तसलीमा नसरीन को नारी के दमन शोषण की संस्कृति के खिलाफ आवाज उठाना महंगा पड़ा है। पड़ना ही था। आखिर औरत और नौकर को भोला भाला सीधा साधा होना होता है। तेज तर्रार(अपने अधिकारों के लिए सजग) औरत हो या नौकर उसको दबा कर रखना टेड़ा काम होता है। इसलिए धर्म का, ईश्वर का भय दिखाकर,नैतिकता का चाबुक चलाकर शोषण के विरोध की धार को कुन्द करने का षडयंत्र प्राचीन काल से चला आया है।जब भी नारी ने इस षडयंत्र का पर्दा फांस करने की कोशिश की तो समाज ने अपना आपा खोया। मसलन् ताराबाई ने 1874 में प्रकाशित पुस्तक स्त्री पुरुष तुलना में तत्कालीन समाज में प्रचलित दोहरे नैतिक मापदंडों पर अंगुली उठाने की धृष्टता की तो सारा प्रबुद्ध समाज उनके विरुद्ध खड़ा होगया और आग उगलने लगा। परिणामस्वरूप तारा बाई की कलम सदा के लिए मौन होगई। केवल महात्मा जोति बा फुले उनके समर्थन में सामने आए। जहां तक मेरी जानकारी है किसी ने ताराबाई के जान पर हमला नही किया। तसलीमा के पल्ले इतना सौभाग्य भी नहीं पड़ा। उनकी मातृभूमि तथा उनकी कर्मभूमि दोनों ही जगह उनके स्वधर्मी लोग उनके खून के प्यासे होरहे हैं। हालाकि माना तो यह भी जाता है कि उनका धर्म औरत पर हाथ उठाने की इजाजत नही देता। पर तसलीमा पर हाथ उठे हैं और उनके खून के प्यासे हैं।अब उन उठे हुए हाथों से तसलीमा को बचाने के नाम उनको ऐसे सुरक्षित घर (सेफ हाउस) में रखा है जिसमें कुंडी अंदर से नही वरन् बाहर से लगती है। जहां की खिड़की भी बंद है उस पर मोटे मोटे पर्दे लगे हैं।खुली हवा, खुले आकाश, पशु, पक्षी तथा इंसानी संपर्क से वंचित कर उनको जो सुरक्षा दी जारही है उसमें वह कितनी सुरक्षित है यह ऐहसास के स्तर पर मापा जासकता है।शब्दों में उस सुरक्षा/असुरक्षा को बयान करना आसान नहीं।गौरतलब है कि यह सुरक्षा भी उनको कलम चलाने की आजादी नही देती।दिल्ली में तथाकथित सेफ हाउस मुहैय्या कराने से पहले हमारे प्रबुद्ध माननीय विदेश मंत्री ने सार्वजनिकरूप से यह साफ कर दिया था कि उन्हें अपने लेखन में समाज की भावनाओं, तथा आस्था का ख्याल रखना होगा। तसलीमा की अपनी भावनाओं का क्या होगा?उनकी आस्था का क्या होगा? यह सरकार के लिए महत्वपूर्ण नही था। इस प्रकार एक झटके में –जहां न पहुचे रवि वहां पहुचे कवि-उनके स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार को छीन लिया गया। जहन को यह सवाल बार बार कचोटता है कि इस कीमत पर लेखक को दी गई शरण या सुरक्षा क्या शरण य़ा सुरक्षा है या कुआं या खाई में से एक को चुनने का दबाव? यदि तसलिमा महिला लेखक न होती और नारी के दमन शोषण के स्तंभों पर प्रहार नहीं करती तो क्या तब भी उनके सामने यही कुआं और खाई को चुनने का ही प्रस्ताव होता? प्रबुद्ध माननीय विदेश मंत्री के उपरोक्त सार्वजनिक बयान में पितृसत्ता की बू आती है।
साथ ही प्रबुद्ध माननीय विदेश मंत्री ने सार्वजनिक बयान में धार्मिक कट्टर ता भी टपकती दिखती है। अपने देश में कट्टरपंथियों द्वारा अल्पसंख्यकों अक्सर दी जाती रही वह धमकी —यहां रहना है तो वंदे मातरम् कहना है- का अहसास विदेश मंत्री का यह सार्वजनिक बयान कराता है। (यहां रहना है तो आस्था व भावनाओं को ध्यान में रख कर लिखना होगा।)
अफसोस है कि कांग्रेस राजाराम मोहन रौय, गांधी और नेहरू की परंपरा को त्याग कर कुर्सी के लालच में कट्टरपंथियों की जमात में शामिल हो गई है। अपनी इस ढ़ुलमुल नीति से कांग्रेस को चाहे फायदा हो या नुकसान, इससे समाज , देश, संस्कृति को जो नुकसान होरहा है उसकी भरपाई मुस्किल है।हम औरतों के लिए तो यह खतरे की घंटी है। आखिर औरतों के दमन को पोषित करने वाले दोहरे मापदंडों की जड़ें आस्था में ही हैं।
राजाराम मोहन रौय के भाई की मृत्यु के बाद उनकी भाभी अल्कामंजरी को सती होने मजबूर किया गया। भाभी के चेहरे पर डर साफ दिख रहा था। राजाराम मोहन रौय ने भाभी से सती नही होने की याचना की। पर वह कैसे सती नही होती आस्ता का सवाल था। रिस्तेदारों ने भी राजाराम का विरोध तथा जबरन् अल्कामंजरी को मृति पति के साथ बांध दिया गया और चिता में जला दिया गया। अल्कामंजरी चीखी चिल्लाई ,पर उसको नही खोला गया। ढ़ोल नगाड़े बजा कर उसकी चीख, पुकार व कराहें दबा दी गई।वह अपने मृत पति के साथ जल कर राख होगई। सभी रिस्तेदारों ने उसे महासती का खिताब दिया। इस हृदयविदारक घटना का राजाराम पर गहरा प्रभाव पड़ा।उसी समय उसी जगह पर उन्होंने ठान लिया कि इस कुप्रथा को समाप्त कर ही दम लेंगे।
उनका काम आसान नही था। लाखों लोगों को सती कुप्रथा पर आस्था थी।उनका विरोध हुआ। उनके साथ गाली गलौज किया गया। उनकी हत्या की भी कोशिश की गई। उन्होंने सभी धर्म ग्रंथों को छान मारा पर कहीं पर भी पत्नी के सती होने का प्रावधान नही था।अपने शोध के आधार पर उन्होंने लेख लिखे बहस चलाई।तत्कालीन सरकार भी इस मसले पर हाथ डालने में डर रही थी।राम मोहन ने जान के खतरे, कट्टरपंथियों की परवाह नही,और इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए माकूल वातावरण बनाने में सफल हुए। आखिर सरकार ने भी हिम्मत दिखाई और 1829में कानून पास कर सती को अपराध घोषित किया। तब एक विदेशी सरकार खतरा उठाने राजी होगई।आज अपनी चुनी हुई सरकारें कुर्सी की खातिर राजा राम मोहन रौय की इस विरासत की अवमानना कर रही हैं। आस्था की दुहाई देकर एक लेखिका को सुरक्षा के नाम पर गृहबंदी बना रखा है। उसको मानव , नागरिक, और जीवन के मूल अधिकार से वंचित कर रखा है।
गाधी जी जीवन भर अंतरआत्मा की आवाज को सर्वोपरि मानते रहे उनके कई आमरण अनशनों के पीछे तर्क यही अंतरआत्मा की आवाज ही थी। 2 अक्तूबर गांधी जंम दिन को सयुक्त राष्ट्र के अहिंसा दिवस मनाने के प्रस्ताव पर कांग्रेस फूली नही समा रही है। लेकिन तसलीमा से आस्था या सुरक्षा के नाम पर उसके जीनव तथा अभिव्यक्ति अधिकार छीन कर सरकर जो हिंसा कर रही है वह क्या गांधी के देश में होनी चाहिये?
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1 टिप्पणी:
आपकी चिंताएँ वाजिब हैं! देखिये , कैसे असहमति के प्रबल स्वरों से डरता है समाज ।
sandoftheeye.blogspot.com
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