बुधवार, 17 सितंबर 2008

पतिव्रता की मजबूरी

अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने कांग्रेस के पास भेजे गए 123 के नीतिगत दस्तावेज में कहा कि करार में भारत को ईधन आपूर्ति का आश्वासन एक राजनीतिक वादा है और इसे कानूनी बाध्यकारी वादे में तब्दील नही किया जासकता। बुश का बयान आते ही भारत सरकार सफाई देने में या कहिये लीपा पोती में लग गई।कानूनी मामलों में कानूनविद ही ज्यादा अच्छी तरह समझा सकते हैं। अतः कपिल सिब्बल आगे आये उन्होंने फरमाया कि अमेरिका ने राजनीतिक वादा किया है कि परमाणु ईधन की आपूर्ति में रुकावट आने की स्थिति में वह परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के अन्य सदस्यों से मदद मांगेगा। कपिल सिब्बल ने सफाई दी कि बुश ने यह नही कहा कि वे इस राजनीतिक वादे का सम्मान नही करेंगे।सिब्बल का मानना है कि कानूनी बाध्यता एक अलग सवाल है। (जनसत्ता,13,09) भारत अमेरिका के संबंधों को समानता के तथा आपसी हितों के संरक्षण व संबर्धन के पटल पर स्थापित करने के आधार तो कानूनी प्रावधान ही होंगे। इसीलिए अमेरिकी सरकार ने हाइड कानून पास किया और इस संधि को हाइड कानून तथा 123 के तहत ही कांग्रेस से पास करवा रहा है। सरकारें तो शायद कानूनी बाध्यताओं के आधार पर ही चलती हैं राजनीतिक वायदों के आधार पर नहीं। क्योंकि राजनीतिक वादा तो वुश ने किया है। बुश की कुर्सी गई तो वादा भी गया। यदि कुर्सी रहते भी बुश वादे को भूल जाते हैं तो भारत क्या कर सकता है। यदि राजनीतिक वादे में कोई बाध्यता होती तो बुश को यह सफाई देने की क्या आवश्यकता थी कि कोई कानूनी बाध्यता नही है। इस संदर्भ में इतिहास से यह उद्धरण भी प्रासंगिक है। प्रथम विश्व युद्ध के समय में अपनी आजादी की अलख जगाए देशों का समर्थन पाने के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विलसन ने वादा किया कि युद्ध के बाद गुलाम देशों को स्वनिर्णय का अधिकार दिया जायगा।इसी उमीद में गांधी जी ने भारत में अंग्रेजी सेना में सैनिकों की भर्ती का अभियान चलाया। लेकिन बाद में जब अमेरिकी कांग्रेस ने वर्साय संधि पर मुहर लगाने से इंकार कर दिया तो वुडरो विलसन के सारे वादे धरे के धरे रह गये। किसी ने उन पर मुकरदमा भी नही चलाया। अपने देश में दुर्भाग्य से बुश की कांग्रेस को सफाई के बाद यह राजनीतिक बनाम् कानूनी बाध्यता चिंता का विषय नही बनी। चिंता का विषय बना तो सरकार पर इस संधि का विरोध करने वाले वाम पंथियों के हाथ सरकार पर प्रहार करने के लिए आया यह नया हथियार। अमेरिका से संबंध बनाए रखने के लिए इस हथियार को भोथरा करना आवश्यक था।आज अधिकतर तथाकथित जागरूक भारतीय, मीडिया सभी अमेरिका के अनुकरण में ही देश का हित देख रहे हैं। सरकार और उसके समर्थक राजनीतिक दलों को तो इसी प्रकार के जनमानस की दरकार है।इसीलिए 11 सितंबर को अपने रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने वाशिंगटन में अमेरिकी हथियार कंपनियों को भरोसा दिलाया कि उनको देश में व्यापार करने का बराबरी का मौका दिया जायगा। भारतीय समुदाय के समारोह में मंत्री महोदय ने वियना में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से मिली छूट के लिए भी बुश प्रशासन का आभार जताया। लेकिन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में आने वाली दिक्कतों को ठंडे बस्ते में ही बंद रखना रक्षा मंत्री ने सुविधाजनक समझा।(जनसत्ता 12,9,) उल्लेखनीय है कि वाशिंगटन पोस्ट ने अपने संपादकीय Yes for an Answer में लिखा है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि अमेरिका के हित में है। इससे अमेरिकी परमाणु उद्दोगों को बाजार मिलेगा। पोस्ट ने चिंता व्यक्त की कि यदि कांग्रेस इस विधेयक को पास नही करेगी तो बाजार का यह लाभ फ्रांसीसी कंपनियां ले लेंगी।(पी.टी.आई. 12,09,08) 13 सितंबर को संधि के विरोधी से समर्थक बने, मनमोहन सरकार के संजीवनी बने अमर सिंह ने फरमाया कि भारत अमेरिका असैन्य समझौते के बाद भारत जब उपकरणों का आर्डर देगा तो अमेरिका कंपनियों को घाटे नहीं रखा जाएगा।(जनसत्ता 14 सितंबर)स्मरणीय है कि इस प्रकार का बेवाक शर्त विहीन आश्वासन ये मंत्री व जन नेता अपने लोगों को नही देते। किसान 10 पंद्रह हजार का कर्ज नही चुका पाने के कारण देश के हर राज्य में आत्महत्या कर रहे हैं। पर है कोई माई का लाल नेता जो यह कह दे कि बहुत हो चुका अब भारत का किसान आत्महत्या नहीं करेगा। हमारे संवेदनशील प्रधान मंत्री भी पैकेज की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। दलितों, आदिवासियों, गरीब गुरबों के बीच जाकर, उनकी रोटी पानी का सेवन करने की हिम्मत करने वाले, उनकी झुग्गियों में रात विता कर भारत के हासिये में रह रहे इंसान की मुश्किलों को समझने की कोशिश कर रहे भारत के युवा नेता राहुल गांधी भी आम भारतीय की हालत नही सुधरने का सारा दोष राज्य सरकारों पर मढ़ देते हैं। काग्रेस शासित राज्यों में भी हालात बेहतर नही हैं यह तथ्य उनकी जवान नही लड़खड़ाता। यही बात आतंकवादी हमलों या बाढ़ पीड़ितो को राहत पहुचाने के संदर्भ में कही जासकती है। इस प्रकार भारतीय नेताओं की भारतवासियों के लिए प्रतिबद्धता व अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्धता में साफ फर्क नजर आता हैं।अमेरिका के लिए जब हम प्रतिबद्ध होते हैं तो बदले में अमेरिका से उसी प्रकार की प्रतिबद्धता की अपेक्षा भी नही करते।उल्टे जब कभी इस प्रकार के प्रश्न को दबाए रखना संभव नही होता तो लीपा पोती करने लगते हैं। ऐसा लगता है कि अमेरिका के एक खास प्रकार के संबंध बनाए रखने की हमारी मजबूरी एक पतिव्रता स्त्री की मजबूरी की भांति है।भारतीय पतिव्रता नारी भी अपने पति के हर अवगुण और वादखिलाफी को नजरअंदाज कर उसको परमेश्वर मानकर उसकी सेवा में लगी रहने में ही अपना सौभाग्य समझती रही है।आधुनिक भारत में राजा राम मोहन राय के समय से ही संपूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय नेता व समाज सुधारक पतिव्रता स्त्री को पतिव्रत के इस गैर बराबरी तथा दोहरे मापदंड़ों की गुलामी से आजाद करने की कोशिश करते रहे। आज दुर्भाग्य से पूरे देश को ही अमेरिका के संदर्भ में इस प्रकार की गैर बराबरी के, आर्थिक गुलामी के रिस्तों में धकेला जारहा है। यह सब महान त्यागी कर रहे हैं। जाने माने अर्थशास्त्री कर रहे है और राष्ट्र हित के नाम पर होरहा है।

सोमवार, 8 सितंबर 2008

जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तो...

जनसत्ता के 24 अगस्त के अंक में साजिद रशीद ने अजित साही की 16 अगस्त के तहलका पत्रिका में छपी रपट पर अपनी टिप्पणी खुले पत्र की शैली में लिखी। तहलका पत्रिका में छपी रपट में लेखक ने सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आँफ इंडिया ) के गिरफ्दार सदस्यों पर पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों को बेबुनियाद ठहराने की कोशिश की। साजिद रशीद ने कुछ और पहलुओं को उजागर कर यह समझाने की कोशिश की कि समस्या का दूसरा पहलू भी है। साजिद रशीद की रपट पढ़ कर लगा कि वे इस्लाम के नाम पर आम युवकों को हिंसा के मार्ग पर लेजाने वाले संगठनों की बड़ी बेवाकी से भर्तस्ना करने की कुव्वत रखते हैं। साथ ही जैसा कि उन्होंने स्वयं ही लिखा है कि हिंदू अतिवादी संगठनों के विरुद्ध गवाही देने में भी वह पीछे नही रहे हैं। उनकी आपत्तियों का अजित साही ने 7,9 के जनसत्ता में जो उत्तर दिया वह साजिद रशीद के तर्कों को अपने तत्थों से काटने नूरा कुश्ती भर थी। दुर्भाग्य से अजित साही ने साजिद रशीद की चिंता पर गौर करने का कष्ट नही किया। साजिद रशीद ने 10 अगस्त को भी सिमी पर जमात-ए-इस्लामी का बजरंग दल शीर्षक से लेख लिखा। साजिद रशीद के तीनों लेखों को पढ़ने से यह समझ में आया कि उनकी चिंता उनके समाज का भविष्य है। सिमी के गिरफ्दार नेताओं का कानून का नजर में निर्दोष होना उनके लिए इतना मायने नही रखता जितना अजित साही के लिए दिखता है।साजिद रशिद उनको बेकसूर नही मानते। फिर भी इसमें कोई शक नही है कि पुलिस आतंकी घटना के बाद अल्पसंख्यक समाज के गरीब तबके के बेकसूर लोगों को पकड़ कर उन पर जुल्म करती है। (आरुसि हत्या कांड में भी घरेलू नौकर ही पकड़े गए हैं। उनमें से एक को सबूतों के अभाव में जमानत भी मिल गई है।) ।
साजिद रशीद महत्वपूर्ण सवाल उठा रहे है। धर्म के नाम पर सिमी द्वारा फैलाई जारही जो आतंकी विचारधारा है वह नव युवकों को गुमराह कर रही है।और ये भोले भाले नवयुवक बहकावे में आकर अपना और साथ में पूरे समाज का नुकसान कर रहे हैं। अजित साही से उम्मीद थी कि वे अपने उत्तर में या तो यह सिद्ध कर दें कि सिमी एक अहिंसक संगठन है और उसकी गतिविधियों से इस्लाम व मुसलमानों का भला ही होरहा है। पर वह यह नही कहते हैं। खाली सिमी के उद्देश्य लिख देते हैं। हमें यह नही भूलना चाहिये कि आज पूरे देश में धर्म, जाति, क्षेत्र के आधार पर आम जनता का भावनाएं भड़काई जारही हैं। राजनीतिक स्वार्थों के लिए यह सब किया जारहा है। जो काम मुसलमानों के बीच सिमी कर रहा है वही काम हिंदुओं के बीच संघ परिवार कर रहा है।ओडिसा में गरीब दलित व आदिवासी धर्म के नाम पर आपस में मर कट रहे हैं। ये हिंसा कौन फैला रहा है धार्मिक संगठन। महाराष्ट्र में भाषा के नाम पर लोगों को उकसाया जारहा है। कुछ साल पहले खालिस्तान के नाम पर सिख युवकों को गुमराह किया गया। पंजाब के एक प्रोफेसर व प्रसिद्ध रंगकर्मी जो खालिस्तान आंदोलन का खुलकर विरोध कर रहे थे ने दिल्ली में एक जन सभा में कहा था कि बम फटने की हर घटना के बाद पुलिस आस पास के दस बीस गावों से नौ जवानों को उठा लेजाती थी।अपने बच्चों को छुड़ाने के लिए हर माता पिता को 10,000 रुपये घूस देनी पड़ती थी। उस समय 10,000 रुपये आज के मुकाबले बड़ी राशि हुआ करती थी। खालिस्तान आंदोलन ने पंजाब खासकर सिखों को जो नुकसान पहुचाया क्या कभी उसका आंकलन होगा। क्या कभी आंदोलन के नेता उन माताओं से माफी मांगेंगे जिन्होंने अपने बच्चों को खोया है। काश्मीर में तो खोये हुए व्यक्तियों के रिस्तेदारों ने एक संगठन ही बना लिया है। धर्म, भाषा,क्षेत्र, वर्ग संघर्ष के नाम पर जो भी हिंसक वारदातें होती हैं उनमें मरते तो बेकसूर ही हैं।छत्तीसगड़ में भी नक्सली हिंसा व सलवा जूडूम में मर तो आदिवासी ही रहे हैं। बिहार में नक्सलियों व जमींदारों की सेनाओं के बीच होने वाली हिंसक झड़पों में मरे तो दलित ही।अक्सर हिंसक आंदोलनों को चलाने वाले नेता या तो विदेश में आराम फरमाते हैं या देश में सुरक्षित ठिकानों में रहते हैं। लिट्टे के प्रभाकरन् भी गरीबों को ही मानव बम बनाते हैं। बम विस्फोटों में असंख्य बेकसूर मरते हैं। कई वेकसूरों को पुलिस पकड़ कर यातना देती है। प्रभाकरन् तो सुरक्षित ही रहते हैं। क्या आमजन को बलि का बकरा बनाने की इस साजिस का भंडाफोड़ नही होना चाहिये?संक्षेप में समाज में विष राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले नेता ही अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए फैलाते हैं उससे मरते आम बेकसूर हैं। करता कोई है भरता कोई है। साजिद रशीद इस करने वाले पर अंगुली उठा रहे है। काश अजित साही इस इशारे को समझ पाते और माकूल जबाब देते। अब समय आगया है अपने समाज के ताने बाने को बनाए रखाने के लिए हम सबको मिलकर, अपने निहित स्वार्थों के लिए इस ताने बाने को नष्ट करने वालों को रोकना चाहिये।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

सांप्रदायिकता का यह दंश तो भारतीय नही है।

आज हिंदुओं की अस्मिता की रक्षा के नाम पर जिस तरह की हिंसा हिंदूवादी संगठन फैला रहे हैं उस तरह की हिंसा की परंपरा न भारतीय है और न ही हिंदू है। बिनौय कुमार सरकार का हिंदू राजनीतिक दर्शन पर एक लेख दिसंबर 1918 के पोलिटिकल साइंस क्वाटरली, पेज 482-500 में छपा।इस लेख में बिनौय कुमार सरकार लिखते हैं कि भारत कट्टर प्रकार की थिआँक्रसि कभी नही था। यहां राज्य धार्मिक संस्थाओं के अधीन कभी नही रहा। हिंदू राज्यों की एक अंय विशेषता यह थी कि वे पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष थे। भारत में धर्म का राजनीति पर कभी भी प्रभुत्व नही रहा। हमेशा ही राज्य का धार्मिक संस्था से अलग स्वतंत्र अस्तित्व रहा। धार्मिक संस्थाओं ने कभी भी राज्य की शक्तियां हासिल करने की कोशिश नही की। धार्मिक संस्थाओं ने कभी राज्य के मामलों में हस्तक्षेप नही किया। इसके विपरीत यूरोप में चर्च और राजा के बीच अक्सर टकराव होते रहते थे। चर्च धार्मिक और भौतिक दोनों क्षेत्रों को अपना नियंत्रण में रखना चाहता था। इसके अलावा पोप अपने कार्डिनल तथा लें गिट्स के माध्यम से भी यूरोपीय राज्यों के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करते रहते थे । हिंदू धार्मिक संस्थाओं का इस प्रकार का इतिहास नही रहा है।

13वीं सदी के प्रारंभ से भारत में इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ। पर भारत के इतिहास में कोई मुसलिम काल नही है इस्लाम के भारत आगमन के पश्चात भी यहां का कोई हिस्सा किसी विदेशी शक्ति के अधीन नही था। सर्व प्रथम इस्लाम ने राजनीतिक तौर पर भारतीयों की आजादी पर अंकुश नही लगाया। दूसरा पूरे देश में कभी भी मुसलमान राजाओं का शासन नही रहा। तीसरा मुसलमान राजाओं व हिंदू राजाओ के आपसी रिस्ते,मुसलमान राजाओं और उनकी हिंदू प्रजा के बीच के रिस्ते,हिंदू राजाओं तथा उनकी मुसलमान प्रजा के बीच के रिस्ते कभी भी रोमन कै थँलिक –प्रा टिस्टैंट के रिस्तों की तरह कटु तथा हिंसक नही रहे। आमतौर पर हिंदू राजाओं के गैर हिंदू प्रशासनिक अधिकारी तथा गैर हिंदू राजाओं के हिंदू सलाहकार व सेनापति होते थे। पुजारी का प्रभाव केवल राजा की तथा जनता निजी धार्मिक जिंदगी तक सीमित था। राज्य की समितियों में पुजारी का दखल केवल तीज त्यौहारों तक सीमित होता था। हर शासक का नैतिक आचरण पर अवश्य धार्मिक मूल्यों के अनुसार होता था। मध्य काल के भारत के राजनीतिक इतिहास में उस प्रकार की अशांति और असुरक्षा कभी नही रही जिस प्रकार रोमन साम्राज्य के उत्थान व पतन के समय दिखी, या इग्लेंन्ड के वेल्स, आइरिस, व स्काट की लड़ाइयों में, या इग्लेंन्ड और फ्रांस के बीच सौ साल के युद्ध में , या इटली के गणराज्यों के मध्य हुए संघर्ष में,या इग्लेंन्ड के गृह युद्ध में, व अन्य यूरोपी देशों में हुए युद्धों में दिखी।
समाज में सारी अच्छाई का स्त्रोत नीति शास्त्र को माना गया जिस प्रकार शरीर को हृष्ट पुष्ट रखने के लिए पौष्टक आहार आवश्यक होता है उसी प्रकार व्यक्ति एवं राज्य के जीवन में स्थायित्व लाने के लिए नीति शास्त्र के सिद्धांतों का अनुकरण आवश्यक था।हिंदू राजाओं के लिए नीति शास्त्र के सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक था। नीतिशास्त्र के सिद्धांतों का अनुकरण करके ही राजा प्रजा दोनों के ही हितों का संरक्षण व संवर्धन होसकता है ऐसी मान्यता थी। चूंकि राजा पर अपनी प्रजा के हितों के संरक्षण संबर्धन की जिम्मेदारी थी इसलिए राजा के लिए नीति शास्त्र के सिद्धांतों का प्रशिक्षण आविश्यक था।
16वी सदी में अब्दुल फजल ने आइने अकबरी में हिंदू नियमों कानूनों का संक्षिप्त विवरण पारसी भाषा में छापा। अब्दुल फजल अकबर के मंत्री थे. अब्दुल फजल ने लिखा कि बुद्धिमान राजा अपने दरबार से भ्रष्ट व षडयंत्रकारियों का सफाया कर देगा।अपने इस महत्वपूर्ण ग्रंथ में अब्दुल फजल ने राजा की तुलना माली से की गई है। जैसे माली बगीचे से खरपतवार उखाड़ कर एक ओर कर देता है और बगीचे को सुंदर बना देता है। साथ ही बगीचे की रखवाली के लिए बाड़ भी चारों ओर उगाता है। ताकि कोई बाहरी तत्व बगीचे में नहीं घुस सके। उसी प्रकार राजा अपने राज्य व प्रजा की देखभाल करता है। अपने प्रशासकों व प्रजा के बीच द्वंद होने पर राजा को प्रजा के साथ खड़ा होना होता था। शुक्र के नीतिशास्त्र के अनुसार राजा को भ्रष्ट लोगों, चोरों उचक्कों,बतमाशों, व अन्य प्रकार की नकारात्मक प्रवृति के लोगों को राज्य का संरक्षण नही देना चाहिये। संक्षेप में बिनौय कुमार सरकार का मानना है कि धार्मिक उन्माद फैला कर समाज में हिंस फैलाना न हिंदू धर्म दर्शन का हैं और न ही कई धर्मों का गुलदस्ता भारतीय धर्म दर्शन का।

बुधवार, 3 सितंबर 2008

धर्म पर अधर्म की विजय का दिवस

शनिवार (30 अगस्त 2008)) देर रात या यों कहे रविवार के तड़के श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति और जम्मू काश्मीर सरकार के बीच समझौता हो जाने का समाचार सोमवार 1सितम्बर के समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपा। जम्मू काश्मीर सरकार ने श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति को काश्मीर में 40 हेक्टेयर जमीन के यात्रियों के लिए अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत मिल गई। श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति के संयोजक लीलाकरण शर्मा ने कहा कि “यह ऐतिहासिक और हमारे लिए विजय का दिन है।”विजय किसकी किस पर ? समझ में नही आया। काश्मीर के कट्टरपंथी इसका विरोध कर रहे हैं। तो क्य़ा जम्मू के कट्टरपंथी इसको काश्मीर के कट्टरपंथियों पर अपनी जीत मान रहे थे? इस मायने में यह जीत तो काफी संकीण हुई। धर्म की तो नही ही हुई है।64 दिन के इस आंदोलन से जम्मू काश्मीर अर्थव्यवस्था को, वहां की शिक्षा व्यवस्था को, वहां के सामाजिक ताने बाने को, राज्य के विभिन्न हिस्सों के आपसी रिस्तों पर जो गहरी चोट पहुचाई है उसके एवज में सौ एकड़ जमीन के यात्रियों के लिए अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत से किसकी जीत हुई है—अहंकार और अभिमान की? धर्म अहंकार, अभिमान को जीतने का रास्ता दिखाता है । धर्म अहंकार और अभिमान के मद में मस्त होकर दूसरों को नीचा दिखाने,दुखी करने, दीन हीनों को और परेशान करने की इजाजत कभी नही देता। धर्म कभी भी इतना संकीर्ण नही होता है कि 40 हेक्टेयर जमीन के अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत पाने के लिए एक पूरे प्रांत के जन जीवन को 64 दिन तक अराजकता की आग में झौंक दे। धर्म किसी की भावनाओं को आहत नही करता। जब कि यह आंदोलन तो एक ही प्रांत के दो हिस्सों के राजनीतिक संगठनों का वोटों के लिए धर्म के नाम पर लोगों की भावना भड़का कर, हिंसा, आगजनी के बल पर अपनी बात मनवाने की कवायत भर थी।इस कवायत में सभी संगठनों ने अर्ध सत्य व झूठ का सहारा लिया। यह तो अधर्म के लिए धर्म का इस्तेमाल था।
64 दिन के इस आंदोलन में भोले का नाम खूब उछाला गया। उस भोले के नाम पर सारी हिंसा हुई जो इस देश के लोगों के कल्याण के लिए स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरती गंगा के वेग को अपनी जटाओं में संभाल लेता है। ताकि पृथ्वी पर गंगा के तेज पर पृथ्वी की तथा उस पर रह रहे प्राणियों की कोई हानि न हो । उस भोले शंकर के नाम पर सारा विष उगला गया जिसने समुद्र मंथन में मिले विष का पान इसलिए किया था ताकि देवता अमृत पान कर सकें। ऐसे भोले बाबा जाति, धर्म , वर्ण,लिंग के संकुचित खानों में कब सिमटे ? दुर्भाग्य से अपने निहित निजी स्वार्थों के लिए देवी देवताओं का गलत इस्तेमाल करने वालों को भगवान के पालनहार चरित्र को कलुषित करने में कभी संकोच नही हुआ।
आज से दो दशक पहले मर्यादा पुरषोतम राम के नाम पर जो अ-मर्यादा का प्रदर्शन किया गया उससे तो स्वंय राम भी शर्मिंदा हुए होंगे। प्रजा की भावनाओं का आदर करने के लिए जिस राम ने अपनी गर्भवती पत्नी को वनवास दिया, स्वंय विरह की अग्नि में जलते रहे, लेकिन लांछन लगाने वाले इंसान को सजा नही दी। उस करुणानिधान राम का मंदिर बनाने के नाम पर राम रथ विभिन्न राज्यों में घुमाया गया। अपने भाषणों में तथाकथित राम भक्तों ने जो जहर उगला उससे से इस देश का धर्म निरपेक्ष ताना बाना बूरी तरह चरमराया। आगे आगे राम रथ जाता पीछे पीछे सांप्रदायिक हिंसा में निहत्थे गरीब उजाड़े व मारे जाते। करोड़ों ,अरबों की संपत्ति के नष्ट किया जाता। इसकी परिणिति तत्पश्चात केन्द्र व राज्यों में हुए चुनावों में जीती सीटों की संख्या में इजाफा थी।अब तो सांप्रदायिकता का खुन मुह में लग गया था। बाबरी मस्जिद डहाने के लिए पूरे देश में फिर सांप्रदायिक उंमाद फैलाया गया। पूरे देश में एक बार फिर हिंसा का तांडव हुआ। यह सब बाबरी मस्जिद तोड़ कर वहां पर राम मंदिर बनाने के नाम पर किया गया। बाबरी मस्जिद तोड़ दी गई। राम की वह मूर्ति जो मंदिर के अंदर स्थापित थी अब खुले आकाश के नीचे आगई। मूर्ति की पूजा अर्चना सुलभ बनाने के लिए वहां पर अस्थाई ढ़ाचा बनाया गया। इस प्रकार इन तथाकथित राम भक्तों की सत्ता की भूख मिटाने के लिए राम को पक्का आसरा छोड़ कर अस्थाई ढ़ाचे में रहना पड़ रहा है। जिस दिन बाबरी मस्जिद ढ़हाई गई उस दिन को शौर्य दिवस मनाने की घोषणा भी तथाकथित राम भक्तों ने की।(अब भोले भक्तों ने विजय दिवस मनाने की घोषणा की है।) लेकिन जब लिब्राहन आयोग ने इन शूर वीरों को अपना पक्ष रखने बुलाया तो ये बगलें झाकने लगे। अपने अपने को बचाने के प्रयास में फिर अ-सत्य व अर्ध सत्य का सहारा लेने लगे। राम मंदिर के आंदोलन के शीर्ष में रहे एक शूर वीर तो बाबरी मस्जिद विध्वंस पर खेद प्रकट करने से भी स्वंय को नही रोक पाए। ऐसी रीत उन तथाकथित राम भक्तों की है जिन रघुपति(की) रीत सदा चलि आई, प्राण जाय पर वचन न जाई। जो पिता के दिए वचन को निभाने के लिए राज पाट त्याग कर 14 साल वनवास पर रहे।
बाबरी मस्जिद ढ़हाने के बाद बम विस्पोटों का जो सिलसिला चला है वह थमने के बजाय दिन पर दिन बढ़ ही रहा है। (अब अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद से भी उसको जोड़ा जारहा है।) दोनों समुदायों के कट्टरपंथियों के हाथ निरपराध लोगों के खून से रंगे होने के सबूत मीडीया में आते ही रहते हैं। सत्ताशीन दल को भी सत्ता हासिल करने के लिए वोटों की आवश्यकता होती है। अतः वह भी कट्टरपंथियों के जहर उगलने की क्षमता से लोहा लेना नही चाहते। आखिर सत्ता सुख अपने कर्तब्य निर्वाह से अधिक आकर्षक होता है।
तथाकथित राम भक्तों की वर्षों की मेहनत आखिर रंग लाई। इन राम भक्तों को जोड़ तोड़ कर सत्ता मिल भी गई। इस जोड़ तोड़ मे बेचारों को राम को ही भुलाना पड़ा। छः साल के अपने शासन में वे राम मंदिर बनाने का मसला किसी न किसी बहाने टालते रहे। हां विष वमन कर बाबरी मस्जिद ढ़हाने में अहम् भूमिका निभाने वाले संतों और साध्वियों को कौडि़यों के मोल सरकारी जमीन आश्रम बनाने के लिए मिल गई। अब राम अस्थाई ढ़ाचे में पुलिस पहरे में रह रहे हैं । तथाकथित राम भक्त आधुनिक सुविधाओं से लैस अपने आश्रमों में सुख से धर्म की विवेचना करने में व्यस्त हैं। इन आश्रमों के संचालन के लिए भी धन चाहिये । धर्म चर्चा से ही भक्तों से वह धन लिया जासकता है।सेक्षेप में तथाकथित राम भक्तों के सत्ता के मोह ने राम को तो सड़क पर ला ही दिया। इसके साथ साथ भारत के इतिहास को, हिंदुओं , हिंदु धर्म के इतिहास को जो कलुषित किया है उसका कभी कोई पश्चाताप करेगा। क्या कभी कोई धर्मभीरु इन तथाकथित राम भक्तों को समझाएगा कि धर्म की राजनीति करना धर्म का कुर्सी पाने के लिए दुरुपयोग करना नही है। धर्म की राजनीति क्या है इसका महात्मा गांधी जी ने विस्तृत विष्लेषण किया है।
छः वर्षों बाद सत्ता सुख भी जाता रहा। पांच साल के सत्ता से वनवास का दुख झेला है।अब फिर मौका है। चुनाव आने वाले हैं।सत्ता पाने के साथ साथ प्रधान मेत्री की कुर्सी भी दाव पर है। राम के नाम पर लोग अब घास नही डाल रहे हैं। सत्ता में बैठे सत्ता भक्तों ने बैठे बैठे भोले बाबा के यात्रियों की सुविधाओं का मसला सत्ता बाहर इंतजार कर रहे तथाकथित राम भक्तों को पकड़ा दिया। इसी का तो उन्हें इंतजार था। अब क्या करना है उन्हें मालूम है। उसका पुराना अनुभव है। इस प्रकार धर्म का दुरुपयोग करने वालों को कभी भी न तो धार्मिक सिद्धांतों से कोई मतलब रहा है।न ही धर्म के लोकहितकारी इतिहास के संरक्षण की जिम्मेदारी का इनको एहसास है।

राम मंदिर आंदोलन चलाने वालों की तरह श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति व अंय आंदोलनकारी भूल ही गए कि मृगछाला पहने कैलाश वासी भोले शंकर को विधर्मियों से अधिक खतरा तो इस देश के करोड़ों भूखे नंगे लोगों के परिश्रम से अर्जित धन संपदा से अघाए आधुनिक सुख सुवुधाओं से लैस अपने भक्तों से होरहा है। पुराने जमाने में तीर्थ यात्रा का अर्थ अनगिनत शारीरिक कष्ट उठाकर, जान जोखिम में डालकर,बद्रीनाथ अमरनाथ जैसे दुर्गम स्थानों की यात्रा पैदल करनी होती थी। तीर्थयात्रियों को जीवित वापस घर लौटने का भरोसा भी नही होता था। इसलिए तीर्थ पर जाने से पहले सभी इष्ट मित्रों से मिलकर जाते थे।तीर्थयात्रियों की संख्या कम होती थी। शुचिता में उनकी रुचि अधिक होती थी। आज तो तीर्थयात्रा पर्यटन का हिस्सा हो गई है। तीर्थ यात्रियों की रुचि तीर्थ यात्रा, व उपवास में भी उपभोग में ही अधिक रहती है। अमरनाथ व बद्रीनाथ जैसे दुर्गम तीर्थ स्थानों पर भी हर प्रकार की सुख सुविधाएं उपलब्ध है। आज तीर्थ यात्रा के लिए शारीरिक कष्ट उठाने की इच्छाशक्ति या क्षमता की आवश्यकता नही है। आवश्यकता है तो केवल धन की। उसकी मध्यवर्ग के पास कोई कमी नही है। धन के बल पर हैलीकाप्टर से अमरनाथ जाया जासकता है। यदि इतना धन नही है तो भी घोड़े पर या स्थानीय मजदूर की पीठ पर चढ़ कर तो जाया जासकता है। तीर्थ यात्रियों की यह आरामपरस्ती भोले के निवास पर किस प्रकार का कहर ढ़ा रही है। काश इसकी चिंता भी भोले भक्त करते। पता नही भोले शंकर को भक्तों की यह आरामपरस्ती रास आती है या नही। सुना तो यही है कि वह कठोर तप करने वाले को मुह मांगा वरदान दे देते थे। तप करने वाला रावण या भष्मासुर ही क्यों न हो। भोले बाबा तो भोले बाबा हैं उनको इससे क्या लेना देना।
भोले शंकर तो भोले हैं।शायद भक्तों की इन नादानियों को नजरअंदाज कर दें। पर क्या 40 हेक्टेयर जमीन के लिए इतनी कुर्बानियां देने वाले भक्तों को नही सोचना चाहिये कि उनकी भक्ति से भोले का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है।शायद पिछले साल की ही बात है जब पवित्र अमरनाथ गुफा में शिवलिंग के नकली होने पर विवाद हुआ था। जांच समिति भी बैठी थी। तभी अमरनाथ के वातावरण के गरमाने की बात भी सामने आई थी। हैलीकाप्टरों से आने वाले यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी तथा आम यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी गुफा का तापमान बढ़ जाने का कारण बताया गया। इसी की वजह से लिंग समय से पहले ही पिघल गया। इसी संदर्भ में बताया गया कि उसी साल वहां पर आशाराम बापू ने राम कथा की थी । उनके अनुयाई कथा स्थल तक हैलीकाप्टरों से ही गए। अनुयाइयों की इस प्रकार की लापरवाही से भोले शंकर का निवास स्थान अपना नैसर्गिक चरित्र खो रहा है इसकी चिंता किसी समिति ने नही व्यक्त की । न ही तीर्थयात्रा को स्थानीय परिस्थितों(पर्यावरण) के अनुरूप योजनाबद्ध कराने की किसी नीति का समाचार पढ़ने को नही मिला। हां लद्दाख के पर्यावरण पर चर्चा में एक टी.वी. चैनल ने अवश्य बताया कि हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।शायद 2015 तक पूरी तरह पिघल जाने की संभावना जताई। इनके पिघल जाने के बाद क्या भोले शंकर कैलाश में वास कर पाऐंगे। आज भोले भक्तों की मुख्य चिंता कैलाश का पर्यावरण बचाने की होनी चाहिये थी। गुणी भक्तों को सुझाना चाहिये था कि वैज्ञानिक अध्ययनों से हिमालय में बने तीर्थ स्थलों के पर्यावरण की क्षमता का अध्ययन कर वहां प्रति वर्ष जाने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या सुनिश्चित की जानी चाहिये। कैलाश मानसरोवर के यात्रियों की तरह इनकी सूची बननी चाहिये। यात्रा पर रवाना होने से पहले यात्रियों को हिमालय को कूड़ाघर बनने से बचाने के उपायों की उचित जानकारी और निर्देश भी दिये जाने चाहिये।