शुक्रवार, 15 मई 2009

इस रंग भेद के क्या कहने?

हरिद्वार में 13मई को स्वामी रामदेव ने वोट देने के बाद कहा कि विश्व के कई अंय देशों की भांति भारत में भी कानूनी तौर पर वोट डालना आवश्यक कर देना चाहिए।उनका मानना है कि शत प्रतिशत वोट पड़ने से राजनीति में अनपढ़ व बेइमान लोग नहीं आने पाएंगे।बाबा इस बात से व्यथित थे कि लोग चंद रुपयों और दारू की बोतल में अपना वोट बेच देते हैं जो लोकतंत्र और देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।बाबा राजनीति में भ्रष्ट लोगों का बोलबाला होने से भी चिंतित थे। इन भ्रष्ट लोगों के आगे समाज के ईमानदार लोगों की विवशता व लाचारी भी बाबा को खलती है। विदेशी बैंकों में जमा काले धन को देश में वापस लाना भी बाबा को अहम लगता है। चुनाव के बाद बाबा इस धन को वापस देश में लाने के लिए जोरदार मुहिम चलाने का वादा कर रहे हैं।(14 मई 2009 की जनसत्ता) इस रिपोर्ट के अनुसार बाबा अनपढ़ और बेईमान को तराजू के एक ही पलड़े में रख रहे हैं। चुनाव में भ्रष्टाचार भी बाबा को केवल दारू की बोतल और वोट पाने के लिए नोट बाटने में ही दिखता है।चुनाव प्रचार में जो अथाह धन राजनीतिक दल व प्रत्यासी दोनों लगाते हैं उस पर बाबा की नजर नहीं जाती।राजनीतिक दलों तथा प्रत्यासियों के पास यह अकूत संपत्ति आती कहां से है?इतनी विशाल राशि राजनीतिक दलों को दान देने वाले औद्योगिक और व्यापारिक घराने इस संपदा का अर्जन क्या ईमानदार तरीके से करते हैं? क्या आम भारतीय गरीब, अनपढ़, व बेराजगार इन औद्योगिक और व्यापारिक घरानों की ईमानदारी के बावजूद हुआ है या अपने निहित स्वार्थ सिद्धि के लिए इन द्वारा अपनाए गए भ्रष्ट तरीकों की वजह से हुआ है? संसद और विधान सभाओं में कितने सांसद व विधायक इन घरानों से धन लेकर इनके हितों का संरक्षण और संवर्धन करते हैं ?इसका हिसाब किताब भी शायद बाबा ने नहीं रखा है।लेकिन बाबा तो आकड़ों के सहारे अपनी बात कहते हैं ।ये आकड़े बाबा के पास नहीं होना आश्चर्यजनक है।बाबा को भक्त लाखों करोड़ों का दान किस पैसे से देते हैं? क्या बाबा ने दानियों पर यह शर्त रखी है कि वे ईमानदारी से कमाए गए सफेद धन ही दान में स्वीकार करेंगे? यह सब कहने का लुब्बों लबाव यह है कि पढ़े लिखे सुविधा-संपंन लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जिस हद तक भ्रष्ट व गैरकानूनी तरीके अपनाते हैं उसकी तुलना में गरीबों द्वारा फैलाया गया भ्रष्टाचार बहुत कम है। पढ़े लिखे सुविधा-संपंन, औद्योगिक और व्यापारिक घराने तथा राजनीतिज्ञ किस प्रकार इस देश की संपदा और गरीब को लूटते हैं इसकी एक बानगी शिरीष खरे ने पेश की है।




शिरीष खरेमुंबई मेहनतकश मजदूरों की बदौलत चलती है. जिस रोज उन्होंने अपना हाथ रोका, यह शहर भी रूक जाएगा. इतनी अहम हिस्सेदारी होने के बावजूद उनकी जिंदगी मलिन बस्तियों में गुजरती है. क्योंकि देश की पूरी तरक्की खास शहरों को केन्द्र में रखकर हुई इसलिए कई दलित, आदिवासी, मछुआरा, कामगार और कारीगर अपने माहल्लों से उजड़कर यहां आए. लेकिन अमीर खानदान उन्हें `अतिक्रमणदार´ कहते हैं. ऐसा कहते वक्त गंदगी का एहसास उनके चेहरे पर आकर सिकुड़ जाता है. जबकि सच यह है कि आखा मुंबई पर बिल्डर, ठेकेदार और माफिया के गठजोड़ का राज है.जिन्होंने समुंदर के किनारों और रास्तों को गैरकानूनी तरीके से हथिया लिया है. 10/12 की लाखों झुग्गियां तोड़ने वाली सत्ता का ध्यान इस तरफ नहीं जाता. महाराष्ट्र या बाकी राज्यों से आए गरीब लोग मुंबई के दुश्मन नहीं होते. जिन लोगों की वजह से मुंबई अस्त-व्यस्त आता हैं उनके काले कारनामों पर रोशनी डाली जानी चाहिए. अट्रीया शापिंग माल महापालिका की जमीन पर बना है. यह 3 एकड़ जमीन 1885 बेघरों को घर और बच्चों को एक स्कूल देने के लिए आवंटित थी. लेकिन बिल्डर ने गरीबों का हक मारकर अपना कारोबार तो खड़ा किया ही कई कानूनों को भी तोड़ा. इसी तर्ज पर हिरानंदानी गार्डन मुंबई में घोटाला का गार्डन बन चुका है. इस केस में शहर के बड़े व्यपारियों को 40 पैसे एकड़ की दर पर 230 एकड़ जमीन को 80 साल के लिए लीज पर दिया गया. ऐसा ही एक और इकरारनामा ओशिवरा की 160 एकड़ जमीन के साथ भी हुआ. इसके अलावा दो और घटनाओं पर गौर कीजिए. पहले जमीन सीलिंग कानून का रद्द होना और उसके बाद कुछ अमीरों का 3000 एकड़ जमीन पर राज चलना. यह दोनों बातें एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं बल्कि काफी घुली-मिली लगती हैं. मुंबई सेन्ट्रल में तैयार हो रहा 60 मंजिला टावर देश का सबसे ऊंचा टावर होगा. जो आप नहीं जानते वह है इससे जुड़ा घोटाला. यह टावर से भी ऊंचा है. सूचना के हक से मिली जानकारी के मुताबिक यहां की जमीन 12.2 मीटर डीपी मार्ग के लिए आरक्षित है. यह काम झोपड़पट्टी पुर्नवास योजना के तहत होना है. साफ है कि टावर के बहाने शहर के अमीर लोगों ने करोड़ रूपए की जमीन घेर ली है. लेकिन इससे भी ज्यादा हेरतअंगेज मामला यह है कि सड़क के ऊपर हुआ इतना बड़ा अतिक्रमण किसी को नजर नहीं आता. 1976 में सरकार ने शहर की खाली जमीन को बचाने और समुदाय की भलाई के लिए `शहरी जमीन कानून´ बनाया था. लेकिन यह कानून मौलिक तौर पर कभी अमल में नहीं लाया गया. लगता है शहरी जमीनदारों ने ही इसका फायदा उठाया है. इसलिए तो कुछ खानदानों ने ऐसी करीब 15000 एकड़ से अधिक जमीन को अपना बना लिया. इसी तरह सार्वजनिक जमीनों का निजी इस्तेमाल भी हो रहा है. जैसा कि नगर योजना विभाग लिखता है कि `मुंबई की जमीन का इस्तेमाल विकास योजना के तहत जाना और माना गया है.´ इसलिए विकास योजना मे उन्हें हर बार गरीब का झोपड़ा ही बाधक लगता है. बार-बार ऐसी बस्तियां ही टूटती हैं. सूचना के हक से मिले कागजात दर्शाते हैं कि पिछले दो सालों में, महाराष्ट्र शासन ने 60 जगहों के आरक्षण या तो बदलें या काटे. और उनमें से कई प्राइवेट बिल्डरों को ऊंची इमारत बनाने के लिए दिए. पिछले 15 सालों में स्कूल, अस्पताल, गार्डन और ग्राउण्ड के लिए रखी कुल जमीन में से एक-तिहाई ही प्राप्त की है. इसी प्रकार 281 जगहों में से महज 3 सार्वजनिक आवास के लिए, 925 जगहों में से 48 स्कूलों के लिए और 379 जगहों में से केवल 1 अस्पताल के लिए रखी है. बाकी की जमीनों का जिक्र नहीं मिलता है. सूचना के हक से मिली जानकारी के आधार पर यह जाहिर होता है कि- ``मंडल ने मुंबई की सैकड़ों एकड़ जमीन कुछ गिने-चुने लोगों को सौंपी है. दूसरी तरफ पिछले कई सालों से गरीब के भाड़े की जमीन रूकवाई है. कुछ असरदार लोगों ने भाड़े की नई जगहों को लिया है. उन्होंने पुराने भाड़ों के इकरारनामों को या तो नया बनवाया या बढ़वाया है. मंडल ने करीब 10,000 वर्ग मीटर जगह भाड़े से दी हैं. इसका बाजार भाव सलाना 1700 रूपए प्रति वर्ग मीटर है लेकिन मंडल ने 106 रूपए प्रति वर्ग मीटर से भाड़ा लगाया. इससे उसे कुल 48 करोड़ रूपए का घाटा हुआ. मुंबई के लोगों ने कपड़ा मीलों को बंद होते देखा है. इस बेकारी के बीच मिलों की जमीनों को बेचा गया. इसमें एक के बाद एक घपले हुए. उनमें से एक घपला 2005 का है जिसमें एनटीसी ने ज्युटीपर मिल को 11 एकड़ जमीन बेची. एनटीसी ने जब जमीन बेचने के लिए भाव मंगवाए तब टेण्डर में घोषित किया था कि एमएसआय करीब 6.4 लाख वर्ग फिट रहेगा. इस आधार पर इण्डियाबुल्स ने 276 करोड़ रूपए लगाए. लेकिन मिल की जमीन लेने पर एमएसआय दुगुना हुआ. कानून के हिसाब से देखा जाए तो `शहरी जमीन कानून की धारा 26´ के मुताबिक जमीन बेचने से पहले मंडल से इजाजत लेनी जरूरी थी. लेकिन यह जमीन बिना इजाजत बेची गई. ऐसे ही घपले कर शहर के बीचोंबीच करीब 600 एकड़ जमीन पर माल, शापिंग काम्लेक्स, बंग्ले और प्राइवेट आफिस बनाए जा रहे हैं. उन्होंने मीठी नदी को भी नहीं छोड़ा. 90 के दशक में व्यापारिक केन्द्र के रूप में बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स तैयार हुआ था. यह मंगरू मार्शेस पर बनाया था जो माहिम खाड़ी के पास इस नदी के मुंह पर फैला है. यहां 1992 से 1996 के बीच कई नियमों की अनदेखी करके 730 एकड़ जमीन बनाई गई. आज काम्पलेक्स की जगह लाखों वर्ग फिट से अधिक फैली हैं जिनमें कई प्राइवेट बैंक और शापिंग माल्स बस गए हैं. इन बिल्डरों ने फेरीवालों की जमीनों पर कब्जा किया. मलबार हिल की जो जगह महापालिका थोक बाजार के लिए आरक्षित थी उसे छोटे व्यपारियों से छीन लिया गया है.( www.crykedost.blogspot.com से)
posted by CRY के दोस्त at 1:54 PM on May 12, 2009
इसके विपरीत गरीबों, अनपढ़ों, भिखारियों व किन्नरों को जब जब भी जन सेवा का मौका मिला उन्होंने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से यह जिम्मेदारी निभाई। मुजफ्फरनगर के मोरना ब्लाक क्षेत्र के पंचायत चुनाव में स्थानीय लोगों ने एक किन्नर बाला को जिला पंचायत के लिए चुना। यह जन प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के हर नागरिक के सुख दुख में शामिल होती है। पंचायत की बैठकों में अपने क्षेत्र की समस्याओं के निस्तारण के लिए आवाज उठाती है।क्षेत्र में घूम घूम कर समस्याओं का पता लगाकर अधिकारियों तक पहुंचाती है।इसी प्रकार पुरकाजी ब्लाक के खाई खेड़ा गांव के वासिंदों ने एक भिखारी नट को अपना प्रधान बना दिया। इस प्रधान ने जाति, पक्ष विपक्ष की राजनीति से ऊपर उठ कर गांव के विकास के कार्य कराए। गांव की समस्याओं को सांसदों, विधायकों व अफसरों तक पहुचाकर उनका निराकरण कराया। सदर ब्लाक के सुजडू गांव में घरों में चूल्हा-चौका व खेत में मजदूरी करने वाली कश्मीरी देवी को प्रधान बना दिया। वह भी अपने साथियों के साथ पूरी निष्ठा और लगन से गांव के विकास में लगी है। इन सभी प्रत्यासियों के चुनाव में धन भी स्थानीय ग्रामीणों ने ही लगाया।(जनसत्ता 8 मई 2009)/ यह विडंबना ही है कि अपने ही देश में अपनी चुनी सरकारों द्वारा पिछले 60सालों से ये गरीब, दमित शोषित ठगे, कुचले जारहे हैं। फिर भी एक दिन इस राजनीति में अपना यथोचित स्थान पाने की उमीद में ये निष्ठा से अपना वोट देते हैं। पर समाज के ठेकेदार इनको दुराग्रह की नजर से देखते हैं।जिस दिन समाज के स्वयंभू भद्रलोक इन गरीब गुरबों के मानवीय गुणों को पहचानने लगेंगे, और भ्रष्ट लोगों के चकाचक सफेद कपड़ों भ्रष्टाचार के दाग देख पाएंगे।साथ ही निसंकोच और निस्वार्थ भाव से उन दागों की ओर अंगुली उठा पाएंगे उस दिन समाज में भ्रष्टाचार व भ्रष्टचारी की मान्यता कम हो जाएगी ।समाज में भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में यह पहला कदम होगा।अनपढ़ गरीब भ्रष्ट नही होता वरन् भ्रष्टाचार का शिकार होता है।

2 टिप्‍पणियां:

Rakesh Shekhawat ने कहा…

‘‘जिस दिन समाज के स्वयंभू भद्रलोक इन गरीब गुरबों के मानवीय गुणों को पहचानने लगेंगे, और भ्रष्ट लोगों के चकाचक सफेद कपड़ों भ्रष्टाचार के दाग देख पाएंगे। साथ ही निसंकोच और निस्वार्थ भाव से उन दागों की ओर अंगुली उठा पाएंगे उस दिन समाज में भ्रष्टाचार व भ्रष्टचारी की मान्यता कम हो जाएगी। समाज में भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में यह पहला कदम होगा। अनपढ़ गरीब भ्रष्ट नही होता वरन् भ्रष्टाचार का शिकार होता है।’’
बहुत सार्थक टिप्पणी लेकिन मतदान को लाजिमी किये जाने के बाब रामदेव के दृष्टिकोण से मैं भी सहमत हूं।

CRY के दोस्त ने कहा…

नमस्ते सर

आपने मेरा लेख अपने ब्लॉग पर लगाया, इसके
लिए शुक्रिया.

मैं आपका संपर्क सूत्र जानना चाहता हूँ.

मेरा मेल है-shirish2410@gmail.com