गोपा जोशी
चीनी सरकार द्वारा दिये गए एतिहासिक तथ्यों के आधार 13वी शताब्दी से पहले तो तिब्बत आजाद था। यानी कम से कम 1300 तो साल आजाद देश था।तिब्बत पर 700 साल का चीनी शासन कई सवाल छोड़ता है। मसलन् यदि चीनी शासकों ने तिब्बतियों के बिरुद्ध भेदभाव की नीति नही अपनाई होती तो इन 700 सालों के चीनी राज में तिब्बतियों और चीनियों के बीच आत्मीयता प्रगाड़ हुई होती।इससे भी महत्वपूर्ण सवाल है कि पिछले 57 साल के कम्युनिस्ट पार्टी के शासन में तिब्बतियों का आजादी का संघर्ष कमजोर होने के बजाय मजबूत हुआ है चीनी सरकार का आरोप है कि तिब्बत का आजादी का आंदोलन अमेरिका की साजिश है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी मानती है कि 1951 में चीनी सेना के तिब्बत में घुसने से पहले आम तिब्बतियों पर वहां के मुट्ठी भर(महज पांच प्रतिशत) सामंतों तथा बौद्ध भिक्षुओं की तानाशाही थी। तिब्बत के 95 प्रतिशत उत्पादन के साधनों पर उनका(सामंतों तथा बौद्ध भिक्षुओं) ही कब्जा था। तिब्बती खेतीहर मजदूरों की हालत ग्रहयुद्ध से पहले के अमेरिकी काले गुलामों से भी बदतर थी।उस समय तिब्बत में अमन चैन नही था। उस समय तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता नही थी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी दावा करती है कि तिब्बतियों को सामंती शोषण से मुक्ति मिल गई है। लेकिन आम तिब्बती इस शोषण और दमन से मुक्त होकर सन्तुष्ट नही है। वह अपने तथाकथित मुक्तिदाता से ही मुक्ति चाह रहा है। आखिर क्यों ?
तिब्बत की आर्थिक प्रगति का विवरण देते हुए चीनी सरकार बताती है कि जीडीपी बढ़ा है । पिछले छः साल से लगातार राष्ट्रीय औसत से अधिक रहा है। किसानों व चरवाहों की प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है। विदेशी शैलानियों की संख्या में वृद्धि हुई है।औद्योगिक उत्पाद बढ़ा है। तिब्बत का निर्यात बढ़ा है। पर चीनी सरकार यह नही बताती कि तिब्बत के वर्तमान उत्पादन के साधनों में चीनियों की कितनी हिस्सेदारी है तथा तिब्बतियों की कितनी है?
तिब्बतियों की शिकायत है कि चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया था। 1959 में करीब एक लाख रिफ्यूजी दलाई लामा के साथ भाग कर भारत आए।1993 में संयुक्त राष्ट्र के रिफ्यूजी मामलों के उच्चायुक्त ने 3,700 तिब्बती शरणार्थियों के मामले निपटाए। काफी बड़ी संख्या में शरणार्थी छुप कर कठिन पहाड़ी रास्ते से (नागपा-ला दर्रा )से आते हैं। तिब्बती चीन पर वादाखिलाफी का आरोप भी लगाते हैं। उनका कहना है कि 1951 में किये गए 17 सूत्री समझौते में चीन ने तिब्बत के आन्तरिक सरकारी व्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नही करने का वचन दिया था। पूर्वी तिब्बत में यह वादा तो कभी नही निभाया गया। 1959 में इस संधि को ही समाप्त कर दिया गया। तिब्बत के दो प्रदेशों को चीन के अन्य प्रदेशों में मिला दिया गया है बचे हुए तिब्बत को तिब्बत स्वायत क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। लेकिन यह स्वायत क्षेत्र नही है। सभी स्थानीय कानूनों को केन्द्रीय सरकार की सहमति मिलना आवश्यक है। स्थानीय सरकार पार्टी के तहत काम करती है। तिब्बत में कम्युनिस्ट पार्टी भी बाहरी लोग ही चलाते हैं तिब्बती नहीं।
तिब्बतियों की दूसरी शिकायत है कि 1959 के विद्रोह के बाद से ही चीन तिब्बतियों का नरसंहार कर रहा है। 1,10,1960 के रेडियों ल्हासा के अनुसार 1959 के विद्रोह दबाने के नाम पर 87,000 तिब्बतियों को मार दिया गया। प्रवासी तिब्बतियों का मानना है कि 1959 के विद्रोह तथा उसके बाद के 15 वर्षों के गुरिल्ला युद्घ के दौरान चार लाख तीस हजार तिब्बती मारे गए। 1950 से 1984 के बीच चीनी जेलों तथा लेबर कैम्पों में दो लाख, साठ हजार तिब्बतियों ने अपनी जान गवांई। तिब्बतियों की शिक्षा पर भी चीनी नियंत्रण होता है। तिब्बत की सरकारी भाषा चीनी होगई है। चीनी भाषा के ज्ञान के बगैर सरकारी नौकरी मिलनी संभव नही। तिब्बती स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम चीनी भाषा है। 1994 के बाद तिब्बती बच्चों को जो तिब्बती इतिहास पढ़ाया जाता है उसमे तिब्बत का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में कोई जिक्र नही है। तिब्बती धर्म संस्कृति व सामाजिक मुद्दों पर भी पार्टी लाइन ही पढ़ाई जाती है। 1979 तक धार्मिक कर्मकांड़ों पर पाबन्दी थी1इस दौरान 6हजार धर्मस्थलों को ध्वस्त किया गया।982 का चीन का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है। लेकिन भिक्षु बनने की स्वतंत्रता तिब्बतियों को नही है।चीनी सहकार ने भिक्षु बनने वालों की संख्या निर्धारित कर रखी है । 18वर्ष से छोटी उम्र के बच्चे भिक्षु नही बन सकते।तिब्बत की आजादी के आन्दोलन में सक्रिय रहने के कारण जेल की सजा काट चुके भिक्षुओं का,जेल से छूटने के बाद मठ में प्रवेश वर्जित कर दिया जाता है। 1994 में नए निर्देश जारी किये गए और धार्मिक स्वतंत्रता पर नए सिरे से प्रहार किये जाने लगे। 1995 में दलाई लामा ने जिस बच्चे को पंचनलामा का अवतार घोषित किया उसे चीन की सरकार ने नही माना तथा अपने उमीदवार को पंचन लामा का अवतार घोषित कर तिब्बतियों पर थोप दिया।
तिब्बतियों की तीसरी शिकायत है कि चीन हान चीनियों को जबरदस्ती तिब्बत में बसाया जारहा है।तिब्बतियों के चारागाह व कृषि भूमि छीन कर कृषि फार्म बनाए गए हैं उनमें आधुनिक प्रकार की खेती होती है। तिब्बत को बाजार व्यवस्था का अभिन्न अंग बनाने के लिए तिब्बत में विदेशी सहायता से नई नई फसलें उगाई जारही है।इससे पारंपरिक जौ की खेती घट रही है। तिब्बत को बाजार व्यवस्था का अभिन्न अंग बनाने के लिए तिब्बत में विदेशी सहायता से नई नई फसलें उगाई जारही है।इससे पारंपरिक जौ की खेती घट रही है। चीनियों के बसने के कारण तिब्बती कई इलाकों में मसलन् खाम, आमदो, व ल्हासा में अल्पसंख्यक होगए हैं। चीनियों के आगमन से तिब्बतियों में बेरोजगारी बढ़ गई है।
तिब्बत में चीन की आर्थिक नीतियों का उद्देश्य तिब्बत के संसाधनों का अत्यधिक दोहन रहा है। बाजारीकरण के इस युग में इस दोहन की रफ्तार बढ़ा दी गई है। इस दोहन का अत्यधिक लाभ हान चीनियों को ही मिलता है।हान चीनी व्यापारियों को करों में भारी छूट मिलती है। चीनी सरकार के हान चीनी अफसरों को तिब्बत में काम करने के लिए बोनस में मोटी राशि दी जाती है। विश्वस्त स्त्रोतों के अनुसार चीन के तिब्बत पर कब्जा करने के बाद तिब्बत का आधा जंगल साफ होचुका है। तिब्बत में सड़कों का जाल बिछाया जारहा है जिससे दुर्गम क्षेत्रों के वनों का दोहन सुलभ होगया है। पर्यटकों ने लड़की से लदे 60 ट्रक प्रति घन्टे के हिसाब से तिब्बत सा बाहर जाते देखेने का दावा किया है। भारतीय सरकार की सूचनाओं के अनुसार, चीन के तीन आणविक मिशाइल,तथा तीन लाख सैनिक तिब्बत में तैनात रहे हैं।60 और 70 के दशक में चीन छिंगहाइ प्रान्त में आणविक हथियारों में शोध कर रहा था। तिब्बतियों का दावा है कि चीन ने मान लिया है कि वह आणविक कचरा तिब्बती पठार में डाल रहा है। तिब्बती पठार की सबसे बड़ी झील कोकोनोर के पास बीस वर्ग किलोमीटर पर यह कचरा पड़ा हुआ है।
फ्री तिब्बत संगठन के अनुसार चीनी सरकार स्वतंत्रता के प्रश्न पर बातचीत नही करना चाहती।1979 में तगंश्यावपिगं ने कहा था कि तिब्बत की स्वतंत्रता के सवाल के अलावा हर मुद्दे पर दलाई लामा से बातचीत होसकती है।दलाई लामा इस शर्त पर भी बातचीत करने तैयार रहे हैं।उन्होंने चीन द्वारा परिभाषित सीमाओं के भीतर भी समस्याओं के समाधान के लिए कई प्रस्ताव रखे हैं। अभी हाल ही में एन डी टी वी के प्रनय राय के कार्यक्रम में भी दलाई लामा ने बातचीत के माध्यम से समस्याओं के निराकरण की इच्छा जताई थी।दलाई लामा ने मध्यम मार्ग अपनाया है ताकि दोनों पक्षों के बीच अविश्वास का वातावरण समाप्त हो, आपस में सौहार्द बढ़े और तिब्बतियों पर चीनियों का दमन रुके। दलाई लामा के लिए मुख्य मुद्दे तिब्बती लोगों की, उनकी संस्कृति की, उनकी अस्मिता की तथा उनकी सभ्यता की सुरक्षा रहे है।लेकिन चीनी सरकार तिब्बतियों की इन समस्याओं पर संवाद करने के बजाय दलाई लामा की तिब्बत वापसी, दलाई लामा का तिब्बत में रहने का अधिकार तथा दलाई लामा की चीन शासित तिब्बत में हैसियत आदि मुद्दों पर सारी बातचीत को उलझाती रही है।
दलाई लामा का सुझीव है कि आपसी बातचीत के माध्यम से चीन की तिब्बत में हान चीनियों को भारी संख्या में बसाने की नीति को समाप्त करना का,तिब्बती लोगों के मूल अधिकारों तथी लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं की रक्षा, तिब्बत का विसैन्यीकरण व denuclear-isationकरना । दलाई लामा तिब्बतियों से संबंधित सभी मामलों तथा पर्यावरण पर तिब्बतवासियों का नियंत्रण चाहते हैं। दलाई लामा के लिए तिब्बत का मतलब पूरा तिब्बत प्रदेश है न कि केवल वे जिले जिन्हें चीन तिब्बत स्वायत क्षेत्र कहता है। उल्लेखनीय है कि तिब्बत के कुछ जिलों को चीन ने अन्य प्रान्तों में मिला दिया है।
सोलोमन एम कारमल,1995-96 में पैशिफिक अंफेअर में छपे अपने लेख में चीन की तिब्बत नीति का चीनी स्त्रोतों के आधार पर विष्लेषण करते हैं। उन्होंने चीनी नेताओं को उद्धृत करते हुए दर्शाया है कि तिब्बत में चीन की भूमिका में खामियां रही हैं।मसलन्1980 में अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान हूयावपांग, उस समय के कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष ने माना कि उनकी पार्टी के 30 साल के शासन के बावजूद तिब्बती लोगों की स्थिति में सुधार नही हुआ था। तिब्बती लोगों की स्थिति में सुधार के लिए हू सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना तथा सत्ता स्थानीय लोगों को सोंपना चाहते थे।तिब्बतियों में चीनी शासन को मान्य बनाने के लिए हू तिब्बती संस्कृति का (सीमित ही सही) पुनर्रुत्थान करना चाहते थे। हालाकि पार्टी नेताओं ने हू की इन नीतियों का विरोध किया। फिर भी 1985 -88 के बीच तिब्बत में शासन की बागडोर वूचिंगहुवा, दोरजी जरिगं(अल्पसंख्यक नेताओं) के हाथ में थी ।इन दोनों नेताओं ने थोडी बहुत सांस्कृतिक स्वायत्ता देने की कोशिश की। वू स्वयं यी जनजाति से थे तथाअपने प्रशासकीय जीवन का अधिकांश समय अल्पसंख्यकों के मामलों के विभागों में खासकर तिब्बत संबधी मामलों के बिभागों में बिताया। वू तिब्बत में हूयावपांग की नीतियों को लागू करने की कोशिश कर रहै थे। पूरे चीन में इस दौरान हूयावपागं की नीतियां का विरोध होरहा था। हूयावपागं को उनके पद से हटा दिया गया था।
तिब्बतियों का विश्वास जीतने के लिए वूचिंगहुवा ने पार्टी के तिब्बत स्वायत क्षेत्र के सचिव का कार्यभार संभालते अपना पहला भाषण तिब्बती लिबास पहन कर दिया । इसके साथ ही अपने पूर्ववर्ती नेताओं द्वारा लगाए गए क्रांतिकारी पोस्टर तथा बैनर हटा दिये ।शहरों ,कस्बों, सड़कों व गलियों के क्रांतिकारी नाम हटा कर पुराने तिब्बती नाम रख दिये। वूचिंगहुवा तिब्बती संस्कृति के पुनर्रुद्धार के लिए जमीन तैयार कर रहे थे। वूचिंगहुवा ने माना कि तिब्बत में चीन का विरोध क्रान्तिकारी नीतियों की वजह से था। वू ने तिब्बती लोगों को भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, मकान व नौकरियों में धांधली के मामलों में शिकायत करने की छूट दी। वू ने तिब्बती भाषा, इतिहास, व संस्कृति के अध्ययन पर जोर दिया। तिब्बती क्षेत्रीय नेताओं तथा तिब्बती क्षेत्रीय सरकारों की भाषा भी तिब्बती करने का सुझीव दिया। वू तिब्बती भाषा के शिक्षण का स्तर भी सुधारना चाहते थे। वू ने माना कि तिब्बतियों में साक्षरता दर नही बढ़ी है वू तिब्बती व चीनी भाषा दोनों की शिक्षा का स्तर सुधारना चाहते थे।साहितिक व कलात्मक कृतियों के रीजनीतिक नजरिये से जाचने की प्रक्रिया को समाप्त करने का सुझाव दिया तथा तिब्बती बुद्धिजीवियो और साहित्यकारों पर लगाए गए आरोपों को वापस लेने के भी सुझाव दिये।
धर्म के मामले में भी वू का रवैया उदार था।उन्हों ने लोगों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने की चीनी आदत की भर्तसना की।साथ 1959-76 के बीच तोड़े गए मठों की मरम्मत की योजना भी बना डाली। पंचन लामा के चीनी सरकार के समर्थन के बावजूद उन्हें चीनी सरकार की ज्यादतियो का शिकार होना पड़ा।1964 से 1982 तक उन्हें आन्तरिक निर्वासन में रखा गया। श्रम शिविर में रख कर शारीरिक श्रम कराकर उनकी विचारधारा सुधारने का उपक्रम किया गया। पंचनलामा की ताशिलहुन्पो मठ में तोड़फोड़ की गई। इस मठ के सभी पवित्र ग्रंथों तथा पिछले पांच पंचन लामाओं के अवशेषों को भी नष्ट कर दिया। ये अवशेष पंचन लामा के मंदिर में श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए रखे थे।
वूचिगंह्वा के पार्टी के तिब्बत स्वायतक्षेत्र के सचिव का कार्यभार संभाल ने के बाद पंचन लामा ने अपना मुह खोलने की हिमाकत की। उन्होंने दलाई लामा को आध्यात्मिक गुरु माना तथा कहा कि उन्हें ल्हासा आकर बसने की स्वतंत्रता होनी चाहिये। पंचनलामा ने पुलिस का बौद्ध भिक्षुओं के साथ की गई मारपीट, उनकी गैरकानूनी गिरफ्तारी,उनके साथ हुई गोलीबीरी का भी खुलासा किया। 1959 के बाद बौद्ध मेदिरों में की गई तोड़फोड़, तिब्बती त्यौहारों पर प्रतिबन्ध की घटनाओं की भी पंचन लामा ने मुखाल्फत की।चीनी सरकार ने तिब्बतियों की सास्कृतिक एकता को तोड़ने की साजीश ने पंचन लामा को सर्वाधिक दुखी किया। वूचिंगहुवा को शीघ्र ही हटा दिया गया।नए सचिव ने इस प्रकार की किसी नीति के अस्तित्ल से ही इनकार कर दिया। दी। 1989 के बाद वू का नीतियां वापस ले ली गई।
जिस समय वूचिंगह्वा पार्टी की तिब्बत शाखा के मुखिया थे दोरजी जरिंग तिब्बती सरकार के मुखिया थे।दोरजी स्वयं तिब्बती मूल के थे, तथा तिब्बत में ही 1959 से सरकारी कर्मचारी रहे। प्रारंभ में स्थानीय स्तर पर कार्यरत रहे। धीरेधीरे उन्नति करते करते शीर्ष पद पर आसीन होगए। उनका मुख्य उद्देश्य तिब्बत की अर्थव्यवस्था का विकास था।दोरजी ने माना कि चीन की संसद की अल्पसंख्यक क्षेत्रों की विशेष समश्याओं के बारे में जागरूक नही थी। उनको उमीद थी कि हूयावपांग के सहयोग से प्रदेश की गरीबी दूर करने के लिए विशेष पैकेज मिल जायगा। दोरजी ने अधिक संख्या में अल्पसंख्यक काडरों के प्रशिक्षण पर भी जोर दिया.साथ ही उन अतिवामपंथी गल्तियों की समाप्ति पर जोर दिया जिनकी वजह से लोगों को अन्याय और मनोवैज्ञानिक दमन भुगतना पड़ा है। दोरजी ने तिब्बती सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने तथा विकसित करने का संकल्प किया।
दिसम्बर 1988 को चीनी केन्द्रीय सरकार ने तिब्बत के पार्टी तथा सरकार का नेतृत्व परिवर्तन आरंभ कर दिया।वू को पार्टी के शीर्ष पद से हटा दिया गया। दोरजी को भी केन्द्र में नागरिक मामलों का मंत्री बनाकर तिब्बत से बाहर कर दिया गया।वह केन्द्र में मंत्री बनने वाले पहले अल्पसंख्यक थे। इस प्रकार तिब्बतियों को कुछ राहत मिले चाहे न मिले दोरजी को अपनी बफादारी का इनाम मिल ही गया। पंचन लामा की मृत्यु के कुछ सप्ताह बाद मार्च 8,1989 को सेना ने तिब्बतियों के विरोध को दबाने के लिए पूरे प्रांत में मार्शल ला लागू कर दिया। इस दौरान सेंकड़ों तिब्बतियों के मारे जाने का अनुमान है।दिस्मबर 1,1988 को हूचिनताओ को वूचिगंह्वा के स्थान पर पार्टी सचिव बनाया गया।साथ ही हू तिब्बत में तैनात सेना की कमान भी पार्टी की ओर से संभाले थे।हू हान चीनी हैं। तिब्बती जलवायु उन्हें रास नही आई।तिब्बतियों के दर्द को समझने के लिए तिब्बती होना या वहां की परिस्थितियों से अवगत होना तथा तिब्बत्यों की आशाओं और आकांक्षाओं के बारे मैं जानना चीनी सरकार व कम्युनिस्ट पार्टी को आवश्यक नही लगा।इसीलिए हू ने बेइचिगं में रहकर भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। बिना किसी लागलपेट के तिब्बतियों के साथ नरमी बरतने का दौर समाप्त कर दिया। 1987-9 के बीच में, चीनी सरकार के मुताबिक तिब्बत में 21 दंगे हुए।लेकिन अधिकतर विरोध प्रदर्शन शान्तिपूर्ण प्रदर्शन थे।लेकिन इन शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर सरकार ने गंभीर इल्जाम लगाए। चीनी सरकार का मुख्य भय अल्पसंख्यकों में बढ़ती जागरूकता, बढ़ता स्वाभिमान,आत्मगौरव,तथा गहराती राष्ट्रीयता की भावना से था। मार्शल ला अप्रेल 1990 में उठा लिया गया।लेकिन सैनिक प्रशासन में किसा भी प्रकार की ढील नही दी गई।स्वतंत्र विशेषज्ञों का अनुमान है कि 1993 में चीन का कुल राजनीतिक गिरफ्दारियों और सजाओं में से 80 प्रतिशत तिब्बत में हुई थी।1994 में इन गिरफ्दारियों में 90 प्रतिशत का इजाफा हुआ।
चीनी सरकार का दमन चक्र विरोध प्रदर्शन करने वालों के साथ साथ राजनीतिक, धार्मिक ,व शैक्षणिक संस्थाओं पर भी चल पड़ा । अविश्वसनीय काडरों का सफाया किया गया। मान्यताप्राप्त मठों से सैकड़ों भिक्षु भिक्षुणिनयोंको गिरफ्दार किया गयाशेक्षणिक संस्थानों को बन्द कर दिया गया सन् 1991में, आमदो के तिब्बती किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया। उनकी मुख्य मांगें थी उनकी बर्फीली जमीन उनके चारागाह उनको वापस सोंप दिये जांय।किसानों का कहना था कि वे भूख से मर रहे हं।चीनी सरकार ने इनको गिरफ्दार कर 12 से 15 साल तक की सजा दी। 2005 में अमेरिकी कांग्रेस ने चीनी अल्पसंख्यकों तथा सरकार के अल्पसंख्यकों के स्वायत्ता संबंधी कानून के पालन पर रिपोर्ट निकाली।
भेदभाव—अमेरिकी कांग्रेस की चीन में अल्पसंख्यको के मानव अधिकारों की स्थिति पर 2005 में छपी रपट के अनुसार चीन में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव सरकार व हान चीनी दोनों करते हैं।सरकार अल्पसंख्यकों की स्वतंत्र अस्मिता की भावना को दबाने की कोशिश करती है तो हान चीनी अपने कारोबार में अल्पसंख्यकों को रोजगार देना पसन्द नही करते।तिब्बत में भी सार्वजनिक क्षेत्र में ऊंचे पदों पर हान चीनियों का ही कब्जा होता है। रोजगार में हान चीनियों को तरजीह दिये जाने से उनका अल्पसंख्यकों के क्षेत्रों की ओर पलायन सुलभ होजाता है और अल्पसंख्यकों का अपने क्षेत्रों की जनसंख्या में अनुपात कम होजाता है। मसलन् 1949 में सिन्च्यांग प्रांत में हान चीनियों की आबादी कुल आबादी का केवल 6 प्रतिशत थी, जो अब बढ़ कर 40 प्रतिशत होगई है।तंग सियाव पिगं की बाजार सम्मत नीतियों के बाद इन क्षेत्रों में बसे हान चीनियों की आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार हुआ जबकि स्थानीय अल्पसंख्यकों की स्थिति बदतर हुई है।इस प्रकार चीन में अल्पसंख्यक, आज चौतरफा मार झेल रहा है।राजनीतिक तथा आर्थिक हासियाकरण के साथ साथ वह अपनी अस्मिता के संकट से भी जूझ रहा है। इसलिए चीन के अल्पसंख्यक समुदायों खासकर तिब्बत को दरकार है एक ईमानदार तथा सम्मानजनक समझौते की।
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