शुक्रवार, 15 मई 2009

इस रंग भेद के क्या कहने?

हरिद्वार में 13मई को स्वामी रामदेव ने वोट देने के बाद कहा कि विश्व के कई अंय देशों की भांति भारत में भी कानूनी तौर पर वोट डालना आवश्यक कर देना चाहिए।उनका मानना है कि शत प्रतिशत वोट पड़ने से राजनीति में अनपढ़ व बेइमान लोग नहीं आने पाएंगे।बाबा इस बात से व्यथित थे कि लोग चंद रुपयों और दारू की बोतल में अपना वोट बेच देते हैं जो लोकतंत्र और देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।बाबा राजनीति में भ्रष्ट लोगों का बोलबाला होने से भी चिंतित थे। इन भ्रष्ट लोगों के आगे समाज के ईमानदार लोगों की विवशता व लाचारी भी बाबा को खलती है। विदेशी बैंकों में जमा काले धन को देश में वापस लाना भी बाबा को अहम लगता है। चुनाव के बाद बाबा इस धन को वापस देश में लाने के लिए जोरदार मुहिम चलाने का वादा कर रहे हैं।(14 मई 2009 की जनसत्ता) इस रिपोर्ट के अनुसार बाबा अनपढ़ और बेईमान को तराजू के एक ही पलड़े में रख रहे हैं। चुनाव में भ्रष्टाचार भी बाबा को केवल दारू की बोतल और वोट पाने के लिए नोट बाटने में ही दिखता है।चुनाव प्रचार में जो अथाह धन राजनीतिक दल व प्रत्यासी दोनों लगाते हैं उस पर बाबा की नजर नहीं जाती।राजनीतिक दलों तथा प्रत्यासियों के पास यह अकूत संपत्ति आती कहां से है?इतनी विशाल राशि राजनीतिक दलों को दान देने वाले औद्योगिक और व्यापारिक घराने इस संपदा का अर्जन क्या ईमानदार तरीके से करते हैं? क्या आम भारतीय गरीब, अनपढ़, व बेराजगार इन औद्योगिक और व्यापारिक घरानों की ईमानदारी के बावजूद हुआ है या अपने निहित स्वार्थ सिद्धि के लिए इन द्वारा अपनाए गए भ्रष्ट तरीकों की वजह से हुआ है? संसद और विधान सभाओं में कितने सांसद व विधायक इन घरानों से धन लेकर इनके हितों का संरक्षण और संवर्धन करते हैं ?इसका हिसाब किताब भी शायद बाबा ने नहीं रखा है।लेकिन बाबा तो आकड़ों के सहारे अपनी बात कहते हैं ।ये आकड़े बाबा के पास नहीं होना आश्चर्यजनक है।बाबा को भक्त लाखों करोड़ों का दान किस पैसे से देते हैं? क्या बाबा ने दानियों पर यह शर्त रखी है कि वे ईमानदारी से कमाए गए सफेद धन ही दान में स्वीकार करेंगे? यह सब कहने का लुब्बों लबाव यह है कि पढ़े लिखे सुविधा-संपंन लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जिस हद तक भ्रष्ट व गैरकानूनी तरीके अपनाते हैं उसकी तुलना में गरीबों द्वारा फैलाया गया भ्रष्टाचार बहुत कम है। पढ़े लिखे सुविधा-संपंन, औद्योगिक और व्यापारिक घराने तथा राजनीतिज्ञ किस प्रकार इस देश की संपदा और गरीब को लूटते हैं इसकी एक बानगी शिरीष खरे ने पेश की है।




शिरीष खरेमुंबई मेहनतकश मजदूरों की बदौलत चलती है. जिस रोज उन्होंने अपना हाथ रोका, यह शहर भी रूक जाएगा. इतनी अहम हिस्सेदारी होने के बावजूद उनकी जिंदगी मलिन बस्तियों में गुजरती है. क्योंकि देश की पूरी तरक्की खास शहरों को केन्द्र में रखकर हुई इसलिए कई दलित, आदिवासी, मछुआरा, कामगार और कारीगर अपने माहल्लों से उजड़कर यहां आए. लेकिन अमीर खानदान उन्हें `अतिक्रमणदार´ कहते हैं. ऐसा कहते वक्त गंदगी का एहसास उनके चेहरे पर आकर सिकुड़ जाता है. जबकि सच यह है कि आखा मुंबई पर बिल्डर, ठेकेदार और माफिया के गठजोड़ का राज है.जिन्होंने समुंदर के किनारों और रास्तों को गैरकानूनी तरीके से हथिया लिया है. 10/12 की लाखों झुग्गियां तोड़ने वाली सत्ता का ध्यान इस तरफ नहीं जाता. महाराष्ट्र या बाकी राज्यों से आए गरीब लोग मुंबई के दुश्मन नहीं होते. जिन लोगों की वजह से मुंबई अस्त-व्यस्त आता हैं उनके काले कारनामों पर रोशनी डाली जानी चाहिए. अट्रीया शापिंग माल महापालिका की जमीन पर बना है. यह 3 एकड़ जमीन 1885 बेघरों को घर और बच्चों को एक स्कूल देने के लिए आवंटित थी. लेकिन बिल्डर ने गरीबों का हक मारकर अपना कारोबार तो खड़ा किया ही कई कानूनों को भी तोड़ा. इसी तर्ज पर हिरानंदानी गार्डन मुंबई में घोटाला का गार्डन बन चुका है. इस केस में शहर के बड़े व्यपारियों को 40 पैसे एकड़ की दर पर 230 एकड़ जमीन को 80 साल के लिए लीज पर दिया गया. ऐसा ही एक और इकरारनामा ओशिवरा की 160 एकड़ जमीन के साथ भी हुआ. इसके अलावा दो और घटनाओं पर गौर कीजिए. पहले जमीन सीलिंग कानून का रद्द होना और उसके बाद कुछ अमीरों का 3000 एकड़ जमीन पर राज चलना. यह दोनों बातें एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं बल्कि काफी घुली-मिली लगती हैं. मुंबई सेन्ट्रल में तैयार हो रहा 60 मंजिला टावर देश का सबसे ऊंचा टावर होगा. जो आप नहीं जानते वह है इससे जुड़ा घोटाला. यह टावर से भी ऊंचा है. सूचना के हक से मिली जानकारी के मुताबिक यहां की जमीन 12.2 मीटर डीपी मार्ग के लिए आरक्षित है. यह काम झोपड़पट्टी पुर्नवास योजना के तहत होना है. साफ है कि टावर के बहाने शहर के अमीर लोगों ने करोड़ रूपए की जमीन घेर ली है. लेकिन इससे भी ज्यादा हेरतअंगेज मामला यह है कि सड़क के ऊपर हुआ इतना बड़ा अतिक्रमण किसी को नजर नहीं आता. 1976 में सरकार ने शहर की खाली जमीन को बचाने और समुदाय की भलाई के लिए `शहरी जमीन कानून´ बनाया था. लेकिन यह कानून मौलिक तौर पर कभी अमल में नहीं लाया गया. लगता है शहरी जमीनदारों ने ही इसका फायदा उठाया है. इसलिए तो कुछ खानदानों ने ऐसी करीब 15000 एकड़ से अधिक जमीन को अपना बना लिया. इसी तरह सार्वजनिक जमीनों का निजी इस्तेमाल भी हो रहा है. जैसा कि नगर योजना विभाग लिखता है कि `मुंबई की जमीन का इस्तेमाल विकास योजना के तहत जाना और माना गया है.´ इसलिए विकास योजना मे उन्हें हर बार गरीब का झोपड़ा ही बाधक लगता है. बार-बार ऐसी बस्तियां ही टूटती हैं. सूचना के हक से मिले कागजात दर्शाते हैं कि पिछले दो सालों में, महाराष्ट्र शासन ने 60 जगहों के आरक्षण या तो बदलें या काटे. और उनमें से कई प्राइवेट बिल्डरों को ऊंची इमारत बनाने के लिए दिए. पिछले 15 सालों में स्कूल, अस्पताल, गार्डन और ग्राउण्ड के लिए रखी कुल जमीन में से एक-तिहाई ही प्राप्त की है. इसी प्रकार 281 जगहों में से महज 3 सार्वजनिक आवास के लिए, 925 जगहों में से 48 स्कूलों के लिए और 379 जगहों में से केवल 1 अस्पताल के लिए रखी है. बाकी की जमीनों का जिक्र नहीं मिलता है. सूचना के हक से मिली जानकारी के आधार पर यह जाहिर होता है कि- ``मंडल ने मुंबई की सैकड़ों एकड़ जमीन कुछ गिने-चुने लोगों को सौंपी है. दूसरी तरफ पिछले कई सालों से गरीब के भाड़े की जमीन रूकवाई है. कुछ असरदार लोगों ने भाड़े की नई जगहों को लिया है. उन्होंने पुराने भाड़ों के इकरारनामों को या तो नया बनवाया या बढ़वाया है. मंडल ने करीब 10,000 वर्ग मीटर जगह भाड़े से दी हैं. इसका बाजार भाव सलाना 1700 रूपए प्रति वर्ग मीटर है लेकिन मंडल ने 106 रूपए प्रति वर्ग मीटर से भाड़ा लगाया. इससे उसे कुल 48 करोड़ रूपए का घाटा हुआ. मुंबई के लोगों ने कपड़ा मीलों को बंद होते देखा है. इस बेकारी के बीच मिलों की जमीनों को बेचा गया. इसमें एक के बाद एक घपले हुए. उनमें से एक घपला 2005 का है जिसमें एनटीसी ने ज्युटीपर मिल को 11 एकड़ जमीन बेची. एनटीसी ने जब जमीन बेचने के लिए भाव मंगवाए तब टेण्डर में घोषित किया था कि एमएसआय करीब 6.4 लाख वर्ग फिट रहेगा. इस आधार पर इण्डियाबुल्स ने 276 करोड़ रूपए लगाए. लेकिन मिल की जमीन लेने पर एमएसआय दुगुना हुआ. कानून के हिसाब से देखा जाए तो `शहरी जमीन कानून की धारा 26´ के मुताबिक जमीन बेचने से पहले मंडल से इजाजत लेनी जरूरी थी. लेकिन यह जमीन बिना इजाजत बेची गई. ऐसे ही घपले कर शहर के बीचोंबीच करीब 600 एकड़ जमीन पर माल, शापिंग काम्लेक्स, बंग्ले और प्राइवेट आफिस बनाए जा रहे हैं. उन्होंने मीठी नदी को भी नहीं छोड़ा. 90 के दशक में व्यापारिक केन्द्र के रूप में बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स तैयार हुआ था. यह मंगरू मार्शेस पर बनाया था जो माहिम खाड़ी के पास इस नदी के मुंह पर फैला है. यहां 1992 से 1996 के बीच कई नियमों की अनदेखी करके 730 एकड़ जमीन बनाई गई. आज काम्पलेक्स की जगह लाखों वर्ग फिट से अधिक फैली हैं जिनमें कई प्राइवेट बैंक और शापिंग माल्स बस गए हैं. इन बिल्डरों ने फेरीवालों की जमीनों पर कब्जा किया. मलबार हिल की जो जगह महापालिका थोक बाजार के लिए आरक्षित थी उसे छोटे व्यपारियों से छीन लिया गया है.( www.crykedost.blogspot.com से)
posted by CRY के दोस्त at 1:54 PM on May 12, 2009
इसके विपरीत गरीबों, अनपढ़ों, भिखारियों व किन्नरों को जब जब भी जन सेवा का मौका मिला उन्होंने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से यह जिम्मेदारी निभाई। मुजफ्फरनगर के मोरना ब्लाक क्षेत्र के पंचायत चुनाव में स्थानीय लोगों ने एक किन्नर बाला को जिला पंचायत के लिए चुना। यह जन प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के हर नागरिक के सुख दुख में शामिल होती है। पंचायत की बैठकों में अपने क्षेत्र की समस्याओं के निस्तारण के लिए आवाज उठाती है।क्षेत्र में घूम घूम कर समस्याओं का पता लगाकर अधिकारियों तक पहुंचाती है।इसी प्रकार पुरकाजी ब्लाक के खाई खेड़ा गांव के वासिंदों ने एक भिखारी नट को अपना प्रधान बना दिया। इस प्रधान ने जाति, पक्ष विपक्ष की राजनीति से ऊपर उठ कर गांव के विकास के कार्य कराए। गांव की समस्याओं को सांसदों, विधायकों व अफसरों तक पहुचाकर उनका निराकरण कराया। सदर ब्लाक के सुजडू गांव में घरों में चूल्हा-चौका व खेत में मजदूरी करने वाली कश्मीरी देवी को प्रधान बना दिया। वह भी अपने साथियों के साथ पूरी निष्ठा और लगन से गांव के विकास में लगी है। इन सभी प्रत्यासियों के चुनाव में धन भी स्थानीय ग्रामीणों ने ही लगाया।(जनसत्ता 8 मई 2009)/ यह विडंबना ही है कि अपने ही देश में अपनी चुनी सरकारों द्वारा पिछले 60सालों से ये गरीब, दमित शोषित ठगे, कुचले जारहे हैं। फिर भी एक दिन इस राजनीति में अपना यथोचित स्थान पाने की उमीद में ये निष्ठा से अपना वोट देते हैं। पर समाज के ठेकेदार इनको दुराग्रह की नजर से देखते हैं।जिस दिन समाज के स्वयंभू भद्रलोक इन गरीब गुरबों के मानवीय गुणों को पहचानने लगेंगे, और भ्रष्ट लोगों के चकाचक सफेद कपड़ों भ्रष्टाचार के दाग देख पाएंगे।साथ ही निसंकोच और निस्वार्थ भाव से उन दागों की ओर अंगुली उठा पाएंगे उस दिन समाज में भ्रष्टाचार व भ्रष्टचारी की मान्यता कम हो जाएगी ।समाज में भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में यह पहला कदम होगा।अनपढ़ गरीब भ्रष्ट नही होता वरन् भ्रष्टाचार का शिकार होता है।

गुरुवार, 7 मई 2009

जनता की समस्या बनाम् नेता का कद

पंद्रहवीं लोक सभा के लिए आम चुनाव हो रहे हैं। देश चारों तरफ से समस्य़ाओं से घिरा है। मंदी की मार से पूरे विश्व में तथा भारतीय समाज के हर वर्ग में हा हाकार मचा है। रोजगार घट रहे हैं। स्वरोजगार समाप्त होरहे हैं। एक अनुमान के अनुसार 2008-09 की आखरी तिमाही में पांच लाख से अधिक लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा।पहले मुद्रास्फीति चरम् पर थी तो अब शून्य पर आगई है। पर खाद्य पदार्थ तथा अंय आवश्यक जिंसों के दाम ऊपर चढ़ते ही जारहे हैं।क्रय शक्ति का ह्रास होने से आम जनजीवन अस्त व्यस्त होगया है।उधर धरती का तापमान बढ़ने से वर्षा अनिश्चत व अनियंत्रित होगई है। कहीं सूखे के कारण पानी के लिए लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं(बुंदेलखंड)। कहीं बाढ़ ने पूरे क्षेत्रवासियों को बेघर कर दिया है।सरकार आम इंसान को राहत पहुचाने में पूरी तरह नाकाम रही है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम(कामन मिनिमम प्रोग्राम) के तहत जो भी लोकहितकारी कार्यक्रम चलाए गए उनका लाभ आम जन के बजाय भ्रष्ट लोगों को हुआ है।ऐसा नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की ताजा रिपोर्ट से साफ हो जाता है। 26 नवंबर के आतंकी हमले ने देश की आंतरिक सुरक्षा की पोल खोल दी।आमजन के बढ़ते हासियाकरण की वजह से सर्वत्र असंतोष और मायूसी का वातावरण है। देश के विभिनं भागों से हिंसक आंदोलनों के समाचार आते रहते हैं।
ऐसे में मुख्य विपक्षी दल के सामने मुख्य चुनौती आमजन की हताशा दूर करने की तथा उनमें नईं आशा का संचार करने की न होकर अपने नेता की मजबूती सिद्ध करने की है।मजबूत का मतलब जिम में युवाओं की तरह अपनी मांसपेशियां बनाने के व्यायाम करने में सक्षम होना।अपने नेता को(जो प्रधान मंत्री की कतार में लगे हैं।) कद्दावर दिखाने के लिए आवश्यक है मौजूदा प्रधान मंत्री को कमजोर साबित किया जाय। यह भी कितनी बड़ी विडंबना है कि राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के 81 साल के नेता, भूतपूर्व उप प्रधान मंत्री को अपने देशवासियों को यह विश्वास दिलाने कि वह एक मजबूत नेता है और निर्णायक सरकार देने में सक्षम है, के लिए नारों की, जगह जगह होर्डिंग लगाने की तथा स्वयं व अपने समूचे संगठन को वर्तमान प्रधान मंत्री को कमजोर सिद्ध करने की कवायद में लगाना पड़ रहा है।यह इस देश की वर्तमान पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि लगभग सौ साल के स्वतंत्रता संग्राम में जिस देश में एक से बढ़कर एक कद्दावर नेता हुए।(उन नेताओं ने अपना ऊँचा कद प्रचार से या दूसरे को नीचा दिखाकर नहीं हासिल किया वरन् अपने शुभ कार्यों अपने बलिदानों से पाया। यह भी प्रासंगिक है कि ये नेक काम और बलिदान भी उन्होंने अपना कद बड़ा बनाने नहीं किए बल्कि देश और जनता के हित में किये।)उस देश की युवा पीढ़ी का पाला एक ऐसे प्रधान मंत्री के उंमीदवार से पड़ा है जिसे 81 साल का आयु में खुद को कद्दावर नेता सिद्ध करना पड़ रहा है।अपने गृह मंत्री व उप प्रधान मंत्री के कार्यकाल में वह अपने को लौह पुरुष कहलाना पसंद करते थे।बाद में उन्हीं की पार्टी के एक मुख्य मंत्री भी इस दौड़ में उनके साथ शामिल होगए.(इस देश की जनता ने जिस एक मात्र महान हस्ती को लौहपुरुष के संमान से नवाजा उस सरदार पटेल ने विभाजन की त्रासदी झेल रहे भारतवर्ष को और टुकड़ों में टूटने से अपनी दूरदृष्टि व अपने सफल प्रयासों से बचा लिया। अपने देश का वर्तमान स्वरूप उन्ही के अथक प्रयासों की वजह से हासिल हुआ है। इसीलिए आम जन के मानसपटल पर उनकी लौहपुरुष की अमिट छाप पड़ी है। इसके विपरीत आडवाणी ने सत्ता पर काबिज होने के लिए राम पर करोड़ों हिंदुओं की आस्था को भुनाने के लिए राम रथ यात्रा नहीं निकाली। भड़काऊ भाषण दिए। परिणामस्वरूप जगह जगह दंगे फसाद हुए। समाज का ताना बाना ऐसा टूटा कि जिनके भयानक परिणामों से आज भी समाज उबर नहीं पाया है।)
खैर सिद्ध करने और नकारने की इस जद्दोजहद में आखिर प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने भी मुंह खोला और उप प्रधान मंत्री तथा गृह मंत्री की भूमिका में आडवाणी जी की उपलब्धियां गिना डाली। एक बार प्रधान मंत्री का मुंह खुला तो खुलता ही चला गया। नम्र, मृदुभाषी मनमोहन सिंह का धैर्य भी चौतरफा व अनवरत लांछनों को सुनते सुनते शायद जवाब देगया। उन्होंने बाबरी मस्जिद गिराने में भूतपूर्व उप प्रधान मंत्री की भूमिका का मुद्दा उछाल दिया। आहत आडवाणी को यह पलटवार नागवार लगा। (यही मजबूत नेता की पहचान है।अपने विरोधियों को तो वह पानी पी पी कर कोसे। अनर्गल इल्जाम लगाए। पर जब स्वयं उस पर वार पड़े तो है बिलबिला जाए।)लेकिन उन्होंने जवाब में कोई सफाई नहीं दी।इस प्रकार उन्होंने अपनी महानता सिद्ध करने का एक मौका खो दिया।
हालांकि आडवाणी ने कई जगह बोला और लिखा है कि 6 दिसम्बर 1992 का दिन उनके जीवन का सबसे दुखद दिन था। पर जो लोग 6 दिसम्बर 1992 को अपनी ड्यूटी की वजह से आडवाणी या बाबरी मस्जिद के आसपास थे उनके अदालत में दिए बयान ऐसा कुछ भी नहीं दर्शाते।मसलन् 16 मई 2001 की यू एन आई की रपट के अनुसार बिजिनैस इंडिया की तत्कालीन संवाददाता रुचिरा गुप्ता ने लिब्राहन आयोग को बताया कि जब .बाबरी मस्जिद का ध्वंस होरहा था। भारतीय जनता पार्टी के नेता 'jubilant मूड में थे। तब आडवाणी ने इस घटना को ऐतिहासिक बताया था।अपनी आंखों देखी बताते हुए रुचिरा गुप्ता ने कहा कि जब कार सेवक गुम्बद पर चढ़ रह थे आडवाणी ने कहा कि उनको ऊपर नहीं चढ़ना चाहिए। ढ़ाचा तो गिरने ही वाला था। आडवाणी को आशंका थी कि ढ़ाचा गिरने से कार सेवकों को चोट लग सकती थी। रुचिरा गुप्ता ने आयोग को बताया कार सेवक मस्जिद के भीतर फोटो खींच रहे संवाददाताओं से मार पीट कर रहे थे उनके कैमरे छीन रहे थे तोड़ रहे थे। था।गुप्ता ने यह भी बताया कि आचार्य नरेंद्र ने आड़वाणी के साथ बात कर कार सेवकों को हिदायत दी कि फोटोग्राफरों को मस्जिद तोड़ने की फोटो नहीं लेने दी जांय।गुप्ता ने कार सेवकों की हिंसा का शिकार हुए संवाददाताओं के नाम भी आयोग को बताए। रुचिरा गुप्ता ने आयोग को यह भी बताया कि वह स्वयं कार सेवकों की हिंसा का शिकार होते होते बची थी।(वह मस्जिद के भीतर वहां होरही गतिबिधियों को जानने घुसी तो उन्हें मुसलमान बता कर कार सेवक मारने दौड़े।इस भीड़ में एक कार सेवक उनको जानता था उसी ने रुचिरा गुप्ता की जान बचाई।) रुचिरा गुप्ता ने आडवाणी से कार सेवकों को संवाददाताओं से मार पीट नहीं करने का निर्देश देने के आग्रह किया पर आडवाणी ने रुचिरा गुप्ता की बात पर ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय रुचिरा गुप्ता को कहा इतना बड़ा दिन है चीनी खाओ और चीनी खाने को दी।उस समय वहां उपस्थित सभी को चीनी खाने को(खुशी के मौके पर मुंह मीठा करने को)दी जा रही थी। आडवाणी ने कार सेवकों को केन्द्रीय सुरक्षा बल के मस्जिद तक पहुचने के मार्ग को बैंच डाल कर व स्वंय लेट कर बाधित करने की भी हिदायत दी। रुचिरा गुप्ता ने आयोग को यह भी बताया कि उसने बाबरी मस्जिद के पास के कुछ घरो,व दुकानों को जलते हुए देखा और आडवाणी से पूछा कि उन घरो व, दुकानों को क्यों जलाया जारहा था। आडवाणी का उत्तर था कि मुसलमान खुद ही मुआवजा पाने के लिए अपने घरों और दुकानों में आग लगा रहे थे। जब रुचिरा गुप्ता ने कहा की स्थिति भयावह हो सकती है उन लोगों वापस जाने में समस्या हो सकती है आडवाणी को लोगों को रोकना चाहिये। इस अनुरोध के जवाब में कार सेवकों हिंसा करने से रोकने के बजाय आडवाणी ने पूछा उनकी सुरक्षा में लगे राष्टीय सुरक्षा गार्ड कहां हैं और राष्टीय सुरक्षा गार्डों की सुरक्षा में वहां से चले गए।
रुचिरा गुप्ता ने बताया कि 5 दिसम्बर 1992 को विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने खबरनवीसों को कार सेवा स्थल घुमाया और बताया कि उड़ीसा से एक इंजीनियर कुछ निर्धारित कार सेवकों को गुम्बद को धाराशाई करने के लिए किन किन बिंदुओं से तोड़ना आरंभ किया जाय यह दिशा निर्देश देने के लिए विशेषरूप से बुलाया गया था। रुचिरा गुप्ता ने आगे जोड़ा कि उसके प्रश्न के उत्तर में संबंधित कारसेवक ने बताया कि मस्जिद तोड़ने की उनकी तैयारी पूरी थी। लेकिन तोड़ने का अंतिम निर्णय लेने का जिम्मा नेताओं का था। इससे पहले दिसंबर 3,4,5 1992 को आडवाणी ने कई सभाऐं की और कार सेवकों को दिसंबर 6 को अयोध्या पहुंचने का अनुरोध किया। आडवाणी ने कार सेवकों को बताया कि वहां वे लोग भजन कीर्तन या झाड़ू पोछा करने नहीं जा रहे थे। वहां वे लोग कार सेवा करने जारहे थे। उन्होंने लोगों को यह कसम भी दिलवाई कसम राम की खाते हैं कि मंदिर वहीं बनाएंगे।तत्कालीन बी बी सी संवाददाता ने आयोग को बताया कि बाबरी गिराते समय वहां पर jubilation का वातावरण था। जब गुम्बद तोड़े जारहे थे आडवाणी चुप थे उन्होंने भीड़ को रोकने की कोशिश नहीं थी। हालांकि भीड़ व्यवस्थित थी बेकाबू नहीं थी। (UNI http://www.rediff.com/news/2001/may/16ad.htm)
14 मई 2001 को स्वंय श्री आडवाणी ने लिब्राहम आयोग के सामने गवाही दी। आडवाणी ने अपने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के आंदोलन का ठीकरा तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी की सरकार पर फोड़ा। कारण राजीव गांधी की सरकार ने ही राम मंदिर के कपाट खोलने के तथा मंदिर के शिलान्यास करने का निर्णय लिया था।आडवाणी ने जोड़ा की सत्तासीन कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति के चलते मंदिर बनाने का उपक्रम कर रही थी। इसीलिए उनके संगठन ने अयोध्या प्रस्ताव पास किया। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में मजबूत नेता हमेशा अपने दुष्कर्मों असफलताओँ के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हैं। (UNI http://www.rediff.com/news/2001/may/14ad.htm) आज (25, 04, 09) को एक टी वी चैनल ने आर. एस. एस के के एस सुदर्शन को उदृत करते हुए कहा कि सुदर्शन कहते हैं कि बाबरी मस्जिद तोड़ने में मुख्य भूमिका तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिह राव की थी।
15 दिसम्बर 2004 को सी बी आई ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच को बताया कि लाल कृष्ण आडवाणी को बाबरी मस्जिद गिराए जाने की पूर्व जानकारी थी। 6 दिसम्बर 1992 को फैजाबाद की अतिरिक्त पुलिस सुप्रिटैंन्डैंन्ट अंजू गुप्ता की ड्यूटी आडवाणी की सुरक्षा में लगी थी। गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि आडवाणी अंजू गुप्ता से मस्जिद को भीतर चल रही गतिविधियों की समय समय पर जानकारी ले रहे थे। मस्जिद के तीनों गुम्बद तोड़ने वाले कार सेवकों का समूह एक ही था। (PTI http://news.indiainfo.com/2004/12/15/1512advanibabri.html)
निर्णायक सरकार देने की हैसियत रखने वाले मजबूत नेता से इस देश के हर जाति, धर्म, वर्ग, लिंग के लोगों को यह अपेक्षा है कि बाबरी मस्जिद ध्वंस करने में वह अपनी भूमिका का ईमानदारी से खुलासा करें। कारण जैसा कि मशहूर गांधी-विचारनिष्ठ शैलेशकुमार वद्योपाध्याय बताते हैं कि बाबरी मस्जिद ध्वंस होने के दो माह बाद तक पूरा देश सांप्रदायिकता के नासूर की टीस से कराहता रहा। हजारों लोगों की जानें गईं करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के पारंपरिक , ऐतिहासिक सौहार्द को ठेस पहुंची। आज भी बहुत सारे लोग इसकी अभिशप्त छाया की काली यादों में जीवन जीने मजबूर हैं। इस घटना के बाद भारतीय समाज का तेजी से अपराधीकरण हुआ। भूमाफिया, अपराध की दुनियां के लोग (अण्डरवर्ल्ड डान),व असामाजिक तत्व संगठित रूप से राजनीतिक दलों की छत्रछाया में देश की कानून – व्यवस्था पर हावी हो गए हैं। इस घटना के बाद जन मानसिकता में भी परिवर्तन आया है। दंगा प्रभावित इलाकों में हिंदू-मुसलमान मन बटे हैं। एक राष्ट्र के तौर पर बुनी गई हमारी राष्ट्रीयता भी इन दंगों से बूरी तरह प्रभावित हुई है।अल्पसंख्यकों के मन में असुरक्षा का भाव घर कर गया है।यदि हिंदुत्व लाने के नाम पर बहुसंख्यक इसी रास्ते पर चलने को उद्धत रहे तो भारत में अल्पसंख्यकों की गरिमा, सम्मान सुरक्षित नहीं रह सकता। ऐसा भय अल्पसंख्यकों के मन में बैठ गया है। भयभीत होने की वजह भी है।जब जब अल्पसंख्यकों पर संकट आया धर्म निरपेक्षता, प्रजातंत्र, मानव-अधिकार, कानून-सम्मत शासन , एकता का आह्वान केवल कथनी के स्तर पर होता है।(शैलेशकुमार वद्योपाध्याय, दंगों का इतिहास,वाराणसी,सर्व सेवा संघ, 2000, पृष्ट सं.1-4) करनी के स्तर पर कानून व्यवस्था , नागरिक सेवाओँ के लिए जिंमेदार तंत्र कुछ मामलों में न्यायिक व्यवस्था भी दंगाइयों या दंगा भड़काने वालों के पीछे खड़े दिखते हैं। वरुण गांधी को राहत देने में जिस तरह की तत्परता न्यायिक तंत्र ने दिखाई वैसी तत्परता डा.विनायक सेन या मनीपुर की इरोम शर्मीला के मामले में नहीं दिखी। बल्कि उन मामलों न्यायिक तंत्र उदासीन रहा है। डा.विनायक सेन के जमानत के मामले में कहा जारहा कि माननीय अदालत ने बहस तक की अनुमति नहीं दी। यह तब होरहा है जब देश के नामी वकील उनकी पैरवी करने तैयार हैं। 2002 के गुजरात दंगों में अलबत्ता सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़ितों का व्यवस्था में विश्वास वापस लौटाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
नेता की मजबूती तो मानसिक होगी, नैतिक होगी न कि जिम में ढ़ाली गई मांसल। इसका दर्शन दूसरों की कमजोरियों का डंका पीटने से अधिक अपनी कमजोरियों के आंकलन में होना चाहिए।इस देश में कबीर हुए हैं जिनका संदेश था बूरा जो देखन चला बूरा दिखा न कोय।जो दिल खोजो आपनो मुझसो बूरो न कोय।यह देश आडवाणी के मजबूत नेता तथा निर्णायक सरकार देने दावे पर तभी विश्वास करेगा जब वह बाबरी मस्जिद मसले पर, गुजरात दंगों के मसले पर, कंधमाल के दंगों पर अपनी और अपनी पार्टी जिंमेदारी का ईमानदार आंकलन करें अपनी गल्ती मानें, गल्ती सुधारने के लिए क्या कदम उठाएंगे यह बताएं।अपने व्यवहार से यह दर्शायें कि उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं है। आखिर अशोक कलिंग विजय के बाद हुए हृदय परिवर्तन के बाद ही महान सम्राट बने थे। (कलिंग में बरपाई हिंसा की वजह से नहीं।)यह हृदय परिवर्तन उनकी करनी और कथनी दोनों साफ दिखा।
यह कदम अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने के लिए ही आवश्यक नही है वरन् उन हजारों लाखों लोगों का टूटा विश्वास जोड़ने (यदि जोड़ना संभव है तो) के लिए आवश्यक है जिन्होंने आडवाणी के राम मंदिर बनाने के इरादे में विश्वास किया होगा और आडवाणी द्वारा चलाए आंदोलनों को सफल बनाने में योगदान दिया होगा। पर जब 6 साल केन्द्र में सत्ता में रहने पर भी मंदिर नही बना तो स्वंय को ठगा महसूस कर रहे होंगे। चूंकि हमारे तंत्र में ऐसे लोगों की भड़ास मापने का कोई यंत्र नहीं है। उन लाखों बे-जुबान ठगे गए लोगों के एहसास हम तक नहीं पहुचते। ठगे जाने का यह ऐहसास कितना व्यापक है यह आडवाणी पर खड़ाऊ फैकने वाले व्यक्ति के उदगारों से साफ हो जाता है। उसने भी तो कथनी और करनी में फरक होने का ही इल्जाम लगाया । जब अपने लोगों में ही नैतिकता के मापदंडों को लेकर शक सुबहा है तो आमजन कैसे विश्वास कर सकता है कि भारतीय जनता पार्टी निर्णायक सरकार देसकती है। अभी जो छबि है उसके अनुसार यह पार्टी चुनाव जीतने के लिए उनके मुद्दे उठाने के बजाय धार्मिक उन्माद फैला कर लोगों को आपस में बाटने की कोशिश करती है ताकि वोटों का ध्रुवीकरण हो और बहुमत के बल पर सत्ता मिल जाय।
आवश्यकता है लोकोपकारी नीतियों की—भारत में संसदीय लोकतंत्र है। यहां सरकार नेता नही चलाता वरन् संसद में बहुमत हासिल करने वाला राजनीतिक दल या दलों का गठबंधन चलाता है। इसलिए आम जनता के लिए अहम मुद्दा नेता की मजबूती या कमजोरी नहीं है। आम लोगों के लिए तो चुनाव लड़ने वाले दलों की नीतियां महत्वपूर्ण हैं। यह प्रत्येक राजनीतिक दल को तय करना है कि अपने किस नेता के नेतृत्व में वह अपनी नीतियों का कुशलता से क्रियांवयन करवा सकता है। लेकिन भाजपा ने अपने वरिष्टतम नेता के नेतृत्व में इस चुनाव को आडवाणी और मनमोहन सिंह दो व्यक्तियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई बना दिया है। इस दल के प्रधान मंत्री पद के दावेदार और स्टार प्रचारक मनमोहन सिंह की वास्तविक या काल्पनिक कमजोरियां गिनाकर उन पर तरस खाकर अपने लिए जन समर्थन मांग रहे हैं।इस दल के एक स्टार प्रचारक जो मुख्य मंत्री भी हैं ने तो मनमोहन सिंह पर सरदार होकर भी पाकिस्तान में रह रहे सरदारों की सुरक्षा के लिए कदम नहीं उठाने का आरोप जड़ दिया।इस देश के संविधान के तहत कोई भी सरकारी मुलाजिम किसी भी धर्म जाति का न होकर भारतीय नागरिक होता है और उसे भारत तथा भारतवासियों के हितों की रक्षा करनी होती है।

पप्पू वोट नहीं देता! क्यों?

वोट देना जनतंत्र में हर नागरिक का अधिकार है और कर्तव्य भी। पर पप्पू यानी खाता पीता उच्च वर्ग न अपने मताधिकार का प्रयोग करना आवश्यक समझता और न ही अपने कर्तव्य का पालन करना जरूरी समझता है।यह रोग इतना फैल गया है कि चुनाव आयोग को पप्पू को वोट देने के लिए प्रेरित करने के लिये छोटी छोटी फिल्म बनाकर विज्ञापन भी देने पड़े हैं। 15वीं लोक सभा के चुनाव के समय तो टी वी चैनलों तथा व्यापारिक घरानों ने भी मिलकर पप्पू के वोट देने के फर्ज को निभाने की आवश्यकता को प्रसारित करने की मुहिम चलाई। पर हुए ढाक के वही तीन पात। 26/11/ 2008 के मुंबई के आतंकी हमले के बाद गुस्से से लाल पीला हुए उच्च वर्गीय मुंबईकर जिस तरह से सड़क पर उतर कर आया उससे कुछ लोगों को आशा थी कि इस 15वीं लोक सभा के चुनाव में वह बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेगा। पर नहीं लिया। सामाजिक मुद्दों से सरोकार रखने वाले अभिनेता राहुल बोस जैसे लोग हताश हुए। हों पप्पुओं की बला से। इससे पप्पू को क्या मतलब।
आखिर पप्पू वोट क्यों दे?चुनाव केवल वोट की ताकत ही नहीं दर्शाता वह धनतंत्र की ताकत भी दर्शाता है। एक जमाना था लोक से जुड़े नेता वोट के साथ साथ नोट भी अपने चुनाव क्षेत्र से चुनाव का खर्चा चलाने के लिए मांगते थे और लोग सहर्ष देते थे। चुनाव जीतने के बाद भी इन नेताओं की आर्थिक हालत में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आता था। इस चुनाव के दौरान भी एक टी वी चैनल ने एक पुरानी जन प्रतिनिधि को परिवार के भरण पोषण के लिए अपने पति के साथ पत्थर ढ़ोते दिखाया था। अब जमाना बदल गया है। अब जनतंत्र का ऊर्जा स्त्रोत धनतंत्र होगया है। यदि पारिवारिक विरासत में राजनीतिक हैसियत प्राप्त न हो तो धनतंत्र उसे प्राप्त करने का सबसे सरल रास्ता है। बहुजन समाज पार्टी इसका सबसे सटीक उदाहरण है। आज तो पैसे से चुनाव लड़ने के लिए टिकट खरीदा जाता है। (बहुजन समाज पार्टी मे यह खुले आम होता है।पिछले 2008 के विधान सभा चुनाव में दो मुख्य राष्ट्रीय दलों पर भी टिकट बेचने के आरोप लगे थे।)टिकट मिलने के बाद तो चुनाव जीतने के लिए हर कदम पर पैसा लगाना होता है। सभाओं व रोड शो करने के लिए भाड़े में लोगों को जुटाना पड़ता है।यह धन कहां से आता है और क्यों आता है।आज आम मतदाता भी यह खूब समझता है।
13वीं लोक सभा के समय तहलका से स्ट्रिंग आपरेशन तथा 14वीं लोक सभा के दौरान हुए विभिन्न स्ट्रिंग आपरेशनों से स्पष्ट हो गया कि तथाकथित जन प्रतिनिधि जनसेवा के मकसद से नहीं धनसेवा के मकसद से चुनकर आते हैं। इसीलिए हम देखते हैं जब भी सांसदों या विधायकों की या निगम स्तर के जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्ते को बढ़ाने के मसले पर सत्तापक्ष कोई प्रस्ताव लाता है उस पर राजनीतिक दलों में कभी कोई मतभेद नहीं होता। सर्वसंमति से ये प्रस्ताव पास होजाते हैं।
धनतंत्र के बल पर चुनाव जीते सभी प्रतिनिधि गैर कानूनी तरीके से ही अपने धनतंत्र को मजबूत करने में विश्वास नहीं करते।उदारीकरण के दौर में जो भी राजनीतिक दल सत्ता में आता है वह देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों के हित साधने के लिए ही नियम, कानून बनाता है नीति निर्धारित करता है। पिछले 18 सालों के अनुभव से साफ होगया है कि देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों के हित साधने में राजनीतिक दलों की विचारधारा आड़े नहीं आती।विकास का मतलब भी रोटी, कपड़ा,मकान, शिक्षा व स्वास्थ से हटकर बिजली, सड़क व पानी होगया है। यह स्थिति उस जनतंत्र में है जहां एक सरकारी समिति ने अपनी रपट में उजागर किया था कि 80 प्रतिशत जनता की रोजना आमदनी महज 20 रुपया है। एक बात साफ है आम जन को जीवन की मूल सुविधाएं(रोटी, कपड़ा,मकान, शिक्षा व स्वास्थ) मुहैय्या कराने से जनता की सेवा करने का दावा करने वाले प्रत्यासी व उनके राजनीतिक दलों को वह लाभ नहीं होता जो देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों को बिजली, सड़क व पानी की सुविधा उपलब्ध कराने में होता है। राजनीतिक दल किस प्रकार विकास के नाम पर देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों के हाथों इस देश की संपदा ओने पौने दामें में बेच रहे हैं इसका नंगा स्वरूप झारखंड, छत्तीसगड़ तथा उड़ीसा जैसे प्राकृतिक संपदा के धनी राज्यों में देखा जासकता है। अक्सर इस प्रक्रिया में संविधान, नियम व कानूनों को भी ताक पर रख दिया जाता है।आम आदिवासी या वनवासी जिसका अस्तित्व इन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है इसका विरोध कर रहा है और सरकारी तंत्र की ज्यादतियों का शिकार होरहा है। दुर्भाग्य से अक्सर उसे न्यायपालिका से भी राहत नहीं मिल रही है।
विकास के नाम पर पिछले 60 सालों में अपने जल जंगल जमीन के बेदखल होकर जब गरीब रोजी रोटी की खोज में शहर आता है तो यहां उसके लिए झुग्गी बनाने के लिए जगह नहीं है। वह सड़क किनारे रेड़ी लगाकर सब्जी आदि नहीं बेच सकता। अब बड़े बड़े मौल खोले जारहे हैं वहां ये व्यापारिक घराने खुदरा माल बेच रहे हैं। इन मौलों के लिए भी भूमि, बिजली, सड़क पानी चाहिये। पप्पू के हित इन देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों के हितों से जुड़े हैं।निजीकरण व आउटसोर्सिंग की वजह से महज फर्राटो की अंग्रेजी बोलने वाले पप्पुओं को भी आसानी से नौकरी मिल रही है।मौल उनकी मौज मस्ती की पूरा प्रबंध करते हैं। आखिर मौज मस्ती के लिए एक ही जिंदगी तो है।उस एक ही जिंदगी में चुनाव के दिन मिली एक दिन की छुट्टी वोट देने में कैसे बरबाद की जा सकती है। इतना बड़ा दिल तो पप्पू के पास नहीं हो सकता। दूसरा वोट कोई भी दे। सरकार किसी भी दल की बने पप्पू की हित संरक्षित होता है। कारण पप्पू को नौकरी देने वाली कंपनी के हितों की सुरक्षा करने में ही हमारे जनप्रतिनिधि तन मन धन से लगे होते हैं।
जहां तक आम आदमी का सवाल है उसके लिए मताधिकार अस्तित्व का अधिकार है। उसको मालूम है लोकतंत्र पर धनतंत्र का ग्रहण लगा है और समय के साथ साथ इस ग्रहण का आकार-प्रकार भी बड़ा हो जारहा है । फिर भी वह बहुत सोच समझ कर अपने मताधिकार का प्रयोग कर रहा है। मसलन् राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(राजग) की सरकार ने जिस तरह एक ओर गोदामों में अनाज सड़ाया या ओने पौने दामों में निर्यात किया पर भूख से मरते लोगों तक नहीं पहुचाया उसी का परिणाम उसे 14वीं लोकसभा के चुनाव में भुगतना पड़ा।इंड़िया शाइनिंग या फील गुड का राजग का नारा धरा का धरा रह गया।नई सरकार को कुछ नीतियां तो आमजन के लिए बनानी पड़ी।यह सच है क्रियांवयन में बहुत गड़बड़िया हैं।उसका खमिजाना यह सरकार भुगतेगी। पूर्ण बहुमत की उमीद तो किसी भी दल को नहीं है। यदि आमजन के हितों की रक्षा के लिए बनी नीतियां ईमांदारी से लागू की गई होती तो क्या यह हताशा होती।धनतंत्र के ग्रहण के बावजूद लोकतंत्र की यही जीत है।
लेकिन पप्पू का वोट देना हम क्यों जरूरी मानते हैं। अति आवश्यक तो है किसी बालिग नागरिक को मताधिकार से वंचित नहीं किया जाय।मुझे नहीं लगता कि कभी इस पर बहस हुई हो कि कैसे उन लाखों (यदि करोड़ों नहीं भी तो) बेघर लोगों को भी यह अधिकार मिले। उदारीकरण के दौर में हमारे शहरों को पेरिस या शांगहाई बनाने की होड़ में कई झुग्गी बस्तियां उजाड़ी गईँ। आवासीय बस्ती टूट जाने से इनके मतदाता पहचान पत्र भी वैलिड नहीं रहे। कई बस्तीवासियों को वैकल्पिक आवासीय जगह नहीं मिलने से इनके नए आवासीय पतों के आधार पर नए मतदाता पहचान पत्र भी नहीं बने हैं।चूंकि ये लोग अनपढ़ हैं, गरीब हैं हम इनके मताधिकार के बारे में चिंतित नहीं हैं। हमें लगता है इनके वोट नहीं देने से लोकतंत्र को कोई खास फर्क नहीं पड़ता। पप्पू का वोट देना हमें आश्वस्त करता है कि वह सोच समझ कर लायक प्रत्यासी को ही चुनेगा।शायद यह हमारा आमजन के प्रति दुराग्रह ही है। यदि हम भ्रष्टाचार के आकड़ों और प्रकृति पर नजर डालें तो पाऐंगे कि भ्रष्टाचार करने वाले व भ्रष्टाचार को बढ़वा देने वाले अधिकतर लोग मध्यवर्गीय ही हैं। मध्यवर्ग ही गैर कानूनी तरीके से अपने हितों के संवर्धन के लिए घूस देता है या जान पहचान निकालता है। य़दि मध्यवर्ग पिछले दरवाजे से काम कराने बंद कर दे तो भ्रष्टाचार अपने आप कम हो जाएगा। गरीब मजबूरी में ही घूस देता है। चूंकि उसके पास कोई सरकारी ओहदा नहीं होता इसलिए वह घूस नहीं लेता है। घूस सरकारी मुलाजिम लेता है। अभी तो आम धारणा है कि छोटे से छोटा मुलाजिम भी जो घूस लेता है उसका हिस्सा ऊपर तक जाता है। गरीब तो बाहुबली भी हो नहीं सकता। दूसरा बिना सफेद पोस के संरक्षण के बाहुबली का बजार नहीं फलता फूलता।
यदि लोकतंत्र में धनतंत्र के प्रभाव को कम करना है तो आज जरूरत है आमजन को बिना हील हुज्जत के मतदाता पहचान पत्र मिले। और इस मतदाता में अपने मताधिकार का बिना किसी लाग लपेट के प्रयोग करने का माद्दा जागे।जिस दिन यह मतदाता शराब की बोतलों, साडियों या बिरयानी की दावतों के एवज में मतदान न दे।बल्कि उपलब्ध प्रत्यासियों की सूची में सबसे लायक, तथा सबसे कम भ्रष्ट प्रत्यासी को चुनेंगे उस दिन धनतंत्र पर लोकतंत्र के विजयी होने की शुरुआत होगी।