सोमवार, 17 नवंबर 2014

सजा नही जड़ से सुधार की दरकार है



सजा नही जड़ से सुधार की दरकार है
डाक्टर मुख्य मंत्री की सुशासित स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल एक बार फिर खुल गई।इससे पहले मोतियाबिंद आपरेशन के नाम पर गरीबों की आखें फोड़ दी गई।(http://zeenews.india.com/news/chhattisgarh/62-people-lost-vision-after-cataract-surgery-at-camps-minister_830388.html) फिर कैंसर का भय दिखाकर गरीब महिलाओँ के गर्भाशय गैर कानूनी तरीके से निकाल लिए गए।http://www.reuters.com/article/2012/07/18/us-india-doctors-corruption-idUSBRE86H0P520120718
  परन्तु किसी भी जिम्मेदार डाक्टर ,प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक शासक को उनकी गलती की सजा नही मिली। छत्तीसगड़ एक बार फिर समाचारों में है। सारा देश स्तब्ध है। 50 हजार शल्य चिकित्सा करने की वजह से डाक्टर मुख्य मंत्री द्वारा पुरस्कृत डा. गुप्ता ने कुछ ही घंटों में 83 गरीब दलित व आदिवासी महिलाओं के स्टरलाइजेशन आपरेशन कर दिये। जो कि सरकारी नियम कानूनों के विरुद्ध है। ऊपर से अप्रेल से बंद पड़े एक निजी अस्पताल में जहां पर शल्य चिकित्सा के लिए जरूरी सुविधाओं का पूर्ण अभाव है, में ये नसबंदी आपरेशन किये गए।(http://www.ndtv.com/article/india/chhattisgarh-sterilisation-deaths-hospital-was-shut-since-april-has-no-basic-infrastructure-620007)   इस बार सरकार ने जन दबाव में जिम्मेदार डाक्टर तथा अंय लोगों के विरुद्ध कार्यवाही कर दी है।साथ ही जांच के भी आदेश दे दिये हैं। पर इससे होगा क्या। मीडिया में जो सूचनाएँ आरही हैं उनसे पता चलता है कि आरोपी लोग ताकतवर तथा सत्ता के नजदीक हैं। भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जांच की रपट या तो समय पर आती ही नहीं है। यदि आती भी है तो उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। ऊपर से टी वी चैनल सबूत नष्ट किये जाने वाली फोटो भी दिखा रहे हैं। सबूतों के अभाव में कैसी रिपोर्ट आएगी। यह भी सोचा जा सकता है। सिविल सोसाइटी राजनीतिक प्रमुखों के इस्तीफे की मांग कर रही है। कुछ डाक्टरों तथा प्रशासकों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने से या राजनीतिकज्ञों के इस्तीफे से क्या भविष्य में इस प्रकार के हादसे नहीं होंगे। ऐसी संभावना नहीं के बराबर है।
     कारण खाली लक्षणों के इलाज से बीमारी जड़ से समाप्त नहीं हो सकती। बीमारी तो उसके कारणों के तह तक जाकर उसके निदान से ही जाएगी। अतः सबसे पहले हमें बीमारी के कारण जानने और समझने हैं। बीमारी के कारण इस घटना की रिपोर्टों में ही साफ झलकते हैं। सर्व प्रथम ये आकड़े पूरे करने की मानसिकता-- जो गरीबों के जीवन तथा स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने को डाक्टरों को मजबूर करती है। दूसरा आकड़ों के लक्ष्य को पूरा करने के लिए गरीब औरतों (जो संयोगवश दलित और आदिवासी भी होती हैं।) को ही चुना जाना है। क्या इससे औपनिवेशिकता तथा सदियों से चले जातीय विद्वेश के बू नही आती। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि 1897 में अंग्रेजी सरकार ने प्लेग की रोकथाम के नाम पर भारतीय महिलाओं की जबरन जांच तथा बचाव के अंय कार्यक्रम शुरु किये। इस प्रक्रिया में  भी नारी की अस्मिता का ध्यान नहीं रखा गया। तब पंडिता रमाबाई ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई, व तत्कालीन सरकार के साथ साथ चर्च की नाराजगी भी मोल ली। इसके परिणामस्वरुप, बिट्रिश संसद में इस विषय पर सवाल जवाब हुए। आज जिस तरह से औरतों को पकड़ कर (यह आलग बात है कि इसे काउंसिलिंग का नाम दिया जाता है) नस बंदी की जाती है या बच्चादानी ही निकाल ली जाती है उससे हमारी शासनिक और प्रशासनिक व्यवस्था को चलाने वालों की औपनिवेशिक मानसिकता के साथ साथ डाक्टरों की अपनी नैतिक जिम्मेदारी जो शपथ के रूप में उनको दी जाती है के प्रति उदासीन होना भी दर्शाता है। साथ ही वह जातिवादी मानसिकता भी झलकती है जिसके तहत समाज की कुछ जातियों को गावों, कस्बों में गंदगी के बीच रहने मजबूर किया जाता रहा है।(गंदगी में रहने वालों इन गरीबों को अस्वास्थ्यकर परिवेष तथा औजारों से कुछ नहीं होता वाली मानसिकता) पूरे समाज में व्याप्त है।
 यह भी सोचने की बात है कि क्यों पिछले 6 महिने से बंद पड़े निजी अस्पताल में ये आपरेशन किये गए। यदि हर तालुक, हर जिले में आधुनिक सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पताल होते तो एक वीरान अस्पताल में क्यों ये आपरेशन होते। तवलीन सिंह जनसत्ता में छपे अपने लेख में लिखती है कि यदि नेहरू की शिक्षा तथा स्वास्थ्य नीति ठीक होती तो छत्तीसगड़ में नसबंदी के नाम पर सामूहिक कत्लेआम नहीं होता। नेहरू सिर्फ 17 साल देश के प्रधान मंत्री रहे जबकि पिछले 15 साल से भाजप  प्रदेश में राज कर रही है। आकड़े बताएंगे नेहरू के 17 सालों में कई चुनौतियों के बावजूद सार्वजनकि शिक्षा तथा स्वास्थ्य में जो गुणवत्ता आई वह अब पूरे देश में लोप हो रही  हैं। कारण है उदारीकरण की नीति।  जिस पर भारत 1992 से चल रहा है तथा जिसकी पैरोकार भाजप तथा उससे पहले जनसंघ हमेशा रहे। इसी उदारीकरण की नीति के चलते शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण होरहा है। अब सबके लिए शिक्षा सबके लिए स्वास्थ्य के सिद्धांत को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इस प्रकार आजादी के बाद नेहरू युग में स्वतंत्रता, समानता का जो थोड़ा बहुत वातावरण बना भी था उसको समाप्त करने का प्रबंध सत्ता तंत्र उदारीकरण के इस दौर में तेजी से कर रहा है। शिक्षा तंत्र में निजीकरण को बढ़ावा देकर सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवतत्ता को धीरे धीरे समाप्त कर दिया गया है। अब सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के बजाय बच्चों को ऐसा मिड डे मील मिलता है जिसको खाकर अक्सर उनके बीमार होने कभी कभी जान से हाथ धोने के दारुण सामाचार मिलते हैं। इस मिड  डे मील की व्यवस्था से किन स्वार्थी तत्वों की गरीबी दूर हो रही है .यह जांच का विषय है। क्यों कि इस देश में गरीबों के  नाम पर बनने वाली सारी योजनाओं से अमीर ही अधिक अमीर होते रहे हैं। गरीबो की बदहाली बढ़ती ही रही है।
आज निजी शिक्षा व स्वास्थ्य संस्थानों का बोलबाला है।साधन संपंन जो सामान्यतः सवर्ण भी होते हैं इन संस्थानों से हर प्रकार से लाभांवित हो रहे हैं। सरकारों में सवर्णों के साथ साथ करोड़पतियों व अरबपतियों की तूती बोल रही है अतः सरकारी शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र को हर प्रकार से पंगु करने की कोशिश होरही है। रही सही कसर जातिवादी मानसिकता पूरी कर देती है। इसीलिए पूरे देश के सरकारी विद्यालयों में प्रशिक्षित अध्यापकों की जगह(सर्टीफिकेट में कुछ भी योग्यता हो) वास्तव में महज साक्षर शिक्षामित्रों ने ले ली है। उनको मानदेय भी पर्याप्त नहीं मिलता। जहां प्रशिक्षित अध्यापक हैं भी वे या तो स्कूल जाते ही नही, जाते हैं तो पढ़ाते नहीं। निगरानी तंत्र भी पूरी तरह फेल है।क्यों उनके तथा उनके वर्ग एवं जाति के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ने नही जाते। यहीं हाल स्वास्थ्य सेवाओं `का है।जिस गंदगी के बीच तथा जिस तरह के जंग लगे औजारों से इन औरतों की नसबंदी हुई क्या वैसे अस्वास्थ्यकर परिवेश में इस पूरे कार्यक्रम से जुड़े लोग अपने पालतू पशुओं का इलाज कराना भी पसंद करते। यदि नहीं तो फिर इनका क्यों किया गया।
 एक सवाल यह भी उठता है कि क्या  यह केवल डाक्टर की लापरवाही, या आंकड़ों की बाजीगरी कर एक और पुरुस्कार हासिल करने का अति उत्साह भर था या पूरे स्वास्थ्य तंत्र दीमक लगने का है । मसलन यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था दुरुस्त  होती हर ब्लाक, तालुक, जिले में सारी मूल भूत सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पताल होते तो ये आपरेशन एक बंद पड़े अस्पताल में अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में नही किये जाते। सार्वजनिक क्षेत्र में अस्पतालों की पर्याप्त ब्यवस्था नहीं होने का एक कारण उदारीकरण भी  है। अमित सेन गुप्ता ने अपने लेख उदारीकरण को युग में स्वास्थ्य में लिखा है कि भारत में 1991 में मनमोहन सिंह ने स्वास्थ्य बजट में कटौती की तो राज्य सरकारों ने भी  बजट में कटौती कर दी। राज्य सरकारों की स्वास्थ्य बजट कटौती का असर बहुत गहरा पड़ा। स्वास्थ्य के साथ साथ पेय जल तथा स्वच्छता(sanitation) के लिए भी धन आबंटन में कमी की गई। इस सीमित बजट का भी अधिकतर हिस्सा शहरों में स्वास्थ्य सुविधाएं जुटाने में खर्च किया जाता रहा है। इस प्रकार सबसे पहले ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं पर इस कटौती का कुअसर पड़ा। दूसरा किसी भी योजना का 70से 89 प्रतिशत तक बजट कर्मचारियों के वेतन में चला जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में इससे बड़ी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गई है। बजट में कटौती की वजह से सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में मुलाजिम तो हैं पर इलाज करनें या जांच करने के लिए जरूरी सामान तक नही है।उदारीकरण कई अंय तरीकों से भी स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावित करता है। उदारीकरण से सार्वजनिक स्वास्थ्य के खतरों का transnationalisation होता है।परिणामस्वरूप पूरे विश्व में छूत की बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है।
आज इंसानों की तरह बीमारियां भी एक देश से दूसरे देश में तेजी से फैल रही हैं। इससे गरीब जनता को सबसे अधिक नुकसान होता है। कारण गरीबी और कुपोषण के कारण उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता क्षीण होती है। Trade Related Intellectual Property Rights – (TRIPS) समझौते के तहत भारत को कठोर पेटेंट कानूनों को लागू करने मजबूर होना पड़ा। अब भारत में विदेशों में बनी दवाओं का सस्ता उत्पादन गैर कानूनी होगया। TRIPS ने बहुराष्ट्रीय निगमों को बहुत शक्तिशाली बना दिया। उनका लाभ कई गुना बढ़ गया है।
अब जो दवाएं बाजार में आरही हैं उनका गरीब देशों में होने वाली बीमारियों से ज्यादा मतलब नहीं है। कारण दवा उद्योग में शोध इन देशो के लोगों की स्वास्थ्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर नही की किये जाते वरन् दवा उद्योग के लाभ को बढ़ाने के लिए किये जाते हैं।कठोर कानूनों की वजह से नई दवाओं की खोज महंगी हो गई है। इस लिए दवा कंपनियों में विश्व स्तर पर merger होरहे हैं। अधिक लाभ कमाने के चक्कर में तीसरी दुनियों में जीवन रक्षक मानी जाने वाली दवाओं को ये विशाल दवा निगम नहीं बनाते हैं। आज सारा शोध दिल की बीमारियों या कैंसर के इलाज के लिए होरहा है। जबकि मलेरिया, हैजा, डैनगू,तथा AIDS जैसी बीमारियों के इलाज के शोध में कुल शोध में व्यय किये धन का केवल चार प्रतिशत व्यय होता है। दूसरे शब्दों में कुल 56 बिलियन डालर में से(जो पूरे विश्व में शोध में व्यय होता है) 10 प्रतिशत से भी कम 90 प्रतिशत लोगों स्वास्थ्य समस्याओं पर शोध करने के लिए व्यय होता है। 1950-60 के दशक में tropical बीमारियों के इलाज के लिये विकसित कुछ दवाएं अब बाजार में नहीं मि्लती। कारण विकसित देशों में उनका कोई उपयोग नहीं होता। (Amit Sengupta ,Health in the Age of Globalisation, Social Scientist, Vol. 31, No. 11/12, (Nov. - Dec., 2003), pp. 66-85,http://www.jstor.org/stable/3517950)
शहरीकरण व बेतरतीब विकास के कारण सीमित जगहों में जनसंख्या का घनत्व बढ़ता जारहा है। इन क्षेत्रों में कचरे के निपटान, मल-जल निकासी व्यवस्था या तो बिलकुल नहीं है या जो थी वह चरमरा गई है। नई तकनीक के साथ साथ नई सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ जाने से प्रदूषण भी फैल रहा है। वनों के विनाश के अलावा कृषि के आधुनिक तरीके भी प्रदूषण, कुपोषण, और नई नई बीमारियों को न्यौता दे रहे हैं। इसलिए डेंगू, फाल्सीपेरम मलेरिया, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू अब इबोला जैसी बीमारियो का प्रकोप बना हुआ है। उदारीकरण के इस युग में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों की प्रार्थमिकता अपने देश की जनता के हित न होकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां होती हैं। गरीबों के संदर्भ में यह उदासीनता लापरवाही की हद तक बढ़ जाती है। इसके अलावा हर सरकार के हर विभाग में लगा भ्रष्टाचार का घुन भी स्वार्थी तत्वों का रास्ता सहज बना देता है।इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को गरीबों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने की एक ओर से छूट मिल जाती है। इस खुली छूट का एक नमूना हाल ही में मध्य प्रदेश के स्कूलों में छात्रावास में रह रही छात्राओं को गर्भाशय के कैंसर से बचाव और प्रयोग के नाम पर लगाए गए टीके हैं। 2009 में आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले में चौदह हजार लड़कियों को गार्डासिल की तीन खुराक दी गई। इनमें से करीब सवा सौ लड़कियों को मिरगी, एलर्जी, डायरिया, चक्कर आने और उल्टी की शिकायतें सामने आई। उनमें से कइयों  की बाद में मौत हो गई। मामले को रफा दफा कराने में  सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। उन्होंने इन मौतों को आत्महत्या घोषित कर दिया। इसके अलावा  गुजरात के सरकारी स्कूलों की छात्राओं तथा आदिवासी छात्राओं पर इसी प्रकार के प्रयोग किए गए थे।(जनसत्ता संपादकीय, 15,10,2010) सरकार नकली दवा कंपनियों पर तो नकेल नही कस पारही है साथ ही नामी कंपनियों पर भी नजर रखने में नाकाम साबित हो रही है। मसलन् 2010 में लगक्भग डेढ़ सौ कंपनियों ने मूल्य निर्धारण के तहत आनी वाली दवाओं को अधिक कीमत पर बेच कर ग्राहकों को सवा तेइस सौ करोड़ रुपये का चूना लगाया। राष्ट्रीय दवा मूल्य नियामक प्राधिकरण की दवा कंपनियों के भ्रष्ट आचरण पर नकेल कसने की इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती। (जनसत्ता 2.3. 11,व 4,3,11)

दूसरा डाक्टर को यदि आपनी शपथ पर आस्था होती तो वह ऐसी गंदी जगह में और ऐसे जंग लगे औजारों से, मानदंडों द्वारा निर्धारित संख्या से इतने अधिक आपरेशन नही करते ।
साथ ही सरकारी तंत्र यहां तक विशेषज्ञों का आम गरीब गुरुबों(जो इस जातिवादी हिंदू समाज में तथाकथित निम्न कही जाने वाली जातियों से भी आते हैं ) के प्रति असंवेदनशील होने का है। साफ है अपने देश में गरीबों से पशुओं से भी बदतर सलूक करने की संपंन वर्गों की धार्मिक, सामाजिक परंपरा में आधुनिक शिक्षा के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आया है। संक्षेप में यह केवल लापरवाही का मामला नहीं है। यह इस देश  के गरीबों के जीने के मूल अधिकारों के हनन का मामला है। यों तो संविधान प्रदत्त मूल अधिकार गरीबों के लिए आजाद भारत में लागू हो ही नहीं पाए। परंतु उदारीकरण के बाद उनके जीने के अधिकार पर सबसे ज्यादा चोट पड़ी है। इसलिए यदि गरीबों के मूल अधिकारों का संरक्षण करना है तो शिक्षा तथा स्वास्थ्य ब्यवस्थाओं को लोकहितकारी होना ही है।

सजा नही जड़ से सुधार की दरकार है



सजा नही जड़ से सुधार की दरकार है
डाक्टर मुख्य मंत्री की सुशासित स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल एक बार फिर खुल गई।इससे पहले मोतियाबिंद आपरेशन के नाम पर गरीबों की आखें फोड़ दी गई।(http://zeenews.india.com/news/chhattisgarh/62-people-lost-vision-after-cataract-surgery-at-camps-minister_830388.html) फिर कैंसर का भय दिखाकर गरीब महिलाओँ के गर्भाशय गैर कानूनी तरीके से निकाल लिए गए।http://www.reuters.com/article/2012/07/18/us-india-doctors-corruption-idUSBRE86H0P520120718
  परन्तु किसी भी जिम्मेदार डाक्टर ,प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक शासक को उनकी गलती की सजा नही मिली। छत्तीसगड़ एक बार फिर समाचारों में है। सारा देश स्तब्ध है। 50 हजार शल्य चिकित्सा करने की वजह से डाक्टर मुख्य मंत्री द्वारा पुरस्कृत डा. गुप्ता ने कुछ ही घंटों में 83 गरीब दलित व आदिवासी महिलाओं के स्टरलाइजेशन आपरेशन कर दिये। जो कि सरकारी नियम कानूनों के विरुद्ध है। ऊपर से अप्रेल से बंद पड़े एक निजी अस्पताल में जहां पर शल्य चिकित्सा के लिए जरूरी सुविधाओं का पूर्ण अभाव है, में ये नसबंदी आपरेशन किये गए।(http://www.ndtv.com/article/india/chhattisgarh-sterilisation-deaths-hospital-was-shut-since-april-has-no-basic-infrastructure-620007)   इस बार सरकार ने जन दबाव में जिम्मेदार डाक्टर तथा अंय लोगों के विरुद्ध कार्यवाही कर दी है।साथ ही जांच के भी आदेश दे दिये हैं। पर इससे होगा क्या। मीडिया में जो सूचनाएँ आरही हैं उनसे पता चलता है कि आरोपी लोग ताकतवर तथा सत्ता के नजदीक हैं। भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जांच की रपट या तो समय पर आती ही नहीं है। यदि आती भी है तो उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। ऊपर से टी वी चैनल सबूत नष्ट किये जाने वाली फोटो भी दिखा रहे हैं। सबूतों के अभाव में कैसी रिपोर्ट आएगी। यह भी सोचा जा सकता है। सिविल सोसाइटी राजनीतिक प्रमुखों के इस्तीफे की मांग कर रही है। कुछ डाक्टरों तथा प्रशासकों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने से या राजनीतिकज्ञों के इस्तीफे से क्या भविष्य में इस प्रकार के हादसे नहीं होंगे। ऐसी संभावना नहीं के बराबर है।
     कारण खाली लक्षणों के इलाज से बीमारी जड़ से समाप्त नहीं हो सकती। बीमारी तो उसके कारणों के तह तक जाकर उसके निदान से ही जाएगी। अतः सबसे पहले हमें बीमारी के कारण जानने और समझने हैं। बीमारी के कारण इस घटना की रिपोर्टों में ही साफ झलकते हैं। सर्व प्रथम ये आकड़े पूरे करने की मानसिकता-- जो गरीबों के जीवन तथा स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने को डाक्टरों को मजबूर करती है। दूसरा आकड़ों के लक्ष्य को पूरा करने के लिए गरीब औरतों (जो संयोगवश दलित और आदिवासी भी होती हैं।) को ही चुना जाना है। क्या इससे औपनिवेशिकता तथा सदियों से चले जातीय विद्वेश के बू नही आती। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि 1897 में अंग्रेजी सरकार ने प्लेग की रोकथाम के नाम पर भारतीय महिलाओं की जबरन जांच तथा बचाव के अंय कार्यक्रम शुरु किये। इस प्रक्रिया में  भी नारी की अस्मिता का ध्यान नहीं रखा गया। तब पंडिता रमाबाई ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई, व तत्कालीन सरकार के साथ साथ चर्च की नाराजगी भी मोल ली। इसके परिणामस्वरुप, बिट्रिश संसद में इस विषय पर सवाल जवाब हुए। आज जिस तरह से औरतों को पकड़ कर (यह आलग बात है कि इसे काउंसिलिंग का नाम दिया जाता है) नस बंदी की जाती है या बच्चादानी ही निकाल ली जाती है उससे हमारी शासनिक और प्रशासनिक व्यवस्था को चलाने वालों की औपनिवेशिक मानसिकता के साथ साथ डाक्टरों की अपनी नैतिक जिम्मेदारी जो शपथ के रूप में उनको दी जाती है के प्रति उदासीन होना भी दर्शाता है। साथ ही वह जातिवादी मानसिकता भी झलकती है जिसके तहत समाज की कुछ जातियों को गावों, कस्बों में गंदगी के बीच रहने मजबूर किया जाता रहा है।(गंदगी में रहने वालों इन गरीबों को अस्वास्थ्यकर परिवेष तथा औजारों से कुछ नहीं होता वाली मानसिकता) पूरे समाज में व्याप्त है।
 यह भी सोचने की बात है कि क्यों पिछले 6 महिने से बंद पड़े निजी अस्पताल में ये आपरेशन किये गए। यदि हर तालुक, हर जिले में आधुनिक सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पताल होते तो एक वीरान अस्पताल में क्यों ये आपरेशन होते। तवलीन सिंह जनसत्ता में छपे अपने लेख में लिखती है कि यदि नेहरू की शिक्षा तथा स्वास्थ्य नीति ठीक होती तो छत्तीसगड़ में नसबंदी के नाम पर सामूहिक कत्लेआम नहीं होता। नेहरू सिर्फ 17 साल देश के प्रधान मंत्री रहे जबकि पिछले 15 साल से भाजप  प्रदेश में राज कर रही है। आकड़े बताएंगे नेहरू के 17 सालों में कई चुनौतियों के बावजूद सार्वजनकि शिक्षा तथा स्वास्थ्य में जो गुणवत्ता आई वह अब पूरे देश में लोप हो रही  हैं। कारण है उदारीकरण की नीति।  जिस पर भारत 1992 से चल रहा है तथा जिसकी पैरोकार भाजप तथा उससे पहले जनसंघ हमेशा रहे। इसी उदारीकरण की नीति के चलते शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण होरहा है। अब सबके लिए शिक्षा सबके लिए स्वास्थ्य के सिद्धांत को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इस प्रकार आजादी के बाद नेहरू युग में स्वतंत्रता, समानता का जो थोड़ा बहुत वातावरण बना भी था उसको समाप्त करने का प्रबंध सत्ता तंत्र उदारीकरण के इस दौर में तेजी से कर रहा है। शिक्षा तंत्र में निजीकरण को बढ़ावा देकर सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवतत्ता को धीरे धीरे समाप्त कर दिया गया है। अब सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के बजाय बच्चों को ऐसा मिड डे मील मिलता है जिसको खाकर अक्सर उनके बीमार होने कभी कभी जान से हाथ धोने के दारुण सामाचार मिलते हैं। इस मिड  डे मील की व्यवस्था से किन स्वार्थी तत्वों की गरीबी दूर हो रही है .यह जांच का विषय है। क्यों कि इस देश में गरीबों के  नाम पर बनने वाली सारी योजनाओं से अमीर ही अधिक अमीर होते रहे हैं। गरीबो की बदहाली बढ़ती ही रही है।
आज निजी शिक्षा व स्वास्थ्य संस्थानों का बोलबाला है।साधन संपंन जो सामान्यतः सवर्ण भी होते हैं इन संस्थानों से हर प्रकार से लाभांवित हो रहे हैं। सरकारों में सवर्णों के साथ साथ करोड़पतियों व अरबपतियों की तूती बोल रही है अतः सरकारी शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र को हर प्रकार से पंगु करने की कोशिश होरही है। रही सही कसर जातिवादी मानसिकता पूरी कर देती है। इसीलिए पूरे देश के सरकारी विद्यालयों में प्रशिक्षित अध्यापकों की जगह(सर्टीफिकेट में कुछ भी योग्यता हो) वास्तव में महज साक्षर शिक्षामित्रों ने ले ली है। उनको मानदेय भी पर्याप्त नहीं मिलता। जहां प्रशिक्षित अध्यापक हैं भी वे या तो स्कूल जाते ही नही, जाते हैं तो पढ़ाते नहीं। निगरानी तंत्र भी पूरी तरह फेल है।क्यों उनके तथा उनके वर्ग एवं जाति के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ने नही जाते। यहीं हाल स्वास्थ्य सेवाओं `का है।जिस गंदगी के बीच तथा जिस तरह के जंग लगे औजारों से इन औरतों की नसबंदी हुई क्या वैसे अस्वास्थ्यकर परिवेश में इस पूरे कार्यक्रम से जुड़े लोग अपने पालतू पशुओं का इलाज कराना भी पसंद करते। यदि नहीं तो फिर इनका क्यों किया गया।
 एक सवाल यह भी उठता है कि क्या  यह केवल डाक्टर की लापरवाही, या आंकड़ों की बाजीगरी कर एक और पुरुस्कार हासिल करने का अति उत्साह भर था या पूरे स्वास्थ्य तंत्र दीमक लगने का है । मसलन यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था दुरुस्त  होती हर ब्लाक, तालुक, जिले में सारी मूल भूत सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पताल होते तो ये आपरेशन एक बंद पड़े अस्पताल में अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में नही किये जाते। सार्वजनिक क्षेत्र में अस्पतालों की पर्याप्त ब्यवस्था नहीं होने का एक कारण उदारीकरण भी  है। अमित सेन गुप्ता ने अपने लेख उदारीकरण को युग में स्वास्थ्य में लिखा है कि भारत में 1991 में मनमोहन सिंह ने स्वास्थ्य बजट में कटौती की तो राज्य सरकारों ने भी  बजट में कटौती कर दी। राज्य सरकारों की स्वास्थ्य बजट कटौती का असर बहुत गहरा पड़ा। स्वास्थ्य के साथ साथ पेय जल तथा स्वच्छता(sanitation) के लिए भी धन आबंटन में कमी की गई। इस सीमित बजट का भी अधिकतर हिस्सा शहरों में स्वास्थ्य सुविधाएं जुटाने में खर्च किया जाता रहा है। इस प्रकार सबसे पहले ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं पर इस कटौती का कुअसर पड़ा। दूसरा किसी भी योजना का 70से 89 प्रतिशत तक बजट कर्मचारियों के वेतन में चला जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में इससे बड़ी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गई है। बजट में कटौती की वजह से सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में मुलाजिम तो हैं पर इलाज करनें या जांच करने के लिए जरूरी सामान तक नही है।उदारीकरण कई अंय तरीकों से भी स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावित करता है। उदारीकरण से सार्वजनिक स्वास्थ्य के खतरों का transnationalisation होता है।परिणामस्वरूप पूरे विश्व में छूत की बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है।
आज इंसानों की तरह बीमारियां भी एक देश से दूसरे देश में तेजी से फैल रही हैं। इससे गरीब जनता को सबसे अधिक नुकसान होता है। कारण गरीबी और कुपोषण के कारण उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता क्षीण होती है। Trade Related Intellectual Property Rights – (TRIPS) समझौते के तहत भारत को कठोर पेटेंट कानूनों को लागू करने मजबूर होना पड़ा। अब भारत में विदेशों में बनी दवाओं का सस्ता उत्पादन गैर कानूनी होगया। TRIPS ने बहुराष्ट्रीय निगमों को बहुत शक्तिशाली बना दिया। उनका लाभ कई गुना बढ़ गया है।
अब जो दवाएं बाजार में आरही हैं उनका गरीब देशों में होने वाली बीमारियों से ज्यादा मतलब नहीं है। कारण दवा उद्योग में शोध इन देशो के लोगों की स्वास्थ्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर नही की किये जाते वरन् दवा उद्योग के लाभ को बढ़ाने के लिए किये जाते हैं।कठोर कानूनों की वजह से नई दवाओं की खोज महंगी हो गई है। इस लिए दवा कंपनियों में विश्व स्तर पर merger होरहे हैं। अधिक लाभ कमाने के चक्कर में तीसरी दुनियों में जीवन रक्षक मानी जाने वाली दवाओं को ये विशाल दवा निगम नहीं बनाते हैं। आज सारा शोध दिल की बीमारियों या कैंसर के इलाज के लिए होरहा है। जबकि मलेरिया, हैजा, डैनगू,तथा AIDS जैसी बीमारियों के इलाज के शोध में कुल शोध में व्यय किये धन का केवल चार प्रतिशत व्यय होता है। दूसरे शब्दों में कुल 56 बिलियन डालर में से(जो पूरे विश्व में शोध में व्यय होता है) 10 प्रतिशत से भी कम 90 प्रतिशत लोगों स्वास्थ्य समस्याओं पर शोध करने के लिए व्यय होता है। 1950-60 के दशक में tropical बीमारियों के इलाज के लिये विकसित कुछ दवाएं अब बाजार में नहीं मि्लती। कारण विकसित देशों में उनका कोई उपयोग नहीं होता। (Amit Sengupta ,Health in the Age of Globalisation, Social Scientist, Vol. 31, No. 11/12, (Nov. - Dec., 2003), pp. 66-85,http://www.jstor.org/stable/3517950)
शहरीकरण व बेतरतीब विकास के कारण सीमित जगहों में जनसंख्या का घनत्व बढ़ता जारहा है। इन क्षेत्रों में कचरे के निपटान, मल-जल निकासी व्यवस्था या तो बिलकुल नहीं है या जो थी वह चरमरा गई है। नई तकनीक के साथ साथ नई सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ जाने से प्रदूषण भी फैल रहा है। वनों के विनाश के अलावा कृषि के आधुनिक तरीके भी प्रदूषण, कुपोषण, और नई नई बीमारियों को न्यौता दे रहे हैं। इसलिए डेंगू, फाल्सीपेरम मलेरिया, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू अब इबोला जैसी बीमारियो का प्रकोप बना हुआ है। उदारीकरण के इस युग में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों की प्रार्थमिकता अपने देश की जनता के हित न होकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां होती हैं। गरीबों के संदर्भ में यह उदासीनता लापरवाही की हद तक बढ़ जाती है। इसके अलावा हर सरकार के हर विभाग में लगा भ्रष्टाचार का घुन भी स्वार्थी तत्वों का रास्ता सहज बना देता है।इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को गरीबों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने की एक ओर से छूट मिल जाती है। इस खुली छूट का एक नमूना हाल ही में मध्य प्रदेश के स्कूलों में छात्रावास में रह रही छात्राओं को गर्भाशय के कैंसर से बचाव और प्रयोग के नाम पर लगाए गए टीके हैं। 2009 में आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले में चौदह हजार लड़कियों को गार्डासिल की तीन खुराक दी गई। इनमें से करीब सवा सौ लड़कियों को मिरगी, एलर्जी, डायरिया, चक्कर आने और उल्टी की शिकायतें सामने आई। उनमें से कइयों  की बाद में मौत हो गई। मामले को रफा दफा कराने में  सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। उन्होंने इन मौतों को आत्महत्या घोषित कर दिया। इसके अलावा  गुजरात के सरकारी स्कूलों की छात्राओं तथा आदिवासी छात्राओं पर इसी प्रकार के प्रयोग किए गए थे।(जनसत्ता संपादकीय, 15,10,2010) सरकार नकली दवा कंपनियों पर तो नकेल नही कस पारही है साथ ही नामी कंपनियों पर भी नजर रखने में नाकाम साबित हो रही है। मसलन् 2010 में लगक्भग डेढ़ सौ कंपनियों ने मूल्य निर्धारण के तहत आनी वाली दवाओं को अधिक कीमत पर बेच कर ग्राहकों को सवा तेइस सौ करोड़ रुपये का चूना लगाया। राष्ट्रीय दवा मूल्य नियामक प्राधिकरण की दवा कंपनियों के भ्रष्ट आचरण पर नकेल कसने की इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती। (जनसत्ता 2.3. 11,व 4,3,11)

दूसरा डाक्टर को यदि आपनी शपथ पर आस्था होती तो वह ऐसी गंदी जगह में और ऐसे जंग लगे औजारों से, मानदंडों द्वारा निर्धारित संख्या से इतने अधिक आपरेशन नही करते ।
साथ ही सरकारी तंत्र यहां तक विशेषज्ञों का आम गरीब गुरुबों(जो इस जातिवादी हिंदू समाज में तथाकथित निम्न कही जाने वाली जातियों से भी आते हैं ) के प्रति असंवेदनशील होने का है। साफ है अपने देश में गरीबों से पशुओं से भी बदतर सलूक करने की संपंन वर्गों की धार्मिक, सामाजिक परंपरा में आधुनिक शिक्षा के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आया है। संक्षेप में यह केवल लापरवाही का मामला नहीं है। यह इस देश  के गरीबों के जीने के मूल अधिकारों के हनन का मामला है। यों तो संविधान प्रदत्त मूल अधिकार गरीबों के लिए आजाद भारत में लागू हो ही नहीं पाए। परंतु उदारीकरण के बाद उनके जीने के अधिकार पर सबसे ज्यादा चोट पड़ी है। इसलिए यदि गरीबों के मूल अधिकारों का संरक्षण करना है तो शिक्षा तथा स्वास्थ्य ब्यवस्थाओं को लोकहितकारी होना ही है।