शनिवार, 7 मई 2016

जनता को भरमाने की राजनीति कब तक



जनता को भरमाने की राजनीति कब तक

हिमालय आग में जल रहा है। मैदानी भाग पानी पानी कराह रहा है। संसद का अधिवेशन चल रहा है। सरकार के पास विपक्षी दलों के साथ मिल कर  जनता की इन कठिन समस्याओं का फ़ौरी तथा दीर्घ क़ालीन समाधान खोजने का सुनहरा अवसर था। दुर्भाग्य से  आमजन के सरोकार देश की सरकारों की प्रार्थमिकता नहीं रह गए हैं। सभी राजनीतिक दल जनता को भ्रमजाल में फँसाए रखना चाहते हैं। २०१४ का आम चुनाव भ्रष्टाचार को समाप्त करने के वादे पर लड़ा गया। प्रधान मंत्री के उम्मीदवार अपनी  सभाओं में भ्रष्टाचार के मामलों के समयबद्ध निपटारे तथा भ्रष्टों को शीघ्र ही सलाखों के पीछे डालने का वादा करते रहे। लेकिन जिस कांग्रेस को उन्होंने भ्रष्ट बताया और कांग्रेस मुक्त भारत का अलोकतांत्रिक  नारा लगाया उसी कांग्रेस के नेताओं को भाजप के टिकट पर चुनाव लड़ाया। उन्होंने यह बताने की भी जरुरत नहीं समझी कि किस मापदंड के आधार पर ये नेता इमानदार हॆ।अच्छे दिनों की उम्मीद में जनता ने भी कोई सवाल नहीं पूछे।
चुनाव के बाद सत्तासीन लोगों के अलावा किसी के भी अच्छे दिन तो आए नहीं। भ्रष्टाचार के मामलों के समयबद्ध निपटारे का वादा सरकार भूल गई।भूलना ही था । भष्टाचार नहीं रहेगा तो जनता को भरमाएँगे कैसे। विपक्षी से अपनी कमीज को अधिक सफेद कैसे बताएंगे। दो साल बाद जब सोगों को विश्वास हो गया कि एक बार फिर वे ठगे गए। बिल्ली के भाग से छींका टूट गया।इटली की एक अदालत ने अगुस्तावैस्टलॆड के मामले में घूस देने वालों को सज़ा दी तो हमारे जन प्रतिनिधियों ने एक बार फिर भ्रष्टाचार का मामला मायूस लोगों को भरमाने के लिए उछाल दिया।सत्तासीन दल भूल गया है कि वह सत्ता में है और उसका कर्तव्य राजनीतिक बयान देना नहीं है वरन अपने तंत्र की मदद से सारे भ्रष्टों पर नकेल कसना है।लेकिन यह वह कर नहीं सकता।उसने भ्रष्टों से कभी परहेज़ नहीं किया है। वहां भ्रष्टों तथा अपराधियों की कमी नही है। अत: राजनीतिक बयानबाज़ी से जनता के अलावा कुछ कर नही सकते। जनता को भरमाने का यह मिशन जारी है।
लेकिन आज बड़ी विकट स्थिति है। पूरे देश के तेरह राज्यों अकाल है यहसरकार ने सुप्रीम कोर्ट को लिख कर बताया है। स्वराज अभियान का कहना है कि कई और राज्य भी गंभीर सूखे का सामना कर रहे हैं। परंतु पता नहीं किन कारणों की वजह से उनको सूखाग्रस्त नहीं घोषित किया गया है। सरकार कहती है 33 करोड़ लोग गंभीर पानी के संकट का सामना कर रहे हैं। स्वराज अभियान यह आँकड़ा 54करोड़ बताया है। यह संकट अप्रत्याशित भी नहीं है। स्वराज अभियान पिछले आठ दस महीने से विभिन्न माध्यमों से सरकार, प्रशासन तथा नागरिक समाज को आगाह करने की कोशिश कर रहा है कि देश का बड़ा भूभाग  सूखे की चपेट में आने वाला है। परंतु पूरा सरकारी तंत्र कान में तेल डाल कर सोया रहा। मीडिया भी मध्यवर्गीय शहरी या भावनात्मक (sensational) मुद्दों को उठाकर अपनी टी पी बढ़ाने को ही प्राथमिकता देता रहता है। अब मीडिया तो जाग गया है। रोज़ किसी न किसी चैनल पर पानी के लिए जाती कुपोषित , अंगारे जैसी धरती पर नंगे पाँव जाते बच्चे, औरतें तथा लड़कियाँ दिखाई जाती हैं। मीडियां में दिंखाई जा रही इन हृदयविदारक दृश्यों से हमारी सरकारों (केंद्र तथा राज्य) दोनों के दिल नहीं पसीजे हैं। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में विभिन्न राजनीतिक दलों के मंत्रियों व मुख्य मंत्रियों को धूल मिट्टी से बचाने के लिए हवांई पट्टी पर हजारों लीटर पानी छिड़के जाने के समाचार मीडीया में आते रहते हैं। २४ अप्रेल को प्रधान मंत्री (जो स्वंय को प्रधान सेवक भी कहतेहैं।) ने मन की बात में भी पानी के लिए तरस रह लोगों के लिए कोई आश्वासन नहीं था। हाँ उन्होंने मौसम विभाग की अच्छी बरसात की भविष्यवाणी दुहरा दी। बरसात के पानी के संचयन के कुछ लोगों के निजी प्रयत्नों का ज़िक्र कर प्रधान सेवक जी ने यह संदेश भी अप्रत्यक्षरूप से दे दिया कि पानी का इंतज़ाम करना इंसानों की निजी ज़िम्मेदारी है। 
ndtv ने दो अप्रेल को बताया कि प्रधान मंत्री ने अपने सांसदों को सरकार के काम का ठीक से प्रचार नहीं करने के लिए क्लास ली। समझ में नहीं आया जब लोग पानी के लिए त्राहि त्राहि कर रहे हैं केवल लातूर को पानी की रेल भेजने के अलावा सरकार ने कोई काम नहीं किया है(रवीश कुमार ने अपने एक प्राइम टाइम में बताया कि लातूर में यह पानी लातूर शहर के लिए है । गांव के लोग आज भी पानी के लिए तड़प रहे हैं।) तो सांसद अपने निर्वाचने क्षत्रों के प्यासे लोगों को क्या उपलब्धियों बताएँगे। बड़ी अजीब बिडम्बना है। अधभूखे लोगों को पानी के लिए संघर्ष करते देखो तो देश के लोगों की दुर्दशा पर मन दुखी होता है। पर जब संसद आते जाते चिकने चुपड़े सांसदों को देखो तो लगता है भ्रष्ट कांग्रेसियों के अलावा देश के सामने कोई समस्या नहीं हो।अघाए लोग इन कांग्रेसियों के साथ नूरा कुस्ती कर अपना व अघाई हुई जनता का मन बहलाते हैं। भला हो राजनीति में भ्रष्टाचार का इसने साफ सुथरी राजनीति का वादा कर कइयों को सत्ता का स्वाद चखा  दिया। 
सबसे पहले वी पी सिंह ने बोफ़ोर्स का मुद्दा उठाया। चुनाव के समय ऐसा माहौल बनाया कि लगा सत्ता में आते ही वे दूध का दूध पानी का पानी कर देंगें।सत्ता में आने के बाद कुर्सी बचाने के लिए वह मंडल कमंडल के चक्कर में फँस गए। बेचारी जनता को संप्रदायिक दंगों की आग मे झुलसना पड़ा। उसके बाद विपक्ष में रह कर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना, सत्ता पाते ही भूल जाना राजनीतिक दलों का सहगल हो गया है। वे बेचारे करें भी क्या । जनता के सामने वे चाहे एक दूसरे की कितनी ही टाँग क्यों न खींचें  खाने पीने के मामले में वे एक ही होते हैं। इसलिए जितने भी घोटाले हुए हैं उनमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के लोग  दोनों ही लिप्त पाए जाते हैं। कोई भी दल यह दावा नहीं कर सकता है कि उसके सांसद व विधायकों में बाहुबली नहीं हैं। सभी के कुछ जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध गम्भीर अपराधिक मामले दर्ज हैं।सभी के हित में है कि समयबद्ध तरीक़े से न्यायालयों में  इन मामलों का निपटारा न हो। इसीलिए प्रधान सेवक जी भी अपने इस वादे को भूल गए। अत: जनता को भरमाने के लिए ही भ्रष्टाचार की हवा तो बनाई जाती है। सत्ता पाने के बाद कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं। लेकिन जनता कब तक भरमाई जाती रहेगी।


गुरुवार, 28 जनवरी 2016

प्रायश्चित्त करना हमें नहीं आता----




प्रायश्चित्त करना हमें नहीं आता----
दलित शोध छात्र रोहित की आत्महत्या ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। सर्वप्रथम मीडिया में आए सभी दस्तावेज़ दर्शाते हैं कि दो केन्द्रीय मंत्रियों के हस्तक्षेप के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने आसा से जुडे पाँच दलित छात्रों का प्रताड़न (मसलन सामाजिक बहिष्कार, उनका विश्वविद्यालय से निष्कासन तथा उनकी छात्रवृति के भुगतान को रोक कर) शुरु कर दिया गया। 18 दिसम्बर 2015 को रोहित ने कुलपति को लिखे अपने एक पत्र में हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्रों के साथ भेदभाव पर अपनी हताश मन:स्थिति का ख़ुलासा कर दिया था।इस पत्र में दिवंगत छात्र ने वी सी से अनुरोध किया था कि वी सी दलित छात्रों को विश्वविद्यालय में प्रवेश के समय ही इच्छा मृत्य के लिए ज़हर उपलब्ध कराएँ,तथा छात्रावास के वार्डन के माध्यम से छात्रावास में दलित छात्रों को रस्सी बटवाएं।  परन्तु रोहित की इस हताशा से असंवेदनशील प्रशासन और केन्द्रीय सरकार का दिल नहीं पसीजा। छात्रावास से निकाले जाने के बाद पैसे से मोहताज रोहित व अन्य शोधार्थी खुले आकाश के नीचे सोने को मजबूर कर दिये गए।जब रोहित ने अपनी जान दे दी तो इस दुखद घटना के लिए ज़िम्मेदार तत्व अब इससे अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। सत्ताधारी दल के प्रवक्ता ग़लती मानने , प्रायश्चित करने, प्रताड़ित छात्रों को शीघ्र न्याय दिलाने ,पीड़ित परिवार को राहत देने तथा उसके पुनर्वास के क़दम उठाने का आश्वासन देने के बजाय प्रताड़ित छात्रों के संगठन पर देशद्रोही व जातिवादी राजनीति करने का आरोप लगाने में लगा रहा।
सत्ताधारी दल के इस अमानवीय और असंवेदनशील रुख़ से कई सवाल  उठ रहे हैं। सर्वप्रथम, प्रशासन के हर स्तर पर नागरिकों की अवांछित गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए गुप्तचर संस्थाएँ हैं। यदि कोई नागरिक अवांछित गतिविधियों में लिप्त रहता है तो उसके विरुद्ध सरकारी विभाग कार्यवाही करते है। फिर किस अधिकार के तहत केंद्रीय श्रम मंत्री इन छात्रों के संगठन को देशद्रोही बता रहे हैं। सत्ताधारी दल से जुडे विद्यार्थी संगठन  का विरोध करना राष्ट्रद्रोह कैसे हो सकता है। आम नागरिक पर इस प्रकार के अवांछित आरोप लगाने वाले नेताओं के विरुद्ध कोई कार्यवाही क्यों नहीं होनी चाहिये। क्या आम नागरिक की ऐसे आरोप लगने से मानहानि नहीं होती। एच आर डी मिनिस्टर ने कैसे श्रम मंत्री के इन अनर्गल आरोपों वाले पत्र को कठोर कार्यवाही के लिए विश्वविद्यालय को भेज दिया। उन्हें पूछना नहीं चाहिये था कि अवांछित गतिविधियों की जाँच के लिए अलग तंत्र है जो अपना काम प्रोफेशनली करता है। इसलिए वह अनर्गल आरोपों वाले इस पत्र पर कार्यवाही नहीं करेगी। यदि कार्यवाही करने का आदेश उनके मंत्रालय ने दिया है तो क्या उन्हें इसकी ज़िम्मेदारी लेकर पश्चाताप नहीं करना चाहिये। जितनी ज़ोर से वह टी वी चैनलों में दहाड़ती थी विरोध दलों की कमियाँ गिनाती थी। उतनी ही शिद्दत से अपनी गल्ती क्यों नहीं मान लेती और परिणाम भुगतने को तैयार क्यों नहीं होती।शायद उसके लिए जिस साहस की जरुरत होती है वह दहाड़ने से नहीं आती। यदि यह सब करने की हिम्मत नहीं है तो कम से कम सत्तारूढ़ दल आज यह रिज़ोल्यूशन तो ले ही सकता है कि भविष्य में अपनी आलोचना तथा अपनी विचारधारा व नीतियों का विरोध करने वालों के घर ऐसे नहीं उजाड़ेगा। जैसे रोहित की माँ का उजाड़ा है। विरोध करने वाले ही सही पर वे इस देश की अमानत हैं इसका भविष्य हैं ।उससे खिलवाड़ करने का अधिकार सत्तारूढ़ दल को लोकतंत्र में नहीं होता।
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के अलावा उच्च शिक्षा के अंय संस्थानों में दलित व आदिवाली छात्रों के साथ संस्थागत भेदभाव होता रहा है। रोहित के बलिदान के बाद दलित व आदिवाली छात्रों के साथ इस तरह के संस्थागत भेदभाव को समाप्त करने के लिए सभी उच्च शिक्षा के संस्थानों में प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिये। यही रोहित को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।





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गुरुवार, 27 अगस्त 2015


मृदुभाषी, नरम दिल नन्हा   खरगोश
झुलसाने वाली गर्मी आगई थी। पेड़ों में बैठी छोटी छोटी चिड़िया गर्मी से त्राहि त्राहि कर रही थी। सफेद रंग के सुन्दर से प्यारे सा नन्हा खरगोश इस सबसे बेखबर था। उसने फूलों वाली खूबसूरत स्कर्ट पहनी थी। वह जमीन पर धमा चौकड़ी मचा रहा था। गाना गुनगुना रहा था। वह खुश था कि वह जंगल के दूसरी तरफ जाकर मशरूम इकट्ठा करने जारहा था। लेकिन उस पार जाने का रास्ता बहुत ही संकीर्ण था। एक बार में केवल एक ही जानवर इससे गुजर सकता था। नन्हा खरगोश उस पुल में  घुसने ही वाला था कि  उसने देखा कि एक भारी भरकम पहाड़ी बकरा दूसरी ओर से पुल में घुसने की कोशिश कर रहा था। मोटे ताजे पहाड़ी बकरे को पुल में घुसते देखते ही खरगोश पुल से वापस लौट आया और जोर से बोला पहाड़ी बकरे ताऊ जी पहले आप पुल पार कर लें। पहाड़ी बकरे ने आंख में मोटी ऐनक पहन रखी थी। वह बैसाकियों के सहारे पुल पर धीर धीरे चल रहा था। रास्ता संकरा तथा ऊबड़ खाबड़ था। थोड़ी सी चूक होने पर पहाड़ी बकरा नीचे गिर सकता था। नन्हे खरगोश को बहुत घबराहट होरही थी। वह डर रहा था कि कहीं पहाड़ी बकरा अपना संतुलन न खो बैठे और नीचे गिर जाय। इसलिए वह जोर से चिल्लाया पहाड़ी बकरे ताऊ जी ध्यान से चलिये। धीरे धीरे पुल पार कीजिये। पहाड़ी बकरा जब पुल के उस पार पहुच गया तो उसने बड़े प्यार से नन्हे खरगोश का सिर सहलाया और बोला तुम वास्तव में बहुत नरम दिल बच्चा हो।


शुक्रवार, 29 मई 2015

नन्हीं चिड़िया की मार्मिक कहानी



नन्हीं चिड़िया की मार्मिक कहानी


चार दिन पहले वह अपने भाई बहिनों के साथ अपने घोंसले में रह रही थी। मुझे हवा तक नहीं थी कि मेरे स्टोर की खिड़की के सिल में उसके माता पिता ने बड़ा सा घोंसला बनाया था। सोमवार 25 मई की सुबह सहायिका घबराई हुई आई और बताया कि जब उसने उस कमरे में झाड़ू लगाया सब कुछ ठीक ठाक था। लेकिन अब वहां पर एक चिड़िया का बच्चा अपने घोंसले के एक हिस्से समेत नीचे गिरा है। मैं उसके साथ देखने गई तो पाया यह बाचाल बच्चा घबाराया हुआ जोर जोर से चिल्ला रहा था। हमें देख कर वह आक्रमक होगया और दन्तविहीन चोंच से काटने की धमकी देरहा था।।हमारी पहली चुनौती उसको स्टोर रूम से बाहर निकालना था ताकि वह डर के मारे किसी कोने में नहीं दुबक जाए और बिना दाना पानी के मर जाए। वह बहुत घबराया हुआ था।उसको चोट भी आई थी। वह किसी भी कीमत पर वहां से बाहर नही आना चाहता था। बड़ी मुश्किल से उसे बरामदे में लाए। अपनी पोपली चोंच से वह हमें काटने आरहा था,जोर जोर से चीं चीं चिल्ला रहा था और स्टोर में वापस जाने की कोशिश कर रहा था। बरामदे में भी वह हमारी छाया से भी दूर भाग रहा था। चोट के बावजूद एक किनारे से दूसरे किनारे भाग रहा था। मैंने उसके लिए वहां पर दाना पानी रखा । पर वह इतना छोटा था कि खुद से दाना पानी खाना पीना नही जानता था। सारे दिन वह मुझे अपना दुश्मन ही समझ रहा था।शाम तक भूख ने डर पर विजय पा ली थी। बरामदे में गमले के पीछे से उसने मुझे देखते ही अपना पोपला मुह खोल दिया। मुझे  समझ में नहीं आया कि उसे कैसे और क्या खिलाया जाय। मैं ने मां से पूछा।  मां ने कहा उबला आलू मसल के खिला दो। उसने आलू खाया पानी पिया और एक कोने में छुप गया। दूसरे दिन उसी कोने से वह आपना पोपला मुह खोल कर खाना मांगने लगा। उस कोने तक हमारी हाथ नहीं पहुचता था। इसलिए हम उसका वहां से निकलने का इंतजार करते रहे। दुश्मनी समाप्त होगई थी। अब वह हम पर विश्वास करने लगा था।थोड़ी सी देर में वह कमरे के दरवाजे पर था और हमें देखते ही अपना प्यारा सा पोपला मुह खोल दिया। मेरी मां ने उसे आलू खिलाया पानी पिलाया और वह हमारे परिवार का हिस्सा बन गया। अब उसको हमसे कोई डर नही था।मैंने उसको बैत की टोकरी में रख दिया। लेकिन चैन से बैठना उसके स्वभाव में नही था। उसके पांव व पंखे चोटिल थे फिर भी वह उस टोकरी से बाहर निकल आया।उसको हमसे बहुत सारी बातें करनी थी।इसलिए कमरे में वह मेरे पीछे पीछे चूं चूं करता  आरहा था। उसका ब्यवहार उस छोटे से पिल्ले की तरह था जो हर समय अपने मालिक का प्यार पाने के लिए उसके आगे पीछे दुम हिलाते चलता रहता है।  यह बच्चा भी न जाने क्या क्या कहना चाह रहा था।हर समय चौकन्ना हमें देखते ही प्यारा सा पोपला मुह खोल देना,या चूं चूं करना। खाना पसन्द नही आया तो गर्दन झटक कर थूक देता। फौन पर बात करने पर भी वह पांव के पास खड़ा होकर चूं चू करता रहता था। कुछ पढ़ने लगू तो चप्पलों के पास बैठ जाता।टोकरी में चुपचाप आराम करना  उसको बिलकुल नहीं भा रहा था। कल जिस सहायिका को डर के मारे पोपली चौंच से काटने जारहा था आज उसको काम करते जाते देखते ही प्यार से पोपली चोंच खोल देता और कुछ खिलाने का आग्रह करता। पड़ोसियों के साथ भी उसकी खूब बातचीत हुई। यदि वे मुझसे बात करने लग जाते तो वह जोर जोर से चूं चूं करने लगता। पुचकारने पर शांत हो जाता। फिर गरदन लम्बी करके पोपला मुह खोल देता।

आलू से अब वह बिस्कुट पर आगया था। बड़े मन से खाना पानी मेरी मां के हाथ से खाता। पेट भर जाने पर मुह बन्द कर देता। परसों रात यानी मंगलवार 26 मई वह अपनी टोकरी में सोया। बुधवार की सुबह उठा ठीक ठाक खाना खाया। लेकिन दिन में सोता रहा। हमने सोचा थका होगा।शाम को भी सुस्त था। पर खाना खाया। रात को सो गया।बीरवार की सुबह वह पस्त पड़ा था। उसने आखें भी नहीं खोली। धीरे धीरे उसकी हालत बिगड़ती गई सुबह नौ साढ़े नौ बजे उसने आखरी पौटी की और दम तोड़ दिया।  अंतिम समय जानकर मेरी मां ने उसके सामने बैठकर गीता पाठ किया।सहायिका ने उसे मिट्टी में दफनाया। शायद अपने धर्म के अनुसार कोई प्राथना की हो। इस चिड़िया के साथ बिताए तीन दिनों में एक एहसास बार बार सालता रहा कि हम चिड़ियों के बार में कितना कम जानते हैं।मां नही होती तो चाह कर भी मैं उसको खाना नहीं खिला सकती। मुझे सत्यजीत रे की बच्चों की कहानियां याद आती हैं जिनके कई नायक पक्षियों की तथा जंगली जानवरों की भाषा बोलना जानते ।   नन्ही चिड़िया तुझको सलाम।