गुरुवार, 16 अगस्त 2012

जन आंदोलनों की सफलता का आंकलन में मुद्दों के निराकरण के आधार परहोता है जीत या हार नहीं।




9 से 14 अगस्त तक दिल्ली के रामलीला मैदान में तथा दिल्ली की सड़कों पर बाद में अम्बेडकर स्टेडियम में पुलिस को छका कर बाबा रामदेव ने अपना शक्ति प्रदर्शन तो कर दिया।पिछले साल वेष बदल कर भागने का दाग भी धो दिया। पर पाया क्या? यह कहना कि सरकार हार गई या डर गई खुद को धोखा देना है। बाबा रामदेव वह नौटंकी कर पाए क्योंकि सरकार ने उनको करने दिया। अम्बेडकर स्टेडियम में एक बार बाबा ने माना भी।(बाबा ने वर्तमान गृहमंत्री श्री सुशील कुमार सिंडे की तुलना पूर्व गृहमंत्री श्री पी. चिदंबरम् से करते हुए उनको अच्छा गृहमंत्री कहा।) हम सब जानते हैं कि पिछले 65 सालों में केंद्र तथा राज्य सरकारों का रुख विभिन्न जाति तथा वर्गों को आंदोलनों के लिए पक्षपातपूर्ण रहा है।जहां कमजोर वर्गों के आंदोलन आमतौर पर दबाए जाते हैं , कुचले जाते हैं।मध्यम वर्गों के आंदोलनों को सड़कों पर नौटंकी करने तथा सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुचाने की छूट देकर थकाया व छकाया जाता है। बाबा रामदेव को भी सरकार ने थकाया व छकाया है। तीन दिन तक सरकार के न्यौते का असफल इंतजार करने के बाद बाबा ने आपा खो दिया धैर्य खो दिया। भाषा असंयत होगई। विष वमन होने लगा। घबराहट में बाबा उन सभी दलों का समर्थन ले बैठे जिनके नेता,मंत्री, विधायक यहां तक कि गांव तथा जिला स्तर के छुटभैय्ये नेता भी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे है। बाबा के निष्पक्ष समर्थकों को भी बाबा के इन दलों का समर्थन लेने से निराशा ही हुई होगी। बाबा चार सौ सांसदों के समर्थन पर फूले नहीं समारहे हैं।पर बाबा द्वारा उठाए गए मुद्दों पर ये चार सौ सांसद उसी तरह संसद में ढुलमुल रवैया अपनाए हैं जैसा जन लोकपाल के मूद्दे पर। बाबा की यह सारी कवायद समस्या के समाधान की दिशा में उसी तरह बेअसर रही है जिस तरह से अन्ना आंदोलन।सवाल है बाबा अपने आंदोलन की तथाकथित सफलता पर इतने खुश क्यों हैं? क्या बाबा वास्तव में काला धन वापस लाना चाहते हैं या 2014 में स्वयं को किंग मेकर की भूमिका में देखना चाहते हैं?




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