शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

आधुनिक सभ्यता के रोम रोम से हिंसा टपकती है

एक--
रोटी और कार पाने के संघर्ष से उपजी हिंसा
10,01,08 का समाचारों का दिन टाटा के लखटकिया कार के नाम रहा। पूरा इलैंक्टोनिक मीडिया दोपहर से ही इस कार के गुण गाने में लगा रहा। प्रगति मैदान में लोगों का हुजूम इस कार की एक झलक पाने के लिए उमड़ा। ऐसा लग रहा था कि मानो सभी आम व खास लोगों को इस कार के सड़क में आने का बेसब्री से इन्तजार है। अघाये हुए लोगों के इस मजमें में किसी को भी सिंगुर के उन विस्थापितों का ध्यान नही आया जिनका जीने का अधिकार इस कार ने छीन लिया है। जिनके खून, आंसू, व हाय से इस कार के पहिये लतफत होने वाले हैं।सहारा समय को दिये गए साक्षातकार में सिंगुर की बूढ़ी बूढ़ी औरतें कह रही थी कि टाटा फैक्ट्ररी के लिए भूमि अधिग्रहण से पहले वे खेती करती थी।उनके खेतों में अनाज, सब्जी तथा दालें सभी रोजमर्रा के खाद्यानों की खेती होती थी। व भरपेट भोजन खाती थी।सरकार द्वारा जमीन टाटा को दिये जाने के बाद उन्हें भोजन के लाले पड़ गए हैं। सुबह तीन बजे उठ कर उन्हें दूर दराज इलाकों में मजदूरी की खोज में जाना पड़ता है। देर रात घर लौटती हैं।इस पूरी मसकत के बाद भी मुस्किल से वे एक बार का भोजन जुटा पारही हैं।खेती की जमीन छिन जाने से उनके बच्चों का स्कूल जाना भी बन्द होगया है। उल्लेखनीय है कि टाटा की यह कार सिंगुर में कई जाने ले चुकी है। लेकिन वाम मोर्चा सरकार इस सब से बेखबर दो पहिया चालकों को सस्ती कार का सपना दिखा कर स्वयं की पीठ थपथपा रही है। कृषि जो देश की 60 प्रतिशत लोगों के लिए रोजगार जुटाती है को उजाड़ कर उद्योगों को लगाया जारहा है। आज पूरे देश तथा पूरे विश्व में उच्च तकनीक आधारित उद्योगों को ही तरजीह दीजारही है। इससे अमीर और अधिक अमीर गरीब और अधिक गरीब होरहे हैं। एक प्रकार से अमीरों की अमीरी का पूरा बोझ गरीबों पर डाला जारहा है। दुर्भाग्य से तथाकथित प्रबुद्ध समाज, सरकारें और मानव अधिकारों का ढ़िढ़ोरा पीटने वाली अन्तराष्ट्रीय संस्थाएं भी गरीबों के विरुद्ध की जारही इस हिंसा से लाभान्वित होती है। इसीलिए इसके विरुद्ध कोई ठोस कार्यवाही नही होती। प्रश्न उठता है कि क्या गरीबों के विरुद्ध जारी यह किसी मायने में आतंकी हिंसा से कम क्रूर है? आखिर कब तक ये गरीब इस सुरसा के मुह की तरह बढ़ती अमीरी का बोझ झेल पाएंगे? यहां यह सवाल उठाना भी प्रासंगिक है किगरीबों के विरुद्ध इस निरंतर जारी हिंसा को समाप्त करने के लिए कड़े कदम उठाने की व्यवस्था किये बगैर क्या दो अक्तूबर को विश्व अहिंसा दिवस मनाना उस महान संत के साथ क्रुर मजाक नही है तो क्या है?

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