भाग एक
आवश्यकता है इन आताताइयों से सावधान रहने की।
24 अगस्त के जनसत्ता में प्रभाष जोशी जी ने पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर की पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री नवाज शरीफ के साथ सार्क सम्मेलन में हुई व्यक्तिगत वार्ता का उल्लेख करते हुए काश्मीर की पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी की नेता महबूबा सईद को समझाने की कोशिश की कि संस्थाओं की मर्यादा का सम्मान करना किसी भी समाज को चलाने के लिए आवश्यक है। लेकिन यदि राजनीतिक हित लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा का हनन् करके सधते हों तो इस देश में कौन सा राजनीतिक दल है जो इस देश व इसकी जनता के हित को अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर रखने का दावा कर सकता है। ढ़ूढ़ कर भी शायद ही मिले। जम्मू काश्मीर के मसले पर ही यह तो सभी मान ही रहे हैं कि जम्मू के साथ भेदभाव होता रहा है। पर भारतीय जनता पार्टी यह बताने का कष्ट नही करती कि अपने शासन के दौरान उसने क्यों जम्मू के साथ न्याय करने की कोशिश नही की? क्यों वह कांग्रेस के नक्से कदम पर चलती रही? यह भी समझ में नही आता कि कैसे अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन दे देने से जम्मू के साथ हुए अन्याय की भरपाई हो पाएगी? पिछले 45-50 दिन से जम्मू में जो हिंसा आगजनी होरही है उससे जो नुकसान इस क्षेत्र को हुआ है क्या वह पिछले 60 साल में किये गए भेदभाव से हुए नुकसान से कम है। जम्मू के संगठनों द्वारा किये जारहे हिंसक आंदोलन से किसका नुकसान होरहा है? जो व्यापारिक और ओद्योगिक संस्थान बंद हैं उससे जो नुकसान होरहा है वह किसका नुकसान है?जिन बच्चों की पढ़ाई शिक्षण संस्थानों को बंद करने से चौपट होरही है उनके भविष्य को कौन सवारेगा? स्थिति सामान्य होने पर प्रशासन उनको परीक्षा में रियायत दे भी दे तो भी इतने लम्बे समय तक पढ़ाई छूटने से कमजोर हुई नींव के कारण जम्मू काश्मीर के बच्चों व युवाओं के आगे रोजगार पाने के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धाओं में असफल होने पर उनके भविष्य को सवारने की जिम्मेदारी कौन लेगा? युवाओं की वह जमात जो इस साल प्रतिस्पर्धा परीक्षाओ में बैठने की तैयारी कर रही होगी उनको इस आंदोलन से जो नुकसान होरहा है उसकी भरपाई कौन करेगा? इस लम्बे बंद को दौरान जिन लागों ने अपनी रोजी रोटी खोई है उसकी भरपाई कौन करेगा?जिन असंख्य दिहाड़ी मजदूरों,बीमारों, बूढ़ों, अपाहिजों आदि को इससे आंदोलन से परेशानी होरही होगी उसकी पूर्ति कौन करेगा? जम्मू के वे सारे संगठन तथा काश्मीर के वे सारे संगठन जो इस पूरे क्षेत्र को तहस नहस करने में आमदा हैं उनको उनके द्वारा किये जारहे इस नुकसान के लिए जिम्मेदार ठहराने का काम कौन करेगा?
उल्लेखनीय है कि यह तोड़ फोड़ खून खराबा जम्मू काश्मीर में ही नही होरहा है।यह पूरे देश में होरहा है।उड़ीसा में विश्व हिन्दूपरिषद के नेता की हत्य़ा के विरोध में निहत्थे स्थानीय लोगों को मारा जलाया जारहा है । सम्पत्ति को नुकसान पहुचाया जारहा है। यह नुकसान स्वयं को देशभक्त बताने बाले संगठन कर रहे है।महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता के ठेकेदार ही हिंसा और तबाही मचाए हुए हैं।गूर्जर आंदोलन के दौरान हुई हिंसा से सार्वजनिक एवं निजी सम्पत्ति का जो नुकसान हुआ वह गूजरों का भी नुकसान नही था? सुप्रीम कोर्ट ने यह मसला उठाया भी था। पर फिर दब गया।यही नही गुजरात में जो मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा कराई गई उससे क्षति किसको पहुची—गुजरातियों को, भारतियों को , मानवता को या सिर्फ मुसलमानों को? इसी प्रकार 1984 में सरदारों के विरुद्ध की गई हिंसा में भी अपने ही मरे, अपने ही उजड़े और अपनों ने ही मारे व उजाड़े। बार बार निहत्थे बेकसूर लोग बेमौत क्यों मर रहे हैं? क्योंकि इन हिंसाओं को भड़काने वालों को चुनाव जीतना था। इतिहास में पढ़ा था कि विदेशी आताताई देशी राजाओं को हरा कर धन सम्पत्ति की लूटपाट कर बचे खुचे को आग लगा कर चले जाते थे।अब तो अपने ही अपनों के हितों की रक्षा के नाम पर अपनी ही सरजमीं को आग के हवाले कर रहे हैं। अतः तर्क या हाजिर जबाबी से इन तत्वों के मुंह तो कुछ क्षणों के लिए शायद बंद किया जासकता है परन्तु इन स्वार्थी तत्वों के काले कारनामों पर लगाम नही लगाई जासकती।आज आवश्यकता है ऐसे नेताओं दलों व संगठनों पर लगाम लगाने की जो किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं। इसके लिए नागरिक समाज को आगे आना होगा तथा चुनाव कानून व चुनाव प्रक्रिया में ऐसे सुधारों के लिए दबाव बनाना होगा जिससे ये स्वार्थी तत्व जन भावना भड़का कर सत्ता हासिल नही कर सकें।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें