इतिहास ने फिर अपने आप को दोहरा दिया है।
पिछले एक साल से बाबा रामदेव के काला धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने तथा
विदेशों से वापस लाने के लिए अलक जगाए है। लेकिन इन अथक प्रयासों को, आम भारतीय जनमानस
से पूरी तरह कट गए, तथा लगातार अपनी प्रासंगिकता खो रहे राजनीतिक दलों ने लील लिया
है। कल 13, 8, 12 को रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे राजनितिक दलों के
नेताओं ने जिस बेशर्मी से रामदेव का समर्थन किया उससे 70 के दशक के जे. पी. आंदोलन
की याद तरोताजा होगई। तब भी जे. पी. आंदोलन से अपनी प्रासंगिकता खोचुके नेताओं को
नया जीवनदान मिल गया। ततपश्चात भ्रष्टाचार नई ऊर्जा के साथ पनपने लगा।
कल जिस तरह से बाबा रामदेव तथा टी वी चैनलों
में बाबा का पक्ष रखने वाले इन नेताओं की कारगुजारियों को नजरअंदाज कर इनके समर्थन
पर इतरा रहे थे उससे उनकी राजनैतिक दूरदर्शिता पर तरस आरहा था। थोड़े से धैर्य तथा
थोड़ी सी परिपक्वता से यदि बाबा रामदेव काम करते तो शायद जिस प्रकार का संगठन
उन्होंने तैयार किया है उसके बल पर वह सभी भ्रष्ट तत्वों को आयना दिखा सकते थे। मुसलमानों
को मोहने के लिए उदार छबि प्रस्तुत करने के बाबजूद रामदेव सांप्रदायिक तत्वों से
अपने अंतरंग रिस्ते छिपाने में नाकाम रहते हैं।इन्ही रिस्तों की वजह से रामदेव को
इन तत्वों से जुड़े दलों को मंच देना होता है। दूसरा रामदेव अपने आंदोलन को
सामाजिक तथा आर्थिक आंदोलन भले कहें पर उनके पास न जाति आधारित शोषण को समाप्त
करने के लिए कोई प्रोग्राम है और न लिंग आधारित शोषण को। अतःजाति आधारित दलों का
समर्थन हासिल कर वह अपनी इस कमी को ढ़कने की कोशिश कर रहे थे। आदिवासी प्रतीक
बिरसा मुंडा उन्होंने अपना लिया है पर जिस अन्याय के बिरुद्ध बिरसा मुंडा लड़े थे
उसको समाप्त करने की सौगंध रामदेव नही खाते। इस प्रकार दोहरापन रामदेव की रणनीति
में भी है। अपने आत्मविश्वास को मजबूत करने के लिए जिस तरह से उन्होंने सारे प्रतीकों
को अपना लिया है उसी तरह से अपनी मुहिम के समर्थन में सारे काग्रेस विरोधी दलों का
समर्थन भी हासिल कर लिया। इससे बाबा रामदेव के होसले तो बुलन्द होगए। परन्तु भारतीय जनता एकबार फिर ठगी गई।
इससे
पहले वी पी सिंह ने बोफर्स तोप सौदों में घूसखोरी का मामला उठाकर एक बार फिर
जनमानस को झकझोर दिया था। चुनाव जीत कर मिली जुली सरकार भी बना ली। लेकिन सरकार
बनते ही बोफर्स का मुद्दा हासिये में चला गया। मंडल कमंडल के सवालों पर राजनीति
सिमट गई।वी पी सिंह की सरकार चली गई। राजनीति में नए समीकरण बने। संयुक्त मोर्चों
की सरकारें बनने लगी। भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ने लगा। हाल
में टीम अन्ना ने सभी राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार का भंड़ाफोड़ करने के इरादों से
नई उमीद जगी थी। इसीलिए उनके आंदोलन को आमजन का स्वतः स्पूर्त समर्थन मिला। लेकिन
वह भी धैर्य खो बैठी। अब राजनीतिक दल बनाने की तैयारी में जुटी है। अन्ना ने अपनी
आपत्तियां अपने ब्लाग में दर्ज कर दी हैं। यहां यह कहना समचीन होगा कि वे
आपत्तियां उन सभी अन्ना आंदोलन समर्थकों की है जिनको टीम अन्ना के राजनीतिक दल
बनाने के एलान से निराशा हुई है। दुर्भाग्य से उन आपत्तियों का निराकरण करने के
बजाय अन्ना के राजनीतिक दल बनाने के पक्ष में होने की बात कही जारही है।
इन
सारे अनुभवों से एक बात जो साफ हो जाती है वह यह है कि विशाल जनसमर्थन पाने पर जन
आंदोलनों के सामने बड़ी चुनौती सरकार से अपनी मांगे मनवाने की ही नहीं होती है। उससे
भी बड़ी चुनौती विपक्षी राजनीतिक दलों की कुदृष्टि से अपने आंदोलन को बचाने की भी
है।
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