ने भी हिम्मत दिखाई और 1829में कानून पास कर सती को अपराध घोषित किया। तब एक विदेशी सरकार खतरा उठाने राजी होगई।आज अपनी चुनी हुई सरकारें कुर्सी की खातिर राजा राम मोहन रौय की इस विरासत की अवमानना कर रही हैं। आस्था की दुहाई देकर एक लेखिका को सुरक्षा के नाम पर गृहबंदी बना रखा है। उसको मानव , नागरिक, और जीवन के मूल अधिकार से वंचित कर रखा है।
गाधी जी जीवन भर अंतरआत्मा की आवाज को सर्वोपरि मानते रहे उनके कई आमरण अनशनों के पीछे तर्क यही अंतरआत्मा की आवाज ही थी। 2 अक्तूबर गांधी जंम दिन को सयुक्त राष्ट्र के अहिंसा दिवस मनाने के प्रस्ताव पर कांग्रेस फूली नही समा रही है। लेकिन तसलीमा से आस्था या सुरक्षा के नाम पर उसके जीनव तथा अभिव्यक्ति अधिकार छीन कर सरकर जो हिंसा कर रही है वह क्या गांधी के देश में होनी चाहिये?