मंगलवार, 15 जुलाई 2008

राष्ट्रपति बुश!तोहरी महिमा अपरम्पार !!!

राष्ट्रपति बुश !तोहरी महिमा अपरम्पार। तोहि हमार प्रधान मंत्री को मूंछ की लड़ाई लड़ना सिखा दियो। पिछले चार साल से लालकृष्ण आडवाणी सबसे कमजोर रहने का ताना देत रहत पर प्रधान मंत्री के कान में जूं भी नही रेंगी। वह हमेशा की भांति शान्त और सहज लहजे में अपना काम काज निपटाते रहे। इस बीच देश के विभिन्न भागों में किसान आत्महत्या करते रहे। प्रधान मंत्री जी किसानों के लिए पैकेज की घोषणा कर शांत और सहज होगए। प्रधान मंत्री जी के पैकेज की घोषणा के बाद भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा है। लेकिन इससे प्रधान मंत्री जी के संयम और सहजता में कोई खलल नहीं पड़ा।कहीं भी उनकी मूंछ आड़े नही आई।
केन्द्र सरकार की सहमति से राज्य सरकारें में औने पौने दामों में किसानों की अमूल्य कृषि भूमि विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए हड़पने में लगी हैं।इससे पूरे देश के किसानों,दलितों,आदिवासियों में इस कदर हाहाकार मचा हुआ है कि एक बार तो सोनिया गांधी भी विचलित होगयीं। उन्होंने आनन् फानन् में चिट्ठी भी लिख डाली। पर कुछ नही हुआ। इसके बाद उनने भी आंखें मूंद ली। अपने प्रधान मंत्री जी!वे तो हमेशा की तरह शान्त और सहज भाव से परन्तु ताल ठोक कर कहते रहे कि विशेष आर्थिक क्षेत्र तो बनेंगे ही। कारण तथाकथित विकास के लिए ये आवश्यक जो माने गए हैं। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों की मार झेल रहे भारतवासियों का क्रंदन हमारे प्रधान मंत्री जी के संतुलन को नही डोला पाया। प्रधान मंत्री स्वयं जनता द्वारा चुन के नहीं आए तो क्या हुआ वे जनता की चुनी सरकार के मुखिया तो हैं। जनता के हित उनकी मूंछ का सवाल बनने चाहिये थे। पर नही बने। विदेशी पूंजी व बाजार आधारित तथाकथित विकास उनकी मूंछ का सवाल बना और उनकी मूंछ की रक्षा के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र धड़ल्ले से बन रहे हैं।
खुदरा क्षेत्र में बड़े व्यापारियों को प्रवेश से रेहणी पटरियों के दुकानदारों में हाहाकार मचा है। देश के बड़े बड़े शहरों को शंघाई या पेरिस बनाने की सनक में झुग्गीवासियों को उजाड़ा जारहा है पर उन बेघर होते लोगों की चीत्कार प्रधान मंत्री जी की नीद हराम नहीं करती।यही हाल देशवासियों की अन्य ज्वलन्त समस्याओं का है। कहां कहां तक गिनाएं। प्रधान मंत्री अवश्य अपने देश के हैं पर चुनाव का डर उन्हें नहीं है। चुन के कभी आए ही नही। अपनी जनता का रहनुमा बनने का स्वाद तो कभी चखा ही नहीं। हां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रहनुमा नही बनने का खमिजाना क्या होगा यह शायद उन्हें खूब मालूम है। इसीलिए देश हित, सरकार के अस्तित्व की सुरक्षा की चिंता छोड़ उन्होंने भारत अमेरिका परमाणु संधि को नाक का और मूंछ का सवाल बना दिया है। हमें यह नही भूलना चाहिये कि इस नाक का और मूंछ का सवाल के पीछे अमेरिकी पूंजी का, बुश का सतत् दबाव रहा है। 21वी सदी के गणतंत्र की यही बिडम्बना है कि जनता द्वारा चुनी गई सरकारें जनता के दबाव में तो आती नही परन्तु विदेशी दबाव के सामने दोहरी हुई जाती है। हमार प्रधान मंत्री कोई अपवाद नही हैं । वह गांधी- नेहरु की कांग्रेस पार्टी के प्रधान मंत्री है पर उनका ब्यवहार भारतीय गणतंत्र के प्रधान मंत्री का सा नहीं लगता। अमेरिकी पूंजी के हितों के संरक्षण के बाद उनका मकसद नेहरु-गांधी परिवार के हित संरक्षण हो सकता है पर इस देश के आम जनता के हितों से उनको कोई सरोकार नही है।यह पिछले चार साल के उनके शासन में साफ होगया है