बुधवार, 17 सितंबर 2008
पतिव्रता की मजबूरी
अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने कांग्रेस के पास भेजे गए 123 के नीतिगत दस्तावेज में कहा कि करार में भारत को ईधन आपूर्ति का आश्वासन एक राजनीतिक वादा है और इसे कानूनी बाध्यकारी वादे में तब्दील नही किया जासकता। बुश का बयान आते ही भारत सरकार सफाई देने में या कहिये लीपा पोती में लग गई।कानूनी मामलों में कानूनविद ही ज्यादा अच्छी तरह समझा सकते हैं। अतः कपिल सिब्बल आगे आये उन्होंने फरमाया कि अमेरिका ने राजनीतिक वादा किया है कि परमाणु ईधन की आपूर्ति में रुकावट आने की स्थिति में वह परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के अन्य सदस्यों से मदद मांगेगा। कपिल सिब्बल ने सफाई दी कि बुश ने यह नही कहा कि वे इस राजनीतिक वादे का सम्मान नही करेंगे।सिब्बल का मानना है कि कानूनी बाध्यता एक अलग सवाल है। (जनसत्ता,13,09) भारत अमेरिका के संबंधों को समानता के तथा आपसी हितों के संरक्षण व संबर्धन के पटल पर स्थापित करने के आधार तो कानूनी प्रावधान ही होंगे। इसीलिए अमेरिकी सरकार ने हाइड कानून पास किया और इस संधि को हाइड कानून तथा 123 के तहत ही कांग्रेस से पास करवा रहा है। सरकारें तो शायद कानूनी बाध्यताओं के आधार पर ही चलती हैं राजनीतिक वायदों के आधार पर नहीं। क्योंकि राजनीतिक वादा तो वुश ने किया है। बुश की कुर्सी गई तो वादा भी गया। यदि कुर्सी रहते भी बुश वादे को भूल जाते हैं तो भारत क्या कर सकता है। यदि राजनीतिक वादे में कोई बाध्यता होती तो बुश को यह सफाई देने की क्या आवश्यकता थी कि कोई कानूनी बाध्यता नही है। इस संदर्भ में इतिहास से यह उद्धरण भी प्रासंगिक है। प्रथम विश्व युद्ध के समय में अपनी आजादी की अलख जगाए देशों का समर्थन पाने के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विलसन ने वादा किया कि युद्ध के बाद गुलाम देशों को स्वनिर्णय का अधिकार दिया जायगा।इसी उमीद में गांधी जी ने भारत में अंग्रेजी सेना में सैनिकों की भर्ती का अभियान चलाया। लेकिन बाद में जब अमेरिकी कांग्रेस ने वर्साय संधि पर मुहर लगाने से इंकार कर दिया तो वुडरो विलसन के सारे वादे धरे के धरे रह गये। किसी ने उन पर मुकरदमा भी नही चलाया। अपने देश में दुर्भाग्य से बुश की कांग्रेस को सफाई के बाद यह राजनीतिक बनाम् कानूनी बाध्यता चिंता का विषय नही बनी। चिंता का विषय बना तो सरकार पर इस संधि का विरोध करने वाले वाम पंथियों के हाथ सरकार पर प्रहार करने के लिए आया यह नया हथियार। अमेरिका से संबंध बनाए रखने के लिए इस हथियार को भोथरा करना आवश्यक था।आज अधिकतर तथाकथित जागरूक भारतीय, मीडिया सभी अमेरिका के अनुकरण में ही देश का हित देख रहे हैं। सरकार और उसके समर्थक राजनीतिक दलों को तो इसी प्रकार के जनमानस की दरकार है।इसीलिए 11 सितंबर को अपने रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने वाशिंगटन में अमेरिकी हथियार कंपनियों को भरोसा दिलाया कि उनको देश में व्यापार करने का बराबरी का मौका दिया जायगा। भारतीय समुदाय के समारोह में मंत्री महोदय ने वियना में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से मिली छूट के लिए भी बुश प्रशासन का आभार जताया। लेकिन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में आने वाली दिक्कतों को ठंडे बस्ते में ही बंद रखना रक्षा मंत्री ने सुविधाजनक समझा।(जनसत्ता 12,9,) उल्लेखनीय है कि वाशिंगटन पोस्ट ने अपने संपादकीय Yes for an Answer में लिखा है कि भारत अमेरिका परमाणु संधि अमेरिका के हित में है। इससे अमेरिकी परमाणु उद्दोगों को बाजार मिलेगा। पोस्ट ने चिंता व्यक्त की कि यदि कांग्रेस इस विधेयक को पास नही करेगी तो बाजार का यह लाभ फ्रांसीसी कंपनियां ले लेंगी।(पी.टी.आई. 12,09,08) 13 सितंबर को संधि के विरोधी से समर्थक बने, मनमोहन सरकार के संजीवनी बने अमर सिंह ने फरमाया कि भारत अमेरिका असैन्य समझौते के बाद भारत जब उपकरणों का आर्डर देगा तो अमेरिका कंपनियों को घाटे नहीं रखा जाएगा।(जनसत्ता 14 सितंबर)स्मरणीय है कि इस प्रकार का बेवाक शर्त विहीन आश्वासन ये मंत्री व जन नेता अपने लोगों को नही देते। किसान 10 पंद्रह हजार का कर्ज नही चुका पाने के कारण देश के हर राज्य में आत्महत्या कर रहे हैं। पर है कोई माई का लाल नेता जो यह कह दे कि बहुत हो चुका अब भारत का किसान आत्महत्या नहीं करेगा। हमारे संवेदनशील प्रधान मंत्री भी पैकेज की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। दलितों, आदिवासियों, गरीब गुरबों के बीच जाकर, उनकी रोटी पानी का सेवन करने की हिम्मत करने वाले, उनकी झुग्गियों में रात विता कर भारत के हासिये में रह रहे इंसान की मुश्किलों को समझने की कोशिश कर रहे भारत के युवा नेता राहुल गांधी भी आम भारतीय की हालत नही सुधरने का सारा दोष राज्य सरकारों पर मढ़ देते हैं। काग्रेस शासित राज्यों में भी हालात बेहतर नही हैं यह तथ्य उनकी जवान नही लड़खड़ाता। यही बात आतंकवादी हमलों या बाढ़ पीड़ितो को राहत पहुचाने के संदर्भ में कही जासकती है। इस प्रकार भारतीय नेताओं की भारतवासियों के लिए प्रतिबद्धता व अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्धता में साफ फर्क नजर आता हैं।अमेरिका के लिए जब हम प्रतिबद्ध होते हैं तो बदले में अमेरिका से उसी प्रकार की प्रतिबद्धता की अपेक्षा भी नही करते।उल्टे जब कभी इस प्रकार के प्रश्न को दबाए रखना संभव नही होता तो लीपा पोती करने लगते हैं। ऐसा लगता है कि अमेरिका के एक खास प्रकार के संबंध बनाए रखने की हमारी मजबूरी एक पतिव्रता स्त्री की मजबूरी की भांति है।भारतीय पतिव्रता नारी भी अपने पति के हर अवगुण और वादखिलाफी को नजरअंदाज कर उसको परमेश्वर मानकर उसकी सेवा में लगी रहने में ही अपना सौभाग्य समझती रही है।आधुनिक भारत में राजा राम मोहन राय के समय से ही संपूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय नेता व समाज सुधारक पतिव्रता स्त्री को पतिव्रत के इस गैर बराबरी तथा दोहरे मापदंड़ों की गुलामी से आजाद करने की कोशिश करते रहे। आज दुर्भाग्य से पूरे देश को ही अमेरिका के संदर्भ में इस प्रकार की गैर बराबरी के, आर्थिक गुलामी के रिस्तों में धकेला जारहा है। यह सब महान त्यागी कर रहे हैं। जाने माने अर्थशास्त्री कर रहे है और राष्ट्र हित के नाम पर होरहा है।
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