हमारे राजनीतिक दलों में कई मुद्दों पर
गजब की एका होती है। इनमें हमेंशा ही प्रमुख रहा है जन प्रतिनिधियों के वेतन व
भत्ते बढ़ाने का मुद्दा। सरकार किसी भी गठबंधन की हो इस सवाल पर सभी जन प्रतिनिधि एकमत
होते हैं और हर राज्य तथा केंद्र में हर बार फटाफट इस शुभ काम को किसी बहस
मुबाहिसा के बिना ही संपंन कर दिया जाता है।
भ्रष्टाचार
दूसरी ज्वलंत समस्या है जिस पर सभी दल एकजुट होते हैं। दलों के भीतर इमांदार और
समर्पित कार्यकर्ता समर्पित ही रह जाता है। लेकिन भ्रष्ट तरीकों में माहिर फटाफट
सीड़िया चढ़कर चोटी पर पहुचता जाता है।ये भ्रष्ट कार्यकर्ता तो शायद ही होते हैं
पर नेता की हैसियत से दलों के राज्य व केंद्र स्तरों पर संगठनों में प्रभावी पद पा
जाते हैं। महत्वपूर्ण पद पाते ही वे अपने अनुयायी भ्रष्टों को भी दल में प्रवेश
दिला देते हैं।चुनाव समीप आने पर दूसरे दलों के भ्रष्ट नेताओं पर भी डोरे डाले
जाने लगते हैं। अक्सर समाचार पत्रों में इन नेताओं के अपने समर्थकों के साथ दल
बदलने की खबर छपती है।अपने धनबल बाहुबल की सहायता से चुनाव जीत कर ये भ्रष्ट सरकार
का हिस्सा बनते हैं। इस प्रकार देखा गया है कि सरकार किसी भी दल की हो कुछ लोग
हमेशा ही मलाई का आनंद लेरहे होते हैं।गठबंधन की स्थिति में तो इनकी स्थिति और भी
मजबूत हो जाती है।मजे की बात यह है कि खुद को भ्रष्टाचार के विरुद्ध बताने वाले
दलों के शीर्ष नेतागण किसी न किसी बहाने इन दागी नेताओं को कारनामों को गरिमा
प्रदान करने की कोशिश करते रहते हैं और उमीद करते हैं कि जनता इनकी इमानदारी पर शक
नही करेगी। जिस तरह अंयाय करना तथा सहन करना दोनों ही गलत है उसी प्रकार बेइमानी
करना व बेइमान को पनाह देना भी गलत होना चाहिये। पर राजनीतिक दल यह नहीं मानते।
अपनी सुविधा के अनुसार ये धनबलियों तथा बाहुबलियों का इस्तेमाल सत्ता पाने तथा
सत्ता में बने रहने के लिेए करते हैं साथ में खुद को इमानदार, साफ सुथरी राजनीति का
हिमायती बताते भी नहीं थकते हैं।तथाकथित राजनीतिक दलों का यह दोहरा चरित्र बेनकाब
होना चाहिये। भ्रष्ट के साथ साथ उसको राजनीतिक संरक्षण देने वालों तथा राजनीतिक
सुविधा के लिए उनका इस्तेमाल करने वालों को भी भ्रष्ट ही करार दिया जाना चाहिये। भ्रष्टाचार
राजनीतिक दलों के लिये कितना महत्वपूर्ण या कहें अपरिहार्य होगया है यह उनके अन्ना
हजारे की जन लोकपाल की मांग पर प्रतिक्रिया से स्पष्ट होगया था। सभी ने प्रत्यक्ष
या परोक्षरूप से इस विधेयक को रोकने की पुरजोर कोशिश की। एक ओर से कहा जासकता है
भ्रष्टाचार राजनीतिक दलों के डीएनए का हिस्सा बन गया है।
धनबल के
साथ बाहुबल भी जुड़ा है।हर राजनीतिक दल स्थानीय स्तर से ही बाहुबलियों को तरजीह
देता है। इनके हर प्रकार के गैरकानूनी कामों को राजनीतिक संरक्षण दिया जाता है।बदले
में ये बाहुबली अपने आकाओं तथा उनके दलों की तिजोरियां भरते रहते हैं।यदि हर
राजनीतिक दल धनबलियों और बाहुबलियों के गैरकानूनी कामों को राजनीतिक संरक्षण देना
बंद कर दें तो उससे ही राजनीति की काफी हद तक सफाई हो जाएगी। ऐसा करने के बजाए ये
दल सूचना के अधिकार के क्षेत्र के भीतर आने का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। अब कहा
जारहा है कि सरकार आध्यादेश लाकर राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने
जारही है।
सूचना के
अधिकार की तरह ही कल यानी 10,7, 13 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भी इन दलों को
हिला दिया है। इस फैसले के अनुसार दो साल से अधिक की सजा पाने वाले जनप्रतिनिधियों
को सजा के फैसले के समय से ही अपनी सदस्यता गवानी होगी। कल टीवी में सभी दल किंतु
परंतु में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे। साथ ही उच्च न्यायालय के द्वारा दोषमुक्त
किये जाने की स्थिति में संबंधित जनप्रतिनिथि के साथ अन्याय होने की बात भी कह रहे
थे। यह भी बोला जारहा था इससे कि चाहे सौ दोषी बरी हो जाय परंतु एक निर्दोष को सजा
नही मिलनी चाहिये वाले न्याय के सिद्धांत का हनन होगा। लेकिन जब माओवादी के नाम पर
बेकसूर आदिवासी सालों जेलों में सड़ते रहते हैं या आतंकवादी के शक में मुसलमानों
के अधिकारों का हनन होता है तब राजनीतिक दलों को आम भारतीय के मूल अधिकारों की याद
नहीं आती। अब देखना यह है कि धनबल तथा बाहुबल पर हुई इस न्यायिक चोट को ये दल किस
प्रकार निरस्त करते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें