गुरुवार, 7 मई 2009

पप्पू वोट नहीं देता! क्यों?

वोट देना जनतंत्र में हर नागरिक का अधिकार है और कर्तव्य भी। पर पप्पू यानी खाता पीता उच्च वर्ग न अपने मताधिकार का प्रयोग करना आवश्यक समझता और न ही अपने कर्तव्य का पालन करना जरूरी समझता है।यह रोग इतना फैल गया है कि चुनाव आयोग को पप्पू को वोट देने के लिए प्रेरित करने के लिये छोटी छोटी फिल्म बनाकर विज्ञापन भी देने पड़े हैं। 15वीं लोक सभा के चुनाव के समय तो टी वी चैनलों तथा व्यापारिक घरानों ने भी मिलकर पप्पू के वोट देने के फर्ज को निभाने की आवश्यकता को प्रसारित करने की मुहिम चलाई। पर हुए ढाक के वही तीन पात। 26/11/ 2008 के मुंबई के आतंकी हमले के बाद गुस्से से लाल पीला हुए उच्च वर्गीय मुंबईकर जिस तरह से सड़क पर उतर कर आया उससे कुछ लोगों को आशा थी कि इस 15वीं लोक सभा के चुनाव में वह बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेगा। पर नहीं लिया। सामाजिक मुद्दों से सरोकार रखने वाले अभिनेता राहुल बोस जैसे लोग हताश हुए। हों पप्पुओं की बला से। इससे पप्पू को क्या मतलब।
आखिर पप्पू वोट क्यों दे?चुनाव केवल वोट की ताकत ही नहीं दर्शाता वह धनतंत्र की ताकत भी दर्शाता है। एक जमाना था लोक से जुड़े नेता वोट के साथ साथ नोट भी अपने चुनाव क्षेत्र से चुनाव का खर्चा चलाने के लिए मांगते थे और लोग सहर्ष देते थे। चुनाव जीतने के बाद भी इन नेताओं की आर्थिक हालत में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आता था। इस चुनाव के दौरान भी एक टी वी चैनल ने एक पुरानी जन प्रतिनिधि को परिवार के भरण पोषण के लिए अपने पति के साथ पत्थर ढ़ोते दिखाया था। अब जमाना बदल गया है। अब जनतंत्र का ऊर्जा स्त्रोत धनतंत्र होगया है। यदि पारिवारिक विरासत में राजनीतिक हैसियत प्राप्त न हो तो धनतंत्र उसे प्राप्त करने का सबसे सरल रास्ता है। बहुजन समाज पार्टी इसका सबसे सटीक उदाहरण है। आज तो पैसे से चुनाव लड़ने के लिए टिकट खरीदा जाता है। (बहुजन समाज पार्टी मे यह खुले आम होता है।पिछले 2008 के विधान सभा चुनाव में दो मुख्य राष्ट्रीय दलों पर भी टिकट बेचने के आरोप लगे थे।)टिकट मिलने के बाद तो चुनाव जीतने के लिए हर कदम पर पैसा लगाना होता है। सभाओं व रोड शो करने के लिए भाड़े में लोगों को जुटाना पड़ता है।यह धन कहां से आता है और क्यों आता है।आज आम मतदाता भी यह खूब समझता है।
13वीं लोक सभा के समय तहलका से स्ट्रिंग आपरेशन तथा 14वीं लोक सभा के दौरान हुए विभिन्न स्ट्रिंग आपरेशनों से स्पष्ट हो गया कि तथाकथित जन प्रतिनिधि जनसेवा के मकसद से नहीं धनसेवा के मकसद से चुनकर आते हैं। इसीलिए हम देखते हैं जब भी सांसदों या विधायकों की या निगम स्तर के जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्ते को बढ़ाने के मसले पर सत्तापक्ष कोई प्रस्ताव लाता है उस पर राजनीतिक दलों में कभी कोई मतभेद नहीं होता। सर्वसंमति से ये प्रस्ताव पास होजाते हैं।
धनतंत्र के बल पर चुनाव जीते सभी प्रतिनिधि गैर कानूनी तरीके से ही अपने धनतंत्र को मजबूत करने में विश्वास नहीं करते।उदारीकरण के दौर में जो भी राजनीतिक दल सत्ता में आता है वह देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों के हित साधने के लिए ही नियम, कानून बनाता है नीति निर्धारित करता है। पिछले 18 सालों के अनुभव से साफ होगया है कि देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों के हित साधने में राजनीतिक दलों की विचारधारा आड़े नहीं आती।विकास का मतलब भी रोटी, कपड़ा,मकान, शिक्षा व स्वास्थ से हटकर बिजली, सड़क व पानी होगया है। यह स्थिति उस जनतंत्र में है जहां एक सरकारी समिति ने अपनी रपट में उजागर किया था कि 80 प्रतिशत जनता की रोजना आमदनी महज 20 रुपया है। एक बात साफ है आम जन को जीवन की मूल सुविधाएं(रोटी, कपड़ा,मकान, शिक्षा व स्वास्थ) मुहैय्या कराने से जनता की सेवा करने का दावा करने वाले प्रत्यासी व उनके राजनीतिक दलों को वह लाभ नहीं होता जो देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों को बिजली, सड़क व पानी की सुविधा उपलब्ध कराने में होता है। राजनीतिक दल किस प्रकार विकास के नाम पर देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों के हाथों इस देश की संपदा ओने पौने दामें में बेच रहे हैं इसका नंगा स्वरूप झारखंड, छत्तीसगड़ तथा उड़ीसा जैसे प्राकृतिक संपदा के धनी राज्यों में देखा जासकता है। अक्सर इस प्रक्रिया में संविधान, नियम व कानूनों को भी ताक पर रख दिया जाता है।आम आदिवासी या वनवासी जिसका अस्तित्व इन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है इसका विरोध कर रहा है और सरकारी तंत्र की ज्यादतियों का शिकार होरहा है। दुर्भाग्य से अक्सर उसे न्यायपालिका से भी राहत नहीं मिल रही है।
विकास के नाम पर पिछले 60 सालों में अपने जल जंगल जमीन के बेदखल होकर जब गरीब रोजी रोटी की खोज में शहर आता है तो यहां उसके लिए झुग्गी बनाने के लिए जगह नहीं है। वह सड़क किनारे रेड़ी लगाकर सब्जी आदि नहीं बेच सकता। अब बड़े बड़े मौल खोले जारहे हैं वहां ये व्यापारिक घराने खुदरा माल बेच रहे हैं। इन मौलों के लिए भी भूमि, बिजली, सड़क पानी चाहिये। पप्पू के हित इन देशी तथा विदेशी व्यापारिक घरानों के हितों से जुड़े हैं।निजीकरण व आउटसोर्सिंग की वजह से महज फर्राटो की अंग्रेजी बोलने वाले पप्पुओं को भी आसानी से नौकरी मिल रही है।मौल उनकी मौज मस्ती की पूरा प्रबंध करते हैं। आखिर मौज मस्ती के लिए एक ही जिंदगी तो है।उस एक ही जिंदगी में चुनाव के दिन मिली एक दिन की छुट्टी वोट देने में कैसे बरबाद की जा सकती है। इतना बड़ा दिल तो पप्पू के पास नहीं हो सकता। दूसरा वोट कोई भी दे। सरकार किसी भी दल की बने पप्पू की हित संरक्षित होता है। कारण पप्पू को नौकरी देने वाली कंपनी के हितों की सुरक्षा करने में ही हमारे जनप्रतिनिधि तन मन धन से लगे होते हैं।
जहां तक आम आदमी का सवाल है उसके लिए मताधिकार अस्तित्व का अधिकार है। उसको मालूम है लोकतंत्र पर धनतंत्र का ग्रहण लगा है और समय के साथ साथ इस ग्रहण का आकार-प्रकार भी बड़ा हो जारहा है । फिर भी वह बहुत सोच समझ कर अपने मताधिकार का प्रयोग कर रहा है। मसलन् राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(राजग) की सरकार ने जिस तरह एक ओर गोदामों में अनाज सड़ाया या ओने पौने दामों में निर्यात किया पर भूख से मरते लोगों तक नहीं पहुचाया उसी का परिणाम उसे 14वीं लोकसभा के चुनाव में भुगतना पड़ा।इंड़िया शाइनिंग या फील गुड का राजग का नारा धरा का धरा रह गया।नई सरकार को कुछ नीतियां तो आमजन के लिए बनानी पड़ी।यह सच है क्रियांवयन में बहुत गड़बड़िया हैं।उसका खमिजाना यह सरकार भुगतेगी। पूर्ण बहुमत की उमीद तो किसी भी दल को नहीं है। यदि आमजन के हितों की रक्षा के लिए बनी नीतियां ईमांदारी से लागू की गई होती तो क्या यह हताशा होती।धनतंत्र के ग्रहण के बावजूद लोकतंत्र की यही जीत है।
लेकिन पप्पू का वोट देना हम क्यों जरूरी मानते हैं। अति आवश्यक तो है किसी बालिग नागरिक को मताधिकार से वंचित नहीं किया जाय।मुझे नहीं लगता कि कभी इस पर बहस हुई हो कि कैसे उन लाखों (यदि करोड़ों नहीं भी तो) बेघर लोगों को भी यह अधिकार मिले। उदारीकरण के दौर में हमारे शहरों को पेरिस या शांगहाई बनाने की होड़ में कई झुग्गी बस्तियां उजाड़ी गईँ। आवासीय बस्ती टूट जाने से इनके मतदाता पहचान पत्र भी वैलिड नहीं रहे। कई बस्तीवासियों को वैकल्पिक आवासीय जगह नहीं मिलने से इनके नए आवासीय पतों के आधार पर नए मतदाता पहचान पत्र भी नहीं बने हैं।चूंकि ये लोग अनपढ़ हैं, गरीब हैं हम इनके मताधिकार के बारे में चिंतित नहीं हैं। हमें लगता है इनके वोट नहीं देने से लोकतंत्र को कोई खास फर्क नहीं पड़ता। पप्पू का वोट देना हमें आश्वस्त करता है कि वह सोच समझ कर लायक प्रत्यासी को ही चुनेगा।शायद यह हमारा आमजन के प्रति दुराग्रह ही है। यदि हम भ्रष्टाचार के आकड़ों और प्रकृति पर नजर डालें तो पाऐंगे कि भ्रष्टाचार करने वाले व भ्रष्टाचार को बढ़वा देने वाले अधिकतर लोग मध्यवर्गीय ही हैं। मध्यवर्ग ही गैर कानूनी तरीके से अपने हितों के संवर्धन के लिए घूस देता है या जान पहचान निकालता है। य़दि मध्यवर्ग पिछले दरवाजे से काम कराने बंद कर दे तो भ्रष्टाचार अपने आप कम हो जाएगा। गरीब मजबूरी में ही घूस देता है। चूंकि उसके पास कोई सरकारी ओहदा नहीं होता इसलिए वह घूस नहीं लेता है। घूस सरकारी मुलाजिम लेता है। अभी तो आम धारणा है कि छोटे से छोटा मुलाजिम भी जो घूस लेता है उसका हिस्सा ऊपर तक जाता है। गरीब तो बाहुबली भी हो नहीं सकता। दूसरा बिना सफेद पोस के संरक्षण के बाहुबली का बजार नहीं फलता फूलता।
यदि लोकतंत्र में धनतंत्र के प्रभाव को कम करना है तो आज जरूरत है आमजन को बिना हील हुज्जत के मतदाता पहचान पत्र मिले। और इस मतदाता में अपने मताधिकार का बिना किसी लाग लपेट के प्रयोग करने का माद्दा जागे।जिस दिन यह मतदाता शराब की बोतलों, साडियों या बिरयानी की दावतों के एवज में मतदान न दे।बल्कि उपलब्ध प्रत्यासियों की सूची में सबसे लायक, तथा सबसे कम भ्रष्ट प्रत्यासी को चुनेंगे उस दिन धनतंत्र पर लोकतंत्र के विजयी होने की शुरुआत होगी।

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