सोमवार, 8 सितंबर 2008

जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तो...

जनसत्ता के 24 अगस्त के अंक में साजिद रशीद ने अजित साही की 16 अगस्त के तहलका पत्रिका में छपी रपट पर अपनी टिप्पणी खुले पत्र की शैली में लिखी। तहलका पत्रिका में छपी रपट में लेखक ने सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आँफ इंडिया ) के गिरफ्दार सदस्यों पर पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों को बेबुनियाद ठहराने की कोशिश की। साजिद रशीद ने कुछ और पहलुओं को उजागर कर यह समझाने की कोशिश की कि समस्या का दूसरा पहलू भी है। साजिद रशीद की रपट पढ़ कर लगा कि वे इस्लाम के नाम पर आम युवकों को हिंसा के मार्ग पर लेजाने वाले संगठनों की बड़ी बेवाकी से भर्तस्ना करने की कुव्वत रखते हैं। साथ ही जैसा कि उन्होंने स्वयं ही लिखा है कि हिंदू अतिवादी संगठनों के विरुद्ध गवाही देने में भी वह पीछे नही रहे हैं। उनकी आपत्तियों का अजित साही ने 7,9 के जनसत्ता में जो उत्तर दिया वह साजिद रशीद के तर्कों को अपने तत्थों से काटने नूरा कुश्ती भर थी। दुर्भाग्य से अजित साही ने साजिद रशीद की चिंता पर गौर करने का कष्ट नही किया। साजिद रशीद ने 10 अगस्त को भी सिमी पर जमात-ए-इस्लामी का बजरंग दल शीर्षक से लेख लिखा। साजिद रशीद के तीनों लेखों को पढ़ने से यह समझ में आया कि उनकी चिंता उनके समाज का भविष्य है। सिमी के गिरफ्दार नेताओं का कानून का नजर में निर्दोष होना उनके लिए इतना मायने नही रखता जितना अजित साही के लिए दिखता है।साजिद रशिद उनको बेकसूर नही मानते। फिर भी इसमें कोई शक नही है कि पुलिस आतंकी घटना के बाद अल्पसंख्यक समाज के गरीब तबके के बेकसूर लोगों को पकड़ कर उन पर जुल्म करती है। (आरुसि हत्या कांड में भी घरेलू नौकर ही पकड़े गए हैं। उनमें से एक को सबूतों के अभाव में जमानत भी मिल गई है।) ।
साजिद रशीद महत्वपूर्ण सवाल उठा रहे है। धर्म के नाम पर सिमी द्वारा फैलाई जारही जो आतंकी विचारधारा है वह नव युवकों को गुमराह कर रही है।और ये भोले भाले नवयुवक बहकावे में आकर अपना और साथ में पूरे समाज का नुकसान कर रहे हैं। अजित साही से उम्मीद थी कि वे अपने उत्तर में या तो यह सिद्ध कर दें कि सिमी एक अहिंसक संगठन है और उसकी गतिविधियों से इस्लाम व मुसलमानों का भला ही होरहा है। पर वह यह नही कहते हैं। खाली सिमी के उद्देश्य लिख देते हैं। हमें यह नही भूलना चाहिये कि आज पूरे देश में धर्म, जाति, क्षेत्र के आधार पर आम जनता का भावनाएं भड़काई जारही हैं। राजनीतिक स्वार्थों के लिए यह सब किया जारहा है। जो काम मुसलमानों के बीच सिमी कर रहा है वही काम हिंदुओं के बीच संघ परिवार कर रहा है।ओडिसा में गरीब दलित व आदिवासी धर्म के नाम पर आपस में मर कट रहे हैं। ये हिंसा कौन फैला रहा है धार्मिक संगठन। महाराष्ट्र में भाषा के नाम पर लोगों को उकसाया जारहा है। कुछ साल पहले खालिस्तान के नाम पर सिख युवकों को गुमराह किया गया। पंजाब के एक प्रोफेसर व प्रसिद्ध रंगकर्मी जो खालिस्तान आंदोलन का खुलकर विरोध कर रहे थे ने दिल्ली में एक जन सभा में कहा था कि बम फटने की हर घटना के बाद पुलिस आस पास के दस बीस गावों से नौ जवानों को उठा लेजाती थी।अपने बच्चों को छुड़ाने के लिए हर माता पिता को 10,000 रुपये घूस देनी पड़ती थी। उस समय 10,000 रुपये आज के मुकाबले बड़ी राशि हुआ करती थी। खालिस्तान आंदोलन ने पंजाब खासकर सिखों को जो नुकसान पहुचाया क्या कभी उसका आंकलन होगा। क्या कभी आंदोलन के नेता उन माताओं से माफी मांगेंगे जिन्होंने अपने बच्चों को खोया है। काश्मीर में तो खोये हुए व्यक्तियों के रिस्तेदारों ने एक संगठन ही बना लिया है। धर्म, भाषा,क्षेत्र, वर्ग संघर्ष के नाम पर जो भी हिंसक वारदातें होती हैं उनमें मरते तो बेकसूर ही हैं।छत्तीसगड़ में भी नक्सली हिंसा व सलवा जूडूम में मर तो आदिवासी ही रहे हैं। बिहार में नक्सलियों व जमींदारों की सेनाओं के बीच होने वाली हिंसक झड़पों में मरे तो दलित ही।अक्सर हिंसक आंदोलनों को चलाने वाले नेता या तो विदेश में आराम फरमाते हैं या देश में सुरक्षित ठिकानों में रहते हैं। लिट्टे के प्रभाकरन् भी गरीबों को ही मानव बम बनाते हैं। बम विस्फोटों में असंख्य बेकसूर मरते हैं। कई वेकसूरों को पुलिस पकड़ कर यातना देती है। प्रभाकरन् तो सुरक्षित ही रहते हैं। क्या आमजन को बलि का बकरा बनाने की इस साजिस का भंडाफोड़ नही होना चाहिये?संक्षेप में समाज में विष राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले नेता ही अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए फैलाते हैं उससे मरते आम बेकसूर हैं। करता कोई है भरता कोई है। साजिद रशीद इस करने वाले पर अंगुली उठा रहे है। काश अजित साही इस इशारे को समझ पाते और माकूल जबाब देते। अब समय आगया है अपने समाज के ताने बाने को बनाए रखाने के लिए हम सबको मिलकर, अपने निहित स्वार्थों के लिए इस ताने बाने को नष्ट करने वालों को रोकना चाहिये।

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