मंगलवार, 2 जुलाई 2013

यह तथाकथित विकास तो जीव मात्र के लिए अपराध है।

यह तथाकथित विकास तो जीव मात्र के लिए अपराध है।



चित्रा नारायण उत्तराखंड की तबाही देखकर विचलित हो जाती है और हिमालय की हुई अनवरत लूट को हिमालय का रेप कहती है और मानती है यह त्रासदी उसी लूट का परिणाम है। लेकिन हमारे राजनेता विकास कार्यों पर रोड़े अटकाने के लिए चैनलों में पर्यावरणविदों को पानी पी पी कर कोस रहे थे। क्षत विक्षत हिमालय उनको परेशान नही करता दिखता है। उनका दर्द है कि इन पर्यावरणविदों के अड़गों की वजह से उनका विकास कार्यक्रम उतनी तेजी से नहीं चल पाए जितनी तेजी से वे करना चाहते थे।यदि विकास उनके अनुसार तय की गई गति से होता तो  तब उत्तराखंड  का क्या मंजर होता इसकी कल्पना ही की जासकती है। यह विकास ये राजनीतिक दल लोगों की मांग पर करने का दावा करते हैं।आगे भी जनता को बिजली सड़क पानी देने के लिए विकास करते रहने का दावा करते हैं। यही नेता दावा कर रहे हैं कि उत्तरकाशी क्षेत्र को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने का प्लान स्थानीय लोगों का विरोध देखकर ही रोका गया। दुर्भाग्य से इस विकास से स्थानीय लोगों का जीवन कितना दूभर होगया है इसको कोई नही बताता।
      वनवासी तथा आदिवासी कैसे पर्यावरण का विरोध कर सकते हैं। पर्यावरण तो उनके अस्तित्व का हिस्सा सदियों से रहा है।वन,वनोपज, जंगली जानवर, पशु पक्षी उनके अस्तित्व का हिस्सा रहे हैं। उत्तराखंज की विषम परिस्तियों में यह पर्यावरण ही लोगों को भूख,व ठंड से बचाता रहा है। य़हां के क्षेत्र कितने दुर्गम हैं यह राहत तथा बचाव में लगे लोगों को देखकर समझ में आसकता है।यदि आप विकास की धारा को समझने की कोशिश करेंगे तो पांएगे कि यह धारा पूंजीपतियों के शोषण के लिए उत्तराखंड को सहज और सुलभ बनाने के लिए किया गया है। 1970 में अलखनंदा में आई बाढ़ से स्थानीय लोगों को समझ आया कि इस बाढ़ की भयावहता का कारण हिमालय के वनों का अबाध कटान था। तब भी तत्कालीन उत्तरप्रदेश के मुख्य मंत्री जो वर्तमान मुख्य मंत्री के पिता थे ने वनों को बचाने के लिए चिपको की मुहिम का विरोध किया और कहा कि यदि अंय स्थानों के लोग चिपको की तर्ज पर लटको करेंगे और विकास के लिए प्राकृतिक संशाधनों के दोहन पर रोड़े आटकाएंगे तो देश का विकास कैसे होगा। लोकिन  विशेषज्ञ समिति  की रिपोर्ट ने स्थानीय लोगों की आपत्तियों को सही पाया।

      अब सवाल उठता है कि पिछले 40-45 साल में ऐसा क्या हुआ कि स्थानीय  लोग पर्यावरण के नाम पर बिदकने लगे हैं। इसको समझने के लिए हमें इंसान और ब्रह्मांड में सर्वत्र व्याप्त जीवन  के बीच जीओ और जीने दो के संबंध को समझना होगा। 
आज के संदर्भ में तो हमें केवल इतना समझना होगा कि किस तरह पूँजीवादी व्यवस्था का अस्तित्व आम इंसान के प्रकृति के साथ के इस नैसर्गिक संबंध के उन्मूलन पर आधारित है। भारत में अंग्रेजों ने आते ही बाजार कब्जाने व बढ़ाने के साथ साथ प्राकृतिक संसाधनों को कब्जाना प्रारंभ किया जिसका आदिवासियों और वनवासियों ने पुरजोर विरोध किया। अंग्रेजों के विरोध के इतिहास की यदि निष्पक्ष जांच हो तो यह साफ होजाएगा कि भारत में स्वतंत्रता की पहली लड़ाई यहां के आदिवासियों ने लड़ी है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि अपने संसाधनों पर अपना अधिकार सहित संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए किये गए इन आदिवासी संघर्षों  को हम विभिन्न आदिवासियों के विद्रोह के तौर पर पढ़ते हैं आजादी की लड़ाई के तौर पर नहीं। अंग्रेज तो चले गए पर उनके द्वारा विकसित तंत्र बरकरार रहा। समय की प्रगति के साथ साथ विज्ञान तथा तकनीक के विकास में नए आयाम जुड़ गए हैं। परिणामस्वरूप अब विश्व एक वैश्विक गांव  में तब्दील होगया है। यानी इस वैश्विक गांव के किसी भी कोने में बैठकर आप समस्त विश्व के संसाधनों का दोहन कर सकते हो। इसलिए एक बार फिर समस्त बनवासी व आदिवासी क्षेत्र पर कारपोरेट जगत की कुदृष्टि पड़ी है। (ऐसा नहीं था कि इन क्षेत्रों के संसाधनों का दोहन इससे पहले रुक गया हो। दोहन चालू था पर उसमें वैश्विकरण के बाद सी तेजी नहीं थी। तब कारपोरेट जगत तीसरी दुनियां में भारी उद्योग लगाकर उसके बाद कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति कराकर अपनी पूंजी बढ़ा रहा था।)
तकनीक के विकास के साथ साथ शासन तथा प्रशासन तंत्र को चलाने के लिए भी नई तकनीक विकसित की गई। 18वीं तथी 19वीं सदी में बाजार तथा संसाधनों को कब्जाने के लिए शासन तथा प्रशासन पर प्रत्यक्ष कब्जा यानि उस देश में शासन करना आवश्यक था। केवल चीन को ही साम्राज्यवादियों ने सेमी कालोनी बनाकर मिलजुल कर लूटा था। अब प्रत्यक्ष कब्जा करने की आवश्यकता नहीं है। आज विश्व के वैश्विक गांव  के हर देश की सरकार कारपोरेट घरानों के आदेश मानने हर क्षण तत्पर रहती है। अमेरिकी राष्टपति अमेरिकी लोगों के हित साधने के नाम पर पूरी दुनिया को  अमेरिका के कारपोरेट घरानों के लिए सुरक्षित बनाने के लिए पूरी दुनियां के देशों का दौरा करते रहते  हैं। अब अमेरिका को पूरे विश्व में राज किए बगैर ही सूपर पावर का दर्जा मिला है। कारण अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों का जाल पूरी दुनिया में फैला है। उनका किसी भी देश की अर्थव्यवस्था से हाथ खीच लेने से ही उस देश में जलजला सा आजाता है। जनता द्वारा चुनी सरकारें इन्ही निगमों के हित साधती हैं। अपने देश की जनता के हितों के संरक्षण के नाम पर बहुराष्ट्रीय निगमों के आगे घुटने टेकते हैं।उत्ताराखंड के संसाधनों की लूट भी कारपोरेट जगत की कभी न बुझने वाली भूख को मिटाने के लिए ही की जारही है। 
वैश्विक गांव  का दूसरा चमत्कार यह है कि अब हर देश के मध्य वर्ग के हित कारपोरेट जगत से जुड़े हैं। लोकतंत्र में सरकार के हित या विरोध में हवा बनाने में मध्य वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।सरकारी नीतियां तथा कारपोरेट घराने मध्य वर्ग को मजबूत करती हैं। बदले में मध्य वर्ग कारपोरेट घरानों के हित साधने वाली नीतियों का समर्थन करता है। साथ ही एक क्रोनी केपिटेलिस्ट क्लास भी विकसित हुआ है जिसके हित भी संसाधनों की लूट से ही सधते हैं। इसीलिए हमने देखा कि इस भीषण आपदा के पश्चात भी पोलिटिकल क्लास से कोई यह मानने तैयार नहीं था कि यह मानवकृत है तथा  संसाधनों की लूट तथा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का परिणाम है। हृदयेश जोशी ने एक चैनल में बताया कि यदि सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगी जाय तो यह साफ होजायगा कि नदियों के किनारे अवैधरूप से बने अधिकांश होटल उत्तराखंड के राजनीतिज्ञों के थे। इसीलिए राजनीतिक दल इस पर अंगुली नहीं उठा रहे हैं। वे सिर्फ पर्यावरणविदों को पानी पी पी कर कोस रहे थे। और विकास के नाम पर किये गए विनाश के इस तांडव को जनता की जरूरत या जनता का दबाव बता कर सही ठहरा रहे थे। लेकिन उनसे कोई नहीं कह रहा था कि जनता को दोष देना छोड़िये। 
वैश्वीकरण के इस युग में पहाड़ में क्या हुआ है। एक ओर चिपको के बावजूद जंगल नष्ट होगेए हैं। दूसरी ओर विलुप्त होती प्रजातियों के संरक्षण के नाम पर राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र घोषित हो गए हैं । वहां स्थानीय लोगों की आवाजाही पर नियंत्रण हैं। चूंकि जंगल कट गए हैं विलुप्त होती प्रजातियां भोजन की खोज में गांवों में घुस जाती हैं। ग्रामीण आत्मरक्षा के लिए भी उन पर वार नहीं कर सकते ।घायल होने का अवस्था में कुछ हजार मौत पर एक लाख रुपये का मुआवजा देकर सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है। आज पहाड़ में पहाड़ी के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। जगली पशुओं का आतंक इतना है कि लोगों ने मोटे अनाजों की खेती करना लगभग बंद कर दिया है। पहाड़ में अधिकतर मोटे अनाजों की ही खेती होती है। सिचाई की जमीन थोड़ी होती है।  विकास के नाम पर सड़कें  बनाने, टनल बनाने के लिए अनाप सनाप डायनमाइट लगाकर  पहाड़ को जड़ से खोखला कर दिया है। आम पहाड़ी के लिए इस प्रकार की आपदा हर साल आती है। परन्तु वह भर वरषात में आती है। इस साल जून में टूरिस्ट सीजन में आगई। तो पूरा देश हिल गया।यहां पर भ्रष्टाचार चरम पर है।बिना कमिशन के पत्ता भी नहीं हिलता।पहाड़ टूटने, जमीन धसकने से पहाड़ियों का अस्तित्व खतरे में रहता है तथा अर्थ व्यवस्था चरमरा गई है। दुर्घटना के बाद सरकारी मुआवजा इतना कम होता है कि वह लागों के साथ भद्दा मजाक सा लगता है। इस प्रकार पर्यावरण जो लोगों के जीवन का कभी अभिन्न अंग होता था उसको भी एक वस्तु (comodity) बना दिया गया है। उसके संरक्षण के नाम पर सरकार ने बहुत बड़े पहाड़ी क्षेत्र को हथिया लिया है। इससे स्थानीय लोगों की मुस्किलें बढ़ गई हैं। परन्तु प्रजातियों का विलुप्त होने की प्रक्रिया नही थमी है। कारण स्वार्थी तत्वों के लिए कोई नियंत्रण या नियम कानून नहीं हैं। उन्हें सर्वत्र वैध अवैध संरक्षण मिला है।



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