गुरुवार, 7 मई 2009

जनता की समस्या बनाम् नेता का कद

पंद्रहवीं लोक सभा के लिए आम चुनाव हो रहे हैं। देश चारों तरफ से समस्य़ाओं से घिरा है। मंदी की मार से पूरे विश्व में तथा भारतीय समाज के हर वर्ग में हा हाकार मचा है। रोजगार घट रहे हैं। स्वरोजगार समाप्त होरहे हैं। एक अनुमान के अनुसार 2008-09 की आखरी तिमाही में पांच लाख से अधिक लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा।पहले मुद्रास्फीति चरम् पर थी तो अब शून्य पर आगई है। पर खाद्य पदार्थ तथा अंय आवश्यक जिंसों के दाम ऊपर चढ़ते ही जारहे हैं।क्रय शक्ति का ह्रास होने से आम जनजीवन अस्त व्यस्त होगया है।उधर धरती का तापमान बढ़ने से वर्षा अनिश्चत व अनियंत्रित होगई है। कहीं सूखे के कारण पानी के लिए लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं(बुंदेलखंड)। कहीं बाढ़ ने पूरे क्षेत्रवासियों को बेघर कर दिया है।सरकार आम इंसान को राहत पहुचाने में पूरी तरह नाकाम रही है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम(कामन मिनिमम प्रोग्राम) के तहत जो भी लोकहितकारी कार्यक्रम चलाए गए उनका लाभ आम जन के बजाय भ्रष्ट लोगों को हुआ है।ऐसा नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की ताजा रिपोर्ट से साफ हो जाता है। 26 नवंबर के आतंकी हमले ने देश की आंतरिक सुरक्षा की पोल खोल दी।आमजन के बढ़ते हासियाकरण की वजह से सर्वत्र असंतोष और मायूसी का वातावरण है। देश के विभिनं भागों से हिंसक आंदोलनों के समाचार आते रहते हैं।
ऐसे में मुख्य विपक्षी दल के सामने मुख्य चुनौती आमजन की हताशा दूर करने की तथा उनमें नईं आशा का संचार करने की न होकर अपने नेता की मजबूती सिद्ध करने की है।मजबूत का मतलब जिम में युवाओं की तरह अपनी मांसपेशियां बनाने के व्यायाम करने में सक्षम होना।अपने नेता को(जो प्रधान मंत्री की कतार में लगे हैं।) कद्दावर दिखाने के लिए आवश्यक है मौजूदा प्रधान मंत्री को कमजोर साबित किया जाय। यह भी कितनी बड़ी विडंबना है कि राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के 81 साल के नेता, भूतपूर्व उप प्रधान मंत्री को अपने देशवासियों को यह विश्वास दिलाने कि वह एक मजबूत नेता है और निर्णायक सरकार देने में सक्षम है, के लिए नारों की, जगह जगह होर्डिंग लगाने की तथा स्वयं व अपने समूचे संगठन को वर्तमान प्रधान मंत्री को कमजोर सिद्ध करने की कवायद में लगाना पड़ रहा है।यह इस देश की वर्तमान पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि लगभग सौ साल के स्वतंत्रता संग्राम में जिस देश में एक से बढ़कर एक कद्दावर नेता हुए।(उन नेताओं ने अपना ऊँचा कद प्रचार से या दूसरे को नीचा दिखाकर नहीं हासिल किया वरन् अपने शुभ कार्यों अपने बलिदानों से पाया। यह भी प्रासंगिक है कि ये नेक काम और बलिदान भी उन्होंने अपना कद बड़ा बनाने नहीं किए बल्कि देश और जनता के हित में किये।)उस देश की युवा पीढ़ी का पाला एक ऐसे प्रधान मंत्री के उंमीदवार से पड़ा है जिसे 81 साल का आयु में खुद को कद्दावर नेता सिद्ध करना पड़ रहा है।अपने गृह मंत्री व उप प्रधान मंत्री के कार्यकाल में वह अपने को लौह पुरुष कहलाना पसंद करते थे।बाद में उन्हीं की पार्टी के एक मुख्य मंत्री भी इस दौड़ में उनके साथ शामिल होगए.(इस देश की जनता ने जिस एक मात्र महान हस्ती को लौहपुरुष के संमान से नवाजा उस सरदार पटेल ने विभाजन की त्रासदी झेल रहे भारतवर्ष को और टुकड़ों में टूटने से अपनी दूरदृष्टि व अपने सफल प्रयासों से बचा लिया। अपने देश का वर्तमान स्वरूप उन्ही के अथक प्रयासों की वजह से हासिल हुआ है। इसीलिए आम जन के मानसपटल पर उनकी लौहपुरुष की अमिट छाप पड़ी है। इसके विपरीत आडवाणी ने सत्ता पर काबिज होने के लिए राम पर करोड़ों हिंदुओं की आस्था को भुनाने के लिए राम रथ यात्रा नहीं निकाली। भड़काऊ भाषण दिए। परिणामस्वरूप जगह जगह दंगे फसाद हुए। समाज का ताना बाना ऐसा टूटा कि जिनके भयानक परिणामों से आज भी समाज उबर नहीं पाया है।)
खैर सिद्ध करने और नकारने की इस जद्दोजहद में आखिर प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने भी मुंह खोला और उप प्रधान मंत्री तथा गृह मंत्री की भूमिका में आडवाणी जी की उपलब्धियां गिना डाली। एक बार प्रधान मंत्री का मुंह खुला तो खुलता ही चला गया। नम्र, मृदुभाषी मनमोहन सिंह का धैर्य भी चौतरफा व अनवरत लांछनों को सुनते सुनते शायद जवाब देगया। उन्होंने बाबरी मस्जिद गिराने में भूतपूर्व उप प्रधान मंत्री की भूमिका का मुद्दा उछाल दिया। आहत आडवाणी को यह पलटवार नागवार लगा। (यही मजबूत नेता की पहचान है।अपने विरोधियों को तो वह पानी पी पी कर कोसे। अनर्गल इल्जाम लगाए। पर जब स्वयं उस पर वार पड़े तो है बिलबिला जाए।)लेकिन उन्होंने जवाब में कोई सफाई नहीं दी।इस प्रकार उन्होंने अपनी महानता सिद्ध करने का एक मौका खो दिया।
हालांकि आडवाणी ने कई जगह बोला और लिखा है कि 6 दिसम्बर 1992 का दिन उनके जीवन का सबसे दुखद दिन था। पर जो लोग 6 दिसम्बर 1992 को अपनी ड्यूटी की वजह से आडवाणी या बाबरी मस्जिद के आसपास थे उनके अदालत में दिए बयान ऐसा कुछ भी नहीं दर्शाते।मसलन् 16 मई 2001 की यू एन आई की रपट के अनुसार बिजिनैस इंडिया की तत्कालीन संवाददाता रुचिरा गुप्ता ने लिब्राहन आयोग को बताया कि जब .बाबरी मस्जिद का ध्वंस होरहा था। भारतीय जनता पार्टी के नेता 'jubilant मूड में थे। तब आडवाणी ने इस घटना को ऐतिहासिक बताया था।अपनी आंखों देखी बताते हुए रुचिरा गुप्ता ने कहा कि जब कार सेवक गुम्बद पर चढ़ रह थे आडवाणी ने कहा कि उनको ऊपर नहीं चढ़ना चाहिए। ढ़ाचा तो गिरने ही वाला था। आडवाणी को आशंका थी कि ढ़ाचा गिरने से कार सेवकों को चोट लग सकती थी। रुचिरा गुप्ता ने आयोग को बताया कार सेवक मस्जिद के भीतर फोटो खींच रहे संवाददाताओं से मार पीट कर रहे थे उनके कैमरे छीन रहे थे तोड़ रहे थे। था।गुप्ता ने यह भी बताया कि आचार्य नरेंद्र ने आड़वाणी के साथ बात कर कार सेवकों को हिदायत दी कि फोटोग्राफरों को मस्जिद तोड़ने की फोटो नहीं लेने दी जांय।गुप्ता ने कार सेवकों की हिंसा का शिकार हुए संवाददाताओं के नाम भी आयोग को बताए। रुचिरा गुप्ता ने आयोग को यह भी बताया कि वह स्वयं कार सेवकों की हिंसा का शिकार होते होते बची थी।(वह मस्जिद के भीतर वहां होरही गतिबिधियों को जानने घुसी तो उन्हें मुसलमान बता कर कार सेवक मारने दौड़े।इस भीड़ में एक कार सेवक उनको जानता था उसी ने रुचिरा गुप्ता की जान बचाई।) रुचिरा गुप्ता ने आडवाणी से कार सेवकों को संवाददाताओं से मार पीट नहीं करने का निर्देश देने के आग्रह किया पर आडवाणी ने रुचिरा गुप्ता की बात पर ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय रुचिरा गुप्ता को कहा इतना बड़ा दिन है चीनी खाओ और चीनी खाने को दी।उस समय वहां उपस्थित सभी को चीनी खाने को(खुशी के मौके पर मुंह मीठा करने को)दी जा रही थी। आडवाणी ने कार सेवकों को केन्द्रीय सुरक्षा बल के मस्जिद तक पहुचने के मार्ग को बैंच डाल कर व स्वंय लेट कर बाधित करने की भी हिदायत दी। रुचिरा गुप्ता ने आयोग को यह भी बताया कि उसने बाबरी मस्जिद के पास के कुछ घरो,व दुकानों को जलते हुए देखा और आडवाणी से पूछा कि उन घरो व, दुकानों को क्यों जलाया जारहा था। आडवाणी का उत्तर था कि मुसलमान खुद ही मुआवजा पाने के लिए अपने घरों और दुकानों में आग लगा रहे थे। जब रुचिरा गुप्ता ने कहा की स्थिति भयावह हो सकती है उन लोगों वापस जाने में समस्या हो सकती है आडवाणी को लोगों को रोकना चाहिये। इस अनुरोध के जवाब में कार सेवकों हिंसा करने से रोकने के बजाय आडवाणी ने पूछा उनकी सुरक्षा में लगे राष्टीय सुरक्षा गार्ड कहां हैं और राष्टीय सुरक्षा गार्डों की सुरक्षा में वहां से चले गए।
रुचिरा गुप्ता ने बताया कि 5 दिसम्बर 1992 को विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने खबरनवीसों को कार सेवा स्थल घुमाया और बताया कि उड़ीसा से एक इंजीनियर कुछ निर्धारित कार सेवकों को गुम्बद को धाराशाई करने के लिए किन किन बिंदुओं से तोड़ना आरंभ किया जाय यह दिशा निर्देश देने के लिए विशेषरूप से बुलाया गया था। रुचिरा गुप्ता ने आगे जोड़ा कि उसके प्रश्न के उत्तर में संबंधित कारसेवक ने बताया कि मस्जिद तोड़ने की उनकी तैयारी पूरी थी। लेकिन तोड़ने का अंतिम निर्णय लेने का जिम्मा नेताओं का था। इससे पहले दिसंबर 3,4,5 1992 को आडवाणी ने कई सभाऐं की और कार सेवकों को दिसंबर 6 को अयोध्या पहुंचने का अनुरोध किया। आडवाणी ने कार सेवकों को बताया कि वहां वे लोग भजन कीर्तन या झाड़ू पोछा करने नहीं जा रहे थे। वहां वे लोग कार सेवा करने जारहे थे। उन्होंने लोगों को यह कसम भी दिलवाई कसम राम की खाते हैं कि मंदिर वहीं बनाएंगे।तत्कालीन बी बी सी संवाददाता ने आयोग को बताया कि बाबरी गिराते समय वहां पर jubilation का वातावरण था। जब गुम्बद तोड़े जारहे थे आडवाणी चुप थे उन्होंने भीड़ को रोकने की कोशिश नहीं थी। हालांकि भीड़ व्यवस्थित थी बेकाबू नहीं थी। (UNI http://www.rediff.com/news/2001/may/16ad.htm)
14 मई 2001 को स्वंय श्री आडवाणी ने लिब्राहम आयोग के सामने गवाही दी। आडवाणी ने अपने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के आंदोलन का ठीकरा तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी की सरकार पर फोड़ा। कारण राजीव गांधी की सरकार ने ही राम मंदिर के कपाट खोलने के तथा मंदिर के शिलान्यास करने का निर्णय लिया था।आडवाणी ने जोड़ा की सत्तासीन कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति के चलते मंदिर बनाने का उपक्रम कर रही थी। इसीलिए उनके संगठन ने अयोध्या प्रस्ताव पास किया। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में मजबूत नेता हमेशा अपने दुष्कर्मों असफलताओँ के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हैं। (UNI http://www.rediff.com/news/2001/may/14ad.htm) आज (25, 04, 09) को एक टी वी चैनल ने आर. एस. एस के के एस सुदर्शन को उदृत करते हुए कहा कि सुदर्शन कहते हैं कि बाबरी मस्जिद तोड़ने में मुख्य भूमिका तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिह राव की थी।
15 दिसम्बर 2004 को सी बी आई ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच को बताया कि लाल कृष्ण आडवाणी को बाबरी मस्जिद गिराए जाने की पूर्व जानकारी थी। 6 दिसम्बर 1992 को फैजाबाद की अतिरिक्त पुलिस सुप्रिटैंन्डैंन्ट अंजू गुप्ता की ड्यूटी आडवाणी की सुरक्षा में लगी थी। गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि आडवाणी अंजू गुप्ता से मस्जिद को भीतर चल रही गतिविधियों की समय समय पर जानकारी ले रहे थे। मस्जिद के तीनों गुम्बद तोड़ने वाले कार सेवकों का समूह एक ही था। (PTI http://news.indiainfo.com/2004/12/15/1512advanibabri.html)
निर्णायक सरकार देने की हैसियत रखने वाले मजबूत नेता से इस देश के हर जाति, धर्म, वर्ग, लिंग के लोगों को यह अपेक्षा है कि बाबरी मस्जिद ध्वंस करने में वह अपनी भूमिका का ईमानदारी से खुलासा करें। कारण जैसा कि मशहूर गांधी-विचारनिष्ठ शैलेशकुमार वद्योपाध्याय बताते हैं कि बाबरी मस्जिद ध्वंस होने के दो माह बाद तक पूरा देश सांप्रदायिकता के नासूर की टीस से कराहता रहा। हजारों लोगों की जानें गईं करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के पारंपरिक , ऐतिहासिक सौहार्द को ठेस पहुंची। आज भी बहुत सारे लोग इसकी अभिशप्त छाया की काली यादों में जीवन जीने मजबूर हैं। इस घटना के बाद भारतीय समाज का तेजी से अपराधीकरण हुआ। भूमाफिया, अपराध की दुनियां के लोग (अण्डरवर्ल्ड डान),व असामाजिक तत्व संगठित रूप से राजनीतिक दलों की छत्रछाया में देश की कानून – व्यवस्था पर हावी हो गए हैं। इस घटना के बाद जन मानसिकता में भी परिवर्तन आया है। दंगा प्रभावित इलाकों में हिंदू-मुसलमान मन बटे हैं। एक राष्ट्र के तौर पर बुनी गई हमारी राष्ट्रीयता भी इन दंगों से बूरी तरह प्रभावित हुई है।अल्पसंख्यकों के मन में असुरक्षा का भाव घर कर गया है।यदि हिंदुत्व लाने के नाम पर बहुसंख्यक इसी रास्ते पर चलने को उद्धत रहे तो भारत में अल्पसंख्यकों की गरिमा, सम्मान सुरक्षित नहीं रह सकता। ऐसा भय अल्पसंख्यकों के मन में बैठ गया है। भयभीत होने की वजह भी है।जब जब अल्पसंख्यकों पर संकट आया धर्म निरपेक्षता, प्रजातंत्र, मानव-अधिकार, कानून-सम्मत शासन , एकता का आह्वान केवल कथनी के स्तर पर होता है।(शैलेशकुमार वद्योपाध्याय, दंगों का इतिहास,वाराणसी,सर्व सेवा संघ, 2000, पृष्ट सं.1-4) करनी के स्तर पर कानून व्यवस्था , नागरिक सेवाओँ के लिए जिंमेदार तंत्र कुछ मामलों में न्यायिक व्यवस्था भी दंगाइयों या दंगा भड़काने वालों के पीछे खड़े दिखते हैं। वरुण गांधी को राहत देने में जिस तरह की तत्परता न्यायिक तंत्र ने दिखाई वैसी तत्परता डा.विनायक सेन या मनीपुर की इरोम शर्मीला के मामले में नहीं दिखी। बल्कि उन मामलों न्यायिक तंत्र उदासीन रहा है। डा.विनायक सेन के जमानत के मामले में कहा जारहा कि माननीय अदालत ने बहस तक की अनुमति नहीं दी। यह तब होरहा है जब देश के नामी वकील उनकी पैरवी करने तैयार हैं। 2002 के गुजरात दंगों में अलबत्ता सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़ितों का व्यवस्था में विश्वास वापस लौटाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
नेता की मजबूती तो मानसिक होगी, नैतिक होगी न कि जिम में ढ़ाली गई मांसल। इसका दर्शन दूसरों की कमजोरियों का डंका पीटने से अधिक अपनी कमजोरियों के आंकलन में होना चाहिए।इस देश में कबीर हुए हैं जिनका संदेश था बूरा जो देखन चला बूरा दिखा न कोय।जो दिल खोजो आपनो मुझसो बूरो न कोय।यह देश आडवाणी के मजबूत नेता तथा निर्णायक सरकार देने दावे पर तभी विश्वास करेगा जब वह बाबरी मस्जिद मसले पर, गुजरात दंगों के मसले पर, कंधमाल के दंगों पर अपनी और अपनी पार्टी जिंमेदारी का ईमानदार आंकलन करें अपनी गल्ती मानें, गल्ती सुधारने के लिए क्या कदम उठाएंगे यह बताएं।अपने व्यवहार से यह दर्शायें कि उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं है। आखिर अशोक कलिंग विजय के बाद हुए हृदय परिवर्तन के बाद ही महान सम्राट बने थे। (कलिंग में बरपाई हिंसा की वजह से नहीं।)यह हृदय परिवर्तन उनकी करनी और कथनी दोनों साफ दिखा।
यह कदम अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने के लिए ही आवश्यक नही है वरन् उन हजारों लाखों लोगों का टूटा विश्वास जोड़ने (यदि जोड़ना संभव है तो) के लिए आवश्यक है जिन्होंने आडवाणी के राम मंदिर बनाने के इरादे में विश्वास किया होगा और आडवाणी द्वारा चलाए आंदोलनों को सफल बनाने में योगदान दिया होगा। पर जब 6 साल केन्द्र में सत्ता में रहने पर भी मंदिर नही बना तो स्वंय को ठगा महसूस कर रहे होंगे। चूंकि हमारे तंत्र में ऐसे लोगों की भड़ास मापने का कोई यंत्र नहीं है। उन लाखों बे-जुबान ठगे गए लोगों के एहसास हम तक नहीं पहुचते। ठगे जाने का यह ऐहसास कितना व्यापक है यह आडवाणी पर खड़ाऊ फैकने वाले व्यक्ति के उदगारों से साफ हो जाता है। उसने भी तो कथनी और करनी में फरक होने का ही इल्जाम लगाया । जब अपने लोगों में ही नैतिकता के मापदंडों को लेकर शक सुबहा है तो आमजन कैसे विश्वास कर सकता है कि भारतीय जनता पार्टी निर्णायक सरकार देसकती है। अभी जो छबि है उसके अनुसार यह पार्टी चुनाव जीतने के लिए उनके मुद्दे उठाने के बजाय धार्मिक उन्माद फैला कर लोगों को आपस में बाटने की कोशिश करती है ताकि वोटों का ध्रुवीकरण हो और बहुमत के बल पर सत्ता मिल जाय।
आवश्यकता है लोकोपकारी नीतियों की—भारत में संसदीय लोकतंत्र है। यहां सरकार नेता नही चलाता वरन् संसद में बहुमत हासिल करने वाला राजनीतिक दल या दलों का गठबंधन चलाता है। इसलिए आम जनता के लिए अहम मुद्दा नेता की मजबूती या कमजोरी नहीं है। आम लोगों के लिए तो चुनाव लड़ने वाले दलों की नीतियां महत्वपूर्ण हैं। यह प्रत्येक राजनीतिक दल को तय करना है कि अपने किस नेता के नेतृत्व में वह अपनी नीतियों का कुशलता से क्रियांवयन करवा सकता है। लेकिन भाजपा ने अपने वरिष्टतम नेता के नेतृत्व में इस चुनाव को आडवाणी और मनमोहन सिंह दो व्यक्तियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई बना दिया है। इस दल के प्रधान मंत्री पद के दावेदार और स्टार प्रचारक मनमोहन सिंह की वास्तविक या काल्पनिक कमजोरियां गिनाकर उन पर तरस खाकर अपने लिए जन समर्थन मांग रहे हैं।इस दल के एक स्टार प्रचारक जो मुख्य मंत्री भी हैं ने तो मनमोहन सिंह पर सरदार होकर भी पाकिस्तान में रह रहे सरदारों की सुरक्षा के लिए कदम नहीं उठाने का आरोप जड़ दिया।इस देश के संविधान के तहत कोई भी सरकारी मुलाजिम किसी भी धर्म जाति का न होकर भारतीय नागरिक होता है और उसे भारत तथा भारतवासियों के हितों की रक्षा करनी होती है।

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