शनिवार (30 अगस्त 2008)) देर रात या यों कहे रविवार के तड़के श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति और जम्मू काश्मीर सरकार के बीच समझौता हो जाने का समाचार सोमवार 1सितम्बर के समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपा। जम्मू काश्मीर सरकार ने श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति को काश्मीर में 40 हेक्टेयर जमीन के यात्रियों के लिए अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत मिल गई। श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति के संयोजक लीलाकरण शर्मा ने कहा कि “यह ऐतिहासिक और हमारे लिए विजय का दिन है।”विजय किसकी किस पर ? समझ में नही आया। काश्मीर के कट्टरपंथी इसका विरोध कर रहे हैं। तो क्य़ा जम्मू के कट्टरपंथी इसको काश्मीर के कट्टरपंथियों पर अपनी जीत मान रहे थे? इस मायने में यह जीत तो काफी संकीण हुई। धर्म की तो नही ही हुई है।64 दिन के इस आंदोलन से जम्मू काश्मीर अर्थव्यवस्था को, वहां की शिक्षा व्यवस्था को, वहां के सामाजिक ताने बाने को, राज्य के विभिन्न हिस्सों के आपसी रिस्तों पर जो गहरी चोट पहुचाई है उसके एवज में सौ एकड़ जमीन के यात्रियों के लिए अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत से किसकी जीत हुई है—अहंकार और अभिमान की? धर्म अहंकार, अभिमान को जीतने का रास्ता दिखाता है । धर्म अहंकार और अभिमान के मद में मस्त होकर दूसरों को नीचा दिखाने,दुखी करने, दीन हीनों को और परेशान करने की इजाजत कभी नही देता। धर्म कभी भी इतना संकीर्ण नही होता है कि 40 हेक्टेयर जमीन के अस्थाई इस्तेमाल की इजाजत पाने के लिए एक पूरे प्रांत के जन जीवन को 64 दिन तक अराजकता की आग में झौंक दे। धर्म किसी की भावनाओं को आहत नही करता। जब कि यह आंदोलन तो एक ही प्रांत के दो हिस्सों के राजनीतिक संगठनों का वोटों के लिए धर्म के नाम पर लोगों की भावना भड़का कर, हिंसा, आगजनी के बल पर अपनी बात मनवाने की कवायत भर थी।इस कवायत में सभी संगठनों ने अर्ध सत्य व झूठ का सहारा लिया। यह तो अधर्म के लिए धर्म का इस्तेमाल था।
64 दिन के इस आंदोलन में भोले का नाम खूब उछाला गया। उस भोले के नाम पर सारी हिंसा हुई जो इस देश के लोगों के कल्याण के लिए स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरती गंगा के वेग को अपनी जटाओं में संभाल लेता है। ताकि पृथ्वी पर गंगा के तेज पर पृथ्वी की तथा उस पर रह रहे प्राणियों की कोई हानि न हो । उस भोले शंकर के नाम पर सारा विष उगला गया जिसने समुद्र मंथन में मिले विष का पान इसलिए किया था ताकि देवता अमृत पान कर सकें। ऐसे भोले बाबा जाति, धर्म , वर्ण,लिंग के संकुचित खानों में कब सिमटे ? दुर्भाग्य से अपने निहित निजी स्वार्थों के लिए देवी देवताओं का गलत इस्तेमाल करने वालों को भगवान के पालनहार चरित्र को कलुषित करने में कभी संकोच नही हुआ।
आज से दो दशक पहले मर्यादा पुरषोतम राम के नाम पर जो अ-मर्यादा का प्रदर्शन किया गया उससे तो स्वंय राम भी शर्मिंदा हुए होंगे। प्रजा की भावनाओं का आदर करने के लिए जिस राम ने अपनी गर्भवती पत्नी को वनवास दिया, स्वंय विरह की अग्नि में जलते रहे, लेकिन लांछन लगाने वाले इंसान को सजा नही दी। उस करुणानिधान राम का मंदिर बनाने के नाम पर राम रथ विभिन्न राज्यों में घुमाया गया। अपने भाषणों में तथाकथित राम भक्तों ने जो जहर उगला उससे से इस देश का धर्म निरपेक्ष ताना बाना बूरी तरह चरमराया। आगे आगे राम रथ जाता पीछे पीछे सांप्रदायिक हिंसा में निहत्थे गरीब उजाड़े व मारे जाते। करोड़ों ,अरबों की संपत्ति के नष्ट किया जाता। इसकी परिणिति तत्पश्चात केन्द्र व राज्यों में हुए चुनावों में जीती सीटों की संख्या में इजाफा थी।अब तो सांप्रदायिकता का खुन मुह में लग गया था। बाबरी मस्जिद डहाने के लिए पूरे देश में फिर सांप्रदायिक उंमाद फैलाया गया। पूरे देश में एक बार फिर हिंसा का तांडव हुआ। यह सब बाबरी मस्जिद तोड़ कर वहां पर राम मंदिर बनाने के नाम पर किया गया। बाबरी मस्जिद तोड़ दी गई। राम की वह मूर्ति जो मंदिर के अंदर स्थापित थी अब खुले आकाश के नीचे आगई। मूर्ति की पूजा अर्चना सुलभ बनाने के लिए वहां पर अस्थाई ढ़ाचा बनाया गया। इस प्रकार इन तथाकथित राम भक्तों की सत्ता की भूख मिटाने के लिए राम को पक्का आसरा छोड़ कर अस्थाई ढ़ाचे में रहना पड़ रहा है। जिस दिन बाबरी मस्जिद ढ़हाई गई उस दिन को शौर्य दिवस मनाने की घोषणा भी तथाकथित राम भक्तों ने की।(अब भोले भक्तों ने विजय दिवस मनाने की घोषणा की है।) लेकिन जब लिब्राहन आयोग ने इन शूर वीरों को अपना पक्ष रखने बुलाया तो ये बगलें झाकने लगे। अपने अपने को बचाने के प्रयास में फिर अ-सत्य व अर्ध सत्य का सहारा लेने लगे। राम मंदिर के आंदोलन के शीर्ष में रहे एक शूर वीर तो बाबरी मस्जिद विध्वंस पर खेद प्रकट करने से भी स्वंय को नही रोक पाए। ऐसी रीत उन तथाकथित राम भक्तों की है जिन रघुपति(की) रीत सदा चलि आई, प्राण जाय पर वचन न जाई। जो पिता के दिए वचन को निभाने के लिए राज पाट त्याग कर 14 साल वनवास पर रहे।
बाबरी मस्जिद ढ़हाने के बाद बम विस्पोटों का जो सिलसिला चला है वह थमने के बजाय दिन पर दिन बढ़ ही रहा है। (अब अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद से भी उसको जोड़ा जारहा है।) दोनों समुदायों के कट्टरपंथियों के हाथ निरपराध लोगों के खून से रंगे होने के सबूत मीडीया में आते ही रहते हैं। सत्ताशीन दल को भी सत्ता हासिल करने के लिए वोटों की आवश्यकता होती है। अतः वह भी कट्टरपंथियों के जहर उगलने की क्षमता से लोहा लेना नही चाहते। आखिर सत्ता सुख अपने कर्तब्य निर्वाह से अधिक आकर्षक होता है।
तथाकथित राम भक्तों की वर्षों की मेहनत आखिर रंग लाई। इन राम भक्तों को जोड़ तोड़ कर सत्ता मिल भी गई। इस जोड़ तोड़ मे बेचारों को राम को ही भुलाना पड़ा। छः साल के अपने शासन में वे राम मंदिर बनाने का मसला किसी न किसी बहाने टालते रहे। हां विष वमन कर बाबरी मस्जिद ढ़हाने में अहम् भूमिका निभाने वाले संतों और साध्वियों को कौडि़यों के मोल सरकारी जमीन आश्रम बनाने के लिए मिल गई। अब राम अस्थाई ढ़ाचे में पुलिस पहरे में रह रहे हैं । तथाकथित राम भक्त आधुनिक सुविधाओं से लैस अपने आश्रमों में सुख से धर्म की विवेचना करने में व्यस्त हैं। इन आश्रमों के संचालन के लिए भी धन चाहिये । धर्म चर्चा से ही भक्तों से वह धन लिया जासकता है।सेक्षेप में तथाकथित राम भक्तों के सत्ता के मोह ने राम को तो सड़क पर ला ही दिया। इसके साथ साथ भारत के इतिहास को, हिंदुओं , हिंदु धर्म के इतिहास को जो कलुषित किया है उसका कभी कोई पश्चाताप करेगा। क्या कभी कोई धर्मभीरु इन तथाकथित राम भक्तों को समझाएगा कि धर्म की राजनीति करना धर्म का कुर्सी पाने के लिए दुरुपयोग करना नही है। धर्म की राजनीति क्या है इसका महात्मा गांधी जी ने विस्तृत विष्लेषण किया है।
छः वर्षों बाद सत्ता सुख भी जाता रहा। पांच साल के सत्ता से वनवास का दुख झेला है।अब फिर मौका है। चुनाव आने वाले हैं।सत्ता पाने के साथ साथ प्रधान मेत्री की कुर्सी भी दाव पर है। राम के नाम पर लोग अब घास नही डाल रहे हैं। सत्ता में बैठे सत्ता भक्तों ने बैठे बैठे भोले बाबा के यात्रियों की सुविधाओं का मसला सत्ता बाहर इंतजार कर रहे तथाकथित राम भक्तों को पकड़ा दिया। इसी का तो उन्हें इंतजार था। अब क्या करना है उन्हें मालूम है। उसका पुराना अनुभव है। इस प्रकार धर्म का दुरुपयोग करने वालों को कभी भी न तो धार्मिक सिद्धांतों से कोई मतलब रहा है।न ही धर्म के लोकहितकारी इतिहास के संरक्षण की जिम्मेदारी का इनको एहसास है।
राम मंदिर आंदोलन चलाने वालों की तरह श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति व अंय आंदोलनकारी भूल ही गए कि मृगछाला पहने कैलाश वासी भोले शंकर को विधर्मियों से अधिक खतरा तो इस देश के करोड़ों भूखे नंगे लोगों के परिश्रम से अर्जित धन संपदा से अघाए आधुनिक सुख सुवुधाओं से लैस अपने भक्तों से होरहा है। पुराने जमाने में तीर्थ यात्रा का अर्थ अनगिनत शारीरिक कष्ट उठाकर, जान जोखिम में डालकर,बद्रीनाथ अमरनाथ जैसे दुर्गम स्थानों की यात्रा पैदल करनी होती थी। तीर्थयात्रियों को जीवित वापस घर लौटने का भरोसा भी नही होता था। इसलिए तीर्थ पर जाने से पहले सभी इष्ट मित्रों से मिलकर जाते थे।तीर्थयात्रियों की संख्या कम होती थी। शुचिता में उनकी रुचि अधिक होती थी। आज तो तीर्थयात्रा पर्यटन का हिस्सा हो गई है। तीर्थ यात्रियों की रुचि तीर्थ यात्रा, व उपवास में भी उपभोग में ही अधिक रहती है। अमरनाथ व बद्रीनाथ जैसे दुर्गम तीर्थ स्थानों पर भी हर प्रकार की सुख सुविधाएं उपलब्ध है। आज तीर्थ यात्रा के लिए शारीरिक कष्ट उठाने की इच्छाशक्ति या क्षमता की आवश्यकता नही है। आवश्यकता है तो केवल धन की। उसकी मध्यवर्ग के पास कोई कमी नही है। धन के बल पर हैलीकाप्टर से अमरनाथ जाया जासकता है। यदि इतना धन नही है तो भी घोड़े पर या स्थानीय मजदूर की पीठ पर चढ़ कर तो जाया जासकता है। तीर्थ यात्रियों की यह आरामपरस्ती भोले के निवास पर किस प्रकार का कहर ढ़ा रही है। काश इसकी चिंता भी भोले भक्त करते। पता नही भोले शंकर को भक्तों की यह आरामपरस्ती रास आती है या नही। सुना तो यही है कि वह कठोर तप करने वाले को मुह मांगा वरदान दे देते थे। तप करने वाला रावण या भष्मासुर ही क्यों न हो। भोले बाबा तो भोले बाबा हैं उनको इससे क्या लेना देना।
भोले शंकर तो भोले हैं।शायद भक्तों की इन नादानियों को नजरअंदाज कर दें। पर क्या 40 हेक्टेयर जमीन के लिए इतनी कुर्बानियां देने वाले भक्तों को नही सोचना चाहिये कि उनकी भक्ति से भोले का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है।शायद पिछले साल की ही बात है जब पवित्र अमरनाथ गुफा में शिवलिंग के नकली होने पर विवाद हुआ था। जांच समिति भी बैठी थी। तभी अमरनाथ के वातावरण के गरमाने की बात भी सामने आई थी। हैलीकाप्टरों से आने वाले यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी तथा आम यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी गुफा का तापमान बढ़ जाने का कारण बताया गया। इसी की वजह से लिंग समय से पहले ही पिघल गया। इसी संदर्भ में बताया गया कि उसी साल वहां पर आशाराम बापू ने राम कथा की थी । उनके अनुयाई कथा स्थल तक हैलीकाप्टरों से ही गए। अनुयाइयों की इस प्रकार की लापरवाही से भोले शंकर का निवास स्थान अपना नैसर्गिक चरित्र खो रहा है इसकी चिंता किसी समिति ने नही व्यक्त की । न ही तीर्थयात्रा को स्थानीय परिस्थितों(पर्यावरण) के अनुरूप योजनाबद्ध कराने की किसी नीति का समाचार पढ़ने को नही मिला। हां लद्दाख के पर्यावरण पर चर्चा में एक टी.वी. चैनल ने अवश्य बताया कि हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।शायद 2015 तक पूरी तरह पिघल जाने की संभावना जताई। इनके पिघल जाने के बाद क्या भोले शंकर कैलाश में वास कर पाऐंगे। आज भोले भक्तों की मुख्य चिंता कैलाश का पर्यावरण बचाने की होनी चाहिये थी। गुणी भक्तों को सुझाना चाहिये था कि वैज्ञानिक अध्ययनों से हिमालय में बने तीर्थ स्थलों के पर्यावरण की क्षमता का अध्ययन कर वहां प्रति वर्ष जाने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या सुनिश्चित की जानी चाहिये। कैलाश मानसरोवर के यात्रियों की तरह इनकी सूची बननी चाहिये। यात्रा पर रवाना होने से पहले यात्रियों को हिमालय को कूड़ाघर बनने से बचाने के उपायों की उचित जानकारी और निर्देश भी दिये जाने चाहिये।
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