बाबा साहब अम्बेडकर ने दलित बस्तियों को आम रिहाइसी इलाके से दूर एक कोने में बसाए जाने पर सवाल उठाए। यह तो सोची समझी साजिस थी। यदि रिहाइसी इलाकों के पास ही दलित बस्ती होती तो तथाकथित भद्रलोगों की दलितों के साथ की जाने वाली वह सतत् हिंसा उजागर होजाती जो उनको (दलितों को)अमानवीय परिस्थितियों में जीवनयापन करने को मजबूर करती रही है। प्राचीन भारत में ही मनु ने नारी और दलित को शिक्षा और धार्मिक कर्मकान्डों से दूर रखकर उनको अदृश्य रखने की साजिश की बड़ी पक्की तथा इतनी गहरी नींव रखी कि वह आज तक तोड़े नही टूट रही है।
दलितों की भांति नारी की बंधनों में जकड़े रहेने की पीड़ा को अदृश्य रखने के पुख्ता इंतजाम किये गये थे। पुराने संभ्रांत संयुक्त परिवारों में बड़े बड़े घर होते थे। उनमे भी जनाना तथा मर्दाना भाग अलग अलग होता था। मर्दाना हिस्सा हवादार, खुला व सुविधा संपन्न होता था जबकि जनाना हिस्सा हर तरह की वर्जनाओं से लैश व उपेक्षित होता था। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ऐसे परिवारों के घरों के जनाना हिस्से की दयनीय हालत का वर्णन अपनी स्त्रीरेर पत्र लम्बी कहाना में किया है।
घर और समाज के भीतर विकलांगों को भी छुपा कर रखने की परंपरा शायद पूरे विश्व में रही है। अपने देश में 1931 की जनगणना के बाद की जनगणनाओं में विकलांगों को शामिल करना बन्द कर दिया था। कारण यह बताया गया कि परिवार के लोग विकलांग व्यक्ति के बारे में सार्वजनिक तौर पर बताने से कतराते हैं। इस प्रकार परिवार के लोगों को विकलांग के बारे में जागरूक बनाने के स्थान पर एक सरकारी संस्थान ने भी विकलांगों को ही अदृश्य कर देना ही उचित समझा। सारा मामला मानसिकता का है।आज भी कई घरों में विकलांगों को मेहमानों के सामने आने की इजाजत नही होती। बहुत पहले डिब्बस् शीर्षक से एक पुस्तक पड़ी थी। इस पुस्तक में डिब्बस् के पढ़े लिखे बुद्धिजीवी माता पिता इस अहसास से दुखी थे कि उनका बेटा मानसिकरूप से विकलांग था। डिब्बस् का डाक्टरी परीक्षण भी वे अमेरिका के ऐसे सुदूर राज्य में कराते थे जहां किसी जानकार के मिलने की संभावना नही हो।डिब्बस् को यह सब अच्छा नही लगता था।वह हमेशा उनके हर कदम का विरोध सतत् असहयोग करके करता था। इससे उसके मानसिक रूप से विकलांग होने की धारणा गहराती गई।भला हो उस काउंसिलर का जिसने डिब्बस् के इंसानी जज्बातों को समझा और उसके व्यक्तित्व को निखारा। परिणाम डिब्बस् मानसिकरूप से विकलांग होने के बजाय विशिष्ट योग्यता वाला बच्चा निकला।
जनगणना के लिहाज से 1931 का साल बहुत महत्वपूर्ण है। 1911 से कुछ राजनीतिक कारणों से जाति आधारित जनगणना प्रारंभ की गई। इसका सवर्णों ने पुरजोर विरोध किया। लेकिन हर प्रकार के विरोध के बावजूद 1931 तक जनगणना में जाति दर्ज की जारही थी। 1931 के बाद विकलांग तथा जाति आधारित जनगणना बन्द कर दी गई। इस प्रकार कमजोरों के भौतिक अस्तित्व के लिए रची गई प्रतिकूल परिस्थितियों को छुपाने के साथ साथ कमजोरों के बारे में महत्वपूर्ण सूचना(मसलन् उनकी संख्या, संसाधनों में हिस्सेदारी, जीवन स्तर, रोजगार-शिक्षा- स्वास्थ्य की स्थिति की जानकारी) भी एकत्रित नही करना उनको समाज की मुख्य धारा से परे रखने का एक नायाब तरीका है।
बड़ी जद्दोजहद के बाद विकलांग 2001 की जनगणना में विकलांगों को शामिल करने में सफल हुए। जाति को जनगणना में शामिल करने की प्रक्रिया अभी भी प्रारंभ नही हुई। उल्लेखनीय है कि 1931 से आजतक जाति आधारित आरक्षण एक अहम् राजनीतिक मसला बना हुआ है। इस बीच मंडल आयोग की रपट आई और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसको लागू करने में अपनी सरकार भी गवाई। पर जाति आधारित विश्वसनीय आकड़ो की आवश्यकता पर जोर नही दिया गया। अब आरक्षण का विरोध करने वालों ने सरकार की आरक्षण नीति को चुनौती दी है। इसमें एक कारण विश्वसनीय आकड़े नही होना बताया गया है।फिर भी अगली जनगणना में विश्वसनीय आकड़े एकत्रित करने की बात नही होरही है।
दबाव में विकलांगों की जनगणना तो होगई। पर उनके बारे में अनुमानित आकड़े जहां तक मेरी जानकारी है घोषित नही किये गए। जब कि अन्य समूहों के बारे में पहले अनुमानित आकड़े बाद में फाइनल आकड़े प्रकाशित किये गए। जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि दबाव में आकर विकलांगों के बारे सूचना तो एकत्रित का गई परन्तु विकलांगों के लिए नीति बनाने के लिय़े इस एकत्रित सूचना को महत्वपूर्ण नही माना गया। अतः अनुमानित आंकड़े छापना आवश्यक नही समझा गया।इस प्रकार 21वीं सदी में भी अपने देश के प्रबुद्ध नीति निर्माता उपेक्षित वर्गों के लिए नीति निर्माण के लिए उनके बारे में सही आकड़े होना आवश्यक नही मानते।आकड़े एकत्रित करने के मामले बरती जारही इस उपेक्षा से यह साफ होजाता है कि व्यवस्था के लिए कमजोर वर्गों को दबाए रखने के लिए उनको अदृश्य रखना कितना आवश्यक है।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जनगणना कैसे की जाती है उसमें क्या क्या सूचनाए समाहित की जाती हैं इस पर ध्यान देना वर्ग-विशेष के लिए आवश्यकता-अनुकूल नीति निर्धारण के लिए जरुरी है। मसलन् नारी के बारे में जनगणना में एकत्रित किय़े गए आकड़ों में पाया गया कि नारी की आर्थिक भूमिका के बारे में एकत्रित की जारही सूचना, सूचना देने वालों तथा एकत्र करने वालों के पूर्वाग्रहों का शिकार होती है। सूचना एकत्र करने के लिये जो प्रश्नावली बनाई जाती है उसका जोर नारी को उत्पादक के बजाय उपभोक्ता दर्शाने में होता है। इस प्रकार जो आकड़े आते हैं उनमें नारी की उपभोक्ता भूमिका ही लक्षित होती है। परिणामस्वरूप नारी के लिय़े बनने वाली नीतियां भी उसके उत्पादक की भूमिका में आने वाली समस्याओं को नही छूती। पिछले तीन चार दशकों से इन मुद्दों पर सवाल उठने लगे तो जनगणना को नारी की विशेष भूमिकाओं के बारे में संवेदनशील बनाने के लिए कुछ कदम भी उठाए गए। विकलांगों के संदर्भ में भी जनगणना को आधुनिक विज्ञान और तकनीक के विकास के संदर्भ में किया जाना चाहिये तथा उनकी उत्पादक की भूमिका पर भी आकड़े एकत्र करने चाहिये।
भारत में ही नहीं पश्चिमी देशों में भी अश्वेत, गुलाम, मजदूर भी तथाकथित भद्र बासिन्दों की बस्ती से दूर ही बसाए जाते रहे हैं। भारत की तरह वहां भी इन गरीब बस्तियों में वहां के जीवन स्तर के हिसाब से जीवन की मूल सुविधाएं उपलब्ध नही होती।अज्ञान, अशिक्षा, बेरोजगारी के चलते वहां के जीवन में व्याप्त अशांति संभ्रांत बस्तयों से अपेक्षाकृत अधिक लक्षित होती हैं।संभ्रांत समाजों के सफेतपोश अपराध पर्दे के पीछे होते हैं।आम तौर पर सभी समाजों में सफेदपोश अपराध अपवाद माने जाते हैं जबकि उपेक्षित को जन्मजात अपराधी मानने की परंपरा बड़ी प्रबल रही है। अपराध उसकी जिदंगी का हिस्सा मान लिया जाते हैं। इस प्रकार एक तो कमजोर के बारे में सूचना नहीं होने से उसका अर्थव्यवस्था में योगदान को ठीक से नही आंका जाता। उसके हासिये पर रहने का औचित्य उसके पूर्व जंम के कर्म या उसकी नकारात्मत जीवनशैली इत्यादि मानी जाती है। उसके बारे में इस प्रकार के नकारात्मक सोच को हवा देना समाज में उसके अस्तित्व को बोझ साबित करके उसके समाज में अहम् योगदान को छिपा दिया जाता है।यह भी एक प्रकार की साजिश है। जिसमें हर समाज का प्रबुद्ध वर्ग काफी बड़ी सीमा तक सफल रहा है।
आधुनिक राष्ट्र राज्य के उदय से पहले अधिकतर समाजों में सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रियता नारी के लिये वर्जित थी।अतः परिवार तथा समाज में नारी की दयनीय हालत को सामान्य परिस्थिति ही माना जाता रहा । आधुनिक शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ साथ नारी की अदृश्यता भी घटती गई, और धीरे धीरे नारी की सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रियता बढ़ने लगी। सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रियता बढ़ने के साथ साथ नारी का समाज में दोयम दर्जा बहस मुबाहिसा का विषय बना। फिर भी 1969 तक विकास प्रक्रिया में नारी का योगदान तथा विकास का नारी की स्थिति पर प्रभाव अदृश्य ही रहे । 1969 में बोसरुप की किताब इस विषय पर छपी । उसमें विस्तार से बताया गया कि किस प्रकार स्त्री का हासियाकरण हुआ।महिलाओं में भी विभिन्न समूहों महिलाओं की अलग अलग स्थिति है। सबसे ज्यादा अदृश्य विकलांग स्त्री है। भारत में 1975 में समानता की ओर रपट छपी। भारतीय नारी की स्थिति पर यह सबसे सटीक रपट मानी जाती है। पर यह रपट विकलांग स्त्री पर चुप है।संक्षेप अदृश्य बनाने की यह बीमारी समाज के हर क्षेत्र मे विद्यमान है। अभी हाल में जब सच्चर समिति का गठन भारत में मुसलमानों की स्थिति जाचने के लिए किया गया तो रुढ़िवादी ताकतों ने इसका जबरदस्त विरोध किया।इसी प्रकार हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पर जोर दिया जाता है। हिन्दी माध्यम के छात्रों की समस्याओं को यहा नीति निर्धारण तथा कार्यान्वयन दोनों स्तरों पर नजरअंदाज किया जाता है। इसलिए समाज के हर वर्ग , समुदाय के लोगों को उनके अधिकार मुहैय्या कराने की दिशा में पहला कदम उनकी अदृश्यता को समाप्त करना है। दूसरा उनके बारे में फैलाए जारही नकारात्मक सोच को समाप्त करना है।
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