आज जनसत्ता में पढ़ा कि रामकृष्ण मिशन के
संयासी बाढ़ की त्रासदी झेल रहे गांवों में पैदल चल कर भोजन पहुचा रहे हैं। साधुवाद
गुरुवार, 11 जुलाई 2013
सत्याग्रह के कई रूप
कई साल पहले 15जुलाय के दिन बहादुर मनीपुरी महिलाओं ने अनूठा सत्याग्रह किया। सत्ता के मद में चूर सरकारी तंत्र खास कर सुरक्षा तंत्र द्वारा किये जारहे यौन शोषण के विरोध में उन्होंने स्वय को बेवस्त्र कर जलूस निकाला और सरकारी तंत्र खास कर असम राइफल्स को उन सत्याग्रहियों के यौन शोषण करने की चुनौती दी।जागरूक और संवेदनशील मनीपुरी महिलाओं के इस कदम ने पूरे मानव समाज को हिला कर रख दिया। जगह जगह आम्ड फोरसेस स्पेशल पावर्स एक्ट की भर्तसना होने लगी और इसे हटाने की मांग जोर पकड़़ने लगी। उधर इरोम शर्मीला इसी मांग को लेकर भूख हड़ताल पर हैं डाक्टर उन्हें नलियों के माध्यम से जबरदस्ती पोषण देकर जिन्दा रखे हैं। परन्तु मनीपुर से अभी तक आम्ड फोरसेस स्पेशल पावर्स एक्ट नही हटा है।आम जन का उत्पीड़न बदस्तूर जारी है।
पिछले 25 सालों से भीअधिक समय से नर्मदा बचाओ आंदोलन की अग्रणी मेधा पाटकर एवं अन्य कार्यकर्ता बाध विस्थापितों के हक में समय समय पर अनगिनत सत्याग्रह किये हैँ पर वांछनीय सफलता नही मिली है। कभी थोड़ी बहुत राहत न्यायपालिका से अवश्य मिली है।पर महत्वपूर्ण मौकों पर सर्वोच्च अदालत ने भी दूसरी तरफ देखना ही उचित समझा। हां, लोगों में जागरूकता अवश्य बढ़ी है। संघर्ष करने का आत्मबल उन्हें मिला है।पड़ोंसी देश म्यांमा में भी आन सा सू की जनतंत्र की स्थापना के लिए सालों से सत्याग्रह किया।जन समर्थन मिला और कुछ हद तक सत्ता के चूलों को हिला पाई हैं।आज वह जेल की सीकंजों से बाहर हैंअन्ना हजारे के जनलोकपाल कानून के लिए किये गए सत्याग्रह ने तो पूरे देश को हिला दिया। पर कानून नहीं बना।
जिस प्रकार महात्मा गांधी चाहे दक्षिण अफ्रिका हो या भारत असत्याग्रही तत्वों की आंख की किरकिरी बने रहे क्या उसी प्रकार ये भी असत्याग्रही तत्वों के लिए चुनौती बने।सत्याग्रह आंदोलन के साथ गांधी ने सत्याग्रह का दर्शन हिन्द स्वराज लिखा जिसको उनके समर्थकों और विरोधियों दोनों ने खारिज कर दिया। पर अपने सत्याग्रह के आंदोलनों के माध्यम से वह पश्चिमी सभ्यता की सर्वत्र व्याप्त मान्यता पर सवाल उठाने में सफल रहे। उन्होंने एक नई संस्कृति का प्रतिपादन किया। आज हमें ऐसा कुछ भी नही दिख रहा है समाज में बाजार की पैठ बढ़ती जारही है। इससे मन में कई सवाल उठते हैं मसलन् क्या गांधी की आम जन से संवाद करने की क्षमता आज के सत्याग्रहियों से कहीं अधिक थी। य़ा गांधी जी लोगों की नब्ज पकड़ना जानते थे। या गांधी जी के लिए सत्याग्रह, मांग मनवाने के लिए संघर्ष का तरीका न होकर जीवन दर्शन था। सत्य के बगैर अहिंसा सम्भव नही।क्या गांधी के लिये सत्याग्रह महज सत्य को खोज का माध्यम था । इस खोज में वे किस हद तक सफल रहे। क्या आज भी सत्य की खोज के लिए सत्याग्रह होरहे हैं।ये कई प्रश्न है जिनपर आज के सत्याग्रहियों को चिंतन मनन करना चाहिये।
पिछले 25 सालों से भीअधिक समय से नर्मदा बचाओ आंदोलन की अग्रणी मेधा पाटकर एवं अन्य कार्यकर्ता बाध विस्थापितों के हक में समय समय पर अनगिनत सत्याग्रह किये हैँ पर वांछनीय सफलता नही मिली है। कभी थोड़ी बहुत राहत न्यायपालिका से अवश्य मिली है।पर महत्वपूर्ण मौकों पर सर्वोच्च अदालत ने भी दूसरी तरफ देखना ही उचित समझा। हां, लोगों में जागरूकता अवश्य बढ़ी है। संघर्ष करने का आत्मबल उन्हें मिला है।पड़ोंसी देश म्यांमा में भी आन सा सू की जनतंत्र की स्थापना के लिए सालों से सत्याग्रह किया।जन समर्थन मिला और कुछ हद तक सत्ता के चूलों को हिला पाई हैं।आज वह जेल की सीकंजों से बाहर हैंअन्ना हजारे के जनलोकपाल कानून के लिए किये गए सत्याग्रह ने तो पूरे देश को हिला दिया। पर कानून नहीं बना।
जिस प्रकार महात्मा गांधी चाहे दक्षिण अफ्रिका हो या भारत असत्याग्रही तत्वों की आंख की किरकिरी बने रहे क्या उसी प्रकार ये भी असत्याग्रही तत्वों के लिए चुनौती बने।सत्याग्रह आंदोलन के साथ गांधी ने सत्याग्रह का दर्शन हिन्द स्वराज लिखा जिसको उनके समर्थकों और विरोधियों दोनों ने खारिज कर दिया। पर अपने सत्याग्रह के आंदोलनों के माध्यम से वह पश्चिमी सभ्यता की सर्वत्र व्याप्त मान्यता पर सवाल उठाने में सफल रहे। उन्होंने एक नई संस्कृति का प्रतिपादन किया। आज हमें ऐसा कुछ भी नही दिख रहा है समाज में बाजार की पैठ बढ़ती जारही है। इससे मन में कई सवाल उठते हैं मसलन् क्या गांधी की आम जन से संवाद करने की क्षमता आज के सत्याग्रहियों से कहीं अधिक थी। य़ा गांधी जी लोगों की नब्ज पकड़ना जानते थे। या गांधी जी के लिए सत्याग्रह, मांग मनवाने के लिए संघर्ष का तरीका न होकर जीवन दर्शन था। सत्य के बगैर अहिंसा सम्भव नही।क्या गांधी के लिये सत्याग्रह महज सत्य को खोज का माध्यम था । इस खोज में वे किस हद तक सफल रहे। क्या आज भी सत्य की खोज के लिए सत्याग्रह होरहे हैं।ये कई प्रश्न है जिनपर आज के सत्याग्रहियों को चिंतन मनन करना चाहिये।
अरविंद केजरीवाल के नाम खुला पत्र
अरविंद जी आप कई सवालों के जवाब जनता पर छोड़ देते हैं। अपनी पूरी मुहिम की (
अ
)सफलता की जिम्मेदारी भी जनता पर छोड़ देते हैं। परंतु जनता के चरित्र पर कभी कुछ नहीं बोलते। हम सभी जानते हैं कि जनता बेनाम तथा बेआकार नहीं होती। आंदोलन के दौरान सारे चेहरे और नाम अवश्य नैपथ्य में चले जाते हैं। दुनिया की तमाम क्रांतियों, आंदोलनों के उदाहरण हमारे सामने हैं। सत्ता हाथ में आते ही संघर्षों में दशकों तपे लोग निजी स्वार्थों के मकड़जाल में फस गए।गांधी ने कुछ सोच कर ही आजादी मिलते ही कांग्रेस को भंग करने का सुझाव दिया होगा। परन्तु वह सुझाव नही माना गया क्यों
खैर अभी कृपया इतना स्पष्ट कर दें जाति व्यवस्था पर आधारित गावों की संरचना में जो ग्राम सभाएं नीति निर्धारण की जिम्मेदारी संभालेंगी वे क्या दलितों तथा महिलाओं के प्रश्नों पर अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ पाएंगी । यदि नहीं तो इस नई व्यवस्था में हमारा क्या होगा।
समस्त शुभ कामनाओं सहित
गोपा जोशी
खैर अभी कृपया इतना स्पष्ट कर दें जाति व्यवस्था पर आधारित गावों की संरचना में जो ग्राम सभाएं नीति निर्धारण की जिम्मेदारी संभालेंगी वे क्या दलितों तथा महिलाओं के प्रश्नों पर अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ पाएंगी । यदि नहीं तो इस नई व्यवस्था में हमारा क्या होगा।
समस्त शुभ कामनाओं सहित
गोपा जोशी
हमारे राजनीतिक दल
हमारे राजनीतिक दलों में कई मुद्दों पर
गजब की एका होती है। इनमें हमेंशा ही प्रमुख रहा है जन प्रतिनिधियों के वेतन व
भत्ते बढ़ाने का मुद्दा। सरकार किसी भी गठबंधन की हो इस सवाल पर सभी जन प्रतिनिधि एकमत
होते हैं और हर राज्य तथा केंद्र में हर बार फटाफट इस शुभ काम को किसी बहस
मुबाहिसा के बिना ही संपंन कर दिया जाता है।
भ्रष्टाचार
दूसरी ज्वलंत समस्या है जिस पर सभी दल एकजुट होते हैं। दलों के भीतर इमांदार और
समर्पित कार्यकर्ता समर्पित ही रह जाता है। लेकिन भ्रष्ट तरीकों में माहिर फटाफट
सीड़िया चढ़कर चोटी पर पहुचता जाता है।ये भ्रष्ट कार्यकर्ता तो शायद ही होते हैं
पर नेता की हैसियत से दलों के राज्य व केंद्र स्तरों पर संगठनों में प्रभावी पद पा
जाते हैं। महत्वपूर्ण पद पाते ही वे अपने अनुयायी भ्रष्टों को भी दल में प्रवेश
दिला देते हैं।चुनाव समीप आने पर दूसरे दलों के भ्रष्ट नेताओं पर भी डोरे डाले
जाने लगते हैं। अक्सर समाचार पत्रों में इन नेताओं के अपने समर्थकों के साथ दल
बदलने की खबर छपती है।अपने धनबल बाहुबल की सहायता से चुनाव जीत कर ये भ्रष्ट सरकार
का हिस्सा बनते हैं। इस प्रकार देखा गया है कि सरकार किसी भी दल की हो कुछ लोग
हमेशा ही मलाई का आनंद लेरहे होते हैं।गठबंधन की स्थिति में तो इनकी स्थिति और भी
मजबूत हो जाती है।मजे की बात यह है कि खुद को भ्रष्टाचार के विरुद्ध बताने वाले
दलों के शीर्ष नेतागण किसी न किसी बहाने इन दागी नेताओं को कारनामों को गरिमा
प्रदान करने की कोशिश करते रहते हैं और उमीद करते हैं कि जनता इनकी इमानदारी पर शक
नही करेगी। जिस तरह अंयाय करना तथा सहन करना दोनों ही गलत है उसी प्रकार बेइमानी
करना व बेइमान को पनाह देना भी गलत होना चाहिये। पर राजनीतिक दल यह नहीं मानते।
अपनी सुविधा के अनुसार ये धनबलियों तथा बाहुबलियों का इस्तेमाल सत्ता पाने तथा
सत्ता में बने रहने के लिेए करते हैं साथ में खुद को इमानदार, साफ सुथरी राजनीति का
हिमायती बताते भी नहीं थकते हैं।तथाकथित राजनीतिक दलों का यह दोहरा चरित्र बेनकाब
होना चाहिये। भ्रष्ट के साथ साथ उसको राजनीतिक संरक्षण देने वालों तथा राजनीतिक
सुविधा के लिए उनका इस्तेमाल करने वालों को भी भ्रष्ट ही करार दिया जाना चाहिये। भ्रष्टाचार
राजनीतिक दलों के लिये कितना महत्वपूर्ण या कहें अपरिहार्य होगया है यह उनके अन्ना
हजारे की जन लोकपाल की मांग पर प्रतिक्रिया से स्पष्ट होगया था। सभी ने प्रत्यक्ष
या परोक्षरूप से इस विधेयक को रोकने की पुरजोर कोशिश की। एक ओर से कहा जासकता है
भ्रष्टाचार राजनीतिक दलों के डीएनए का हिस्सा बन गया है।
धनबल के
साथ बाहुबल भी जुड़ा है।हर राजनीतिक दल स्थानीय स्तर से ही बाहुबलियों को तरजीह
देता है। इनके हर प्रकार के गैरकानूनी कामों को राजनीतिक संरक्षण दिया जाता है।बदले
में ये बाहुबली अपने आकाओं तथा उनके दलों की तिजोरियां भरते रहते हैं।यदि हर
राजनीतिक दल धनबलियों और बाहुबलियों के गैरकानूनी कामों को राजनीतिक संरक्षण देना
बंद कर दें तो उससे ही राजनीति की काफी हद तक सफाई हो जाएगी। ऐसा करने के बजाए ये
दल सूचना के अधिकार के क्षेत्र के भीतर आने का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। अब कहा
जारहा है कि सरकार आध्यादेश लाकर राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने
जारही है।
सूचना के
अधिकार की तरह ही कल यानी 10,7, 13 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भी इन दलों को
हिला दिया है। इस फैसले के अनुसार दो साल से अधिक की सजा पाने वाले जनप्रतिनिधियों
को सजा के फैसले के समय से ही अपनी सदस्यता गवानी होगी। कल टीवी में सभी दल किंतु
परंतु में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे। साथ ही उच्च न्यायालय के द्वारा दोषमुक्त
किये जाने की स्थिति में संबंधित जनप्रतिनिथि के साथ अन्याय होने की बात भी कह रहे
थे। यह भी बोला जारहा था इससे कि चाहे सौ दोषी बरी हो जाय परंतु एक निर्दोष को सजा
नही मिलनी चाहिये वाले न्याय के सिद्धांत का हनन होगा। लेकिन जब माओवादी के नाम पर
बेकसूर आदिवासी सालों जेलों में सड़ते रहते हैं या आतंकवादी के शक में मुसलमानों
के अधिकारों का हनन होता है तब राजनीतिक दलों को आम भारतीय के मूल अधिकारों की याद
नहीं आती। अब देखना यह है कि धनबल तथा बाहुबल पर हुई इस न्यायिक चोट को ये दल किस
प्रकार निरस्त करते हैं।
लेबल:
अन्ना हजारे,
जन लोकपाल,
भ्रष्टाचार,
राजनीतिक दल,
सूचना का अधिकार
मंगलवार, 9 जुलाई 2013
Our religious leaders are not interested in environment
We are supposed to be believing that God resides in every
living being. We worship trees, rivers, animals, etc. But Himalaya
is coming down, our rivers are all polluted to the extent that they resemble
dirty drains. But except much hyped Nirmal Ganga Abhiyan we do not hear much
from religious leaders about our polluted rivers. Swami Nigamanand protested
against vested interests harming Ganga and
sacrificed his life. No body was moved by his sacrifice. Ganga
remains polluted with all the illegal activities going on along its banks. Only
during kumbh the religious leaders wanted clean ganga water
for their bathing. There were reports of installation of ultra modern machines at
some religious leaders’ camp churning pure Ganga
water for devotees for a price. As far as the common people were concerned they
managed with polluted Ganga
and Yamuna water. Many of our religious festivals also increase environmental
pollution. Neither our Religious leaders nor the social elite seems to be
worried about the increasing use of polluting items during these festivals.
Contrary to that His Holiness Dalai Lama and Tibetans outside Tibet are
constantly raising the issues of Tibetan environment before the international community.
They are trying to convince all those
who they think can help about the need to protect Tibetan environment not only
for Tibetans but also for the
neighbouing countries. They are always vigilant. China’s plans to use the lakes
worshipped by Tibetan Buddhists for commercial purposes are resisted with full
might. At the same time, China’s
uninterrupted propaganda against His
Holiness Dalai Lama is ignored. While China does no loose an opportunity to call names
to His Holiness Dalai Lama the Tibetans bear their hurt gracefully and try to
engage China
in resolving Tibetans’ outstanding issues. Tibetans in Tibet are for quite some time immolating
themselves as a protest against China’s
disrespectful attitude towards His Holiness Dalai Lama.
IT IS SURPRISING!!!
मंगलवार, 2 जुलाई 2013
-NO MAJOR FLOODS IN GARHWAL HIMALAYAS
In 1882, The Himalayan Districts of the North
Western Provinces of India
(Vol. Xll of the Gazetteer,N.W.P.) was published. This was reprinted in 1973 by
Cosmo Publications as The Himalayan Gazetteer in six volume.
The author is Edwin T. Atkinson Pp.
257-259 of vol.3, part 1 deal with
floods, blights and famines. Here Atkinson observes
“The hills are never subject to
disastrous floods, the drainage channel being sufficientTo carry away all
excessive moisture. Here and there in rains damage is sometimes done to small
portions of land, but it is never serious. …Draughts also occasionally occur,
but as there are high ranges of hills throughout the district which attract the
clouds and bring them to the
villages in their vicinity….
लेबल:
Edwin T. Atkinson,
floods garhwal,
himalaya
यह तथाकथित विकास तो जीव मात्र के लिए अपराध है।
यह तथाकथित विकास तो जीव मात्र के लिए अपराध है।
चित्रा नारायण उत्तराखंड की तबाही देखकर
विचलित हो जाती है और हिमालय की हुई अनवरत लूट को हिमालय का रेप कहती है और मानती
है यह त्रासदी उसी लूट का परिणाम है। लेकिन हमारे राजनेता विकास कार्यों पर रोड़े
अटकाने के लिए चैनलों में पर्यावरणविदों को पानी पी पी कर कोस रहे थे। क्षत विक्षत
हिमालय उनको परेशान नही करता दिखता है। उनका दर्द है कि इन पर्यावरणविदों के
अड़गों की वजह से उनका विकास कार्यक्रम उतनी तेजी से नहीं चल पाए जितनी तेजी से वे
करना चाहते थे।यदि विकास उनके अनुसार तय की गई गति से होता तो तब उत्तराखंड का क्या मंजर
होता इसकी कल्पना ही की जासकती है। यह विकास ये राजनीतिक दल लोगों की मांग पर करने का दावा करते हैं।आगे भी
जनता को बिजली सड़क पानी देने के लिए विकास करते रहने का दावा करते हैं। यही नेता
दावा कर रहे हैं कि उत्तरकाशी क्षेत्र को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र
घोषित करने का प्लान स्थानीय लोगों का विरोध देखकर ही रोका गया। दुर्भाग्य से इस
विकास से स्थानीय लोगों का जीवन कितना दूभर होगया है इसको कोई नही बताता।
वनवासी
तथा आदिवासी कैसे पर्यावरण का विरोध कर सकते हैं। पर्यावरण तो उनके अस्तित्व का
हिस्सा सदियों से रहा है।वन,वनोपज, जंगली जानवर, पशु पक्षी उनके अस्तित्व का
हिस्सा रहे हैं। उत्तराखंज की विषम परिस्तियों में यह पर्यावरण ही लोगों को भूख,व
ठंड से बचाता रहा है। य़हां के क्षेत्र कितने दुर्गम हैं यह राहत तथा बचाव में लगे
लोगों को देखकर समझ में आसकता है।यदि आप विकास की धारा को समझने की कोशिश करेंगे
तो पांएगे कि यह धारा पूंजीपतियों के शोषण के लिए उत्तराखंड को सहज और सुलभ बनाने
के लिए किया गया है। 1970 में अलखनंदा में आई बाढ़ से स्थानीय लोगों को समझ आया कि
इस बाढ़ की भयावहता का कारण हिमालय के वनों का अबाध कटान था। तब भी तत्कालीन
उत्तरप्रदेश के मुख्य मंत्री जो वर्तमान मुख्य मंत्री के पिता थे ने वनों को
बचाने के लिए चिपको की मुहिम का विरोध किया और कहा कि यदि अंय स्थानों के लोग
चिपको की तर्ज पर लटको करेंगे और विकास के लिए प्राकृतिक संशाधनों के दोहन पर
रोड़े आटकाएंगे तो देश का विकास कैसे होगा। लोकिन विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट ने स्थानीय लोगों की आपत्तियों को
सही पाया।
अब
सवाल उठता है कि पिछले 40-45 साल में ऐसा क्या हुआ कि स्थानीय लोग पर्यावरण के नाम पर बिदकने लगे हैं। इसको
समझने के लिए हमें इंसान और ब्रह्मांड में सर्वत्र व्याप्त जीवन के बीच जीओ और जीने दो के संबंध को समझना होगा।
आज के
संदर्भ में तो हमें केवल इतना समझना होगा कि किस तरह पूँजीवादी व्यवस्था का
अस्तित्व आम इंसान के प्रकृति के साथ के इस नैसर्गिक संबंध के उन्मूलन पर आधारित
है। भारत में अंग्रेजों ने आते ही बाजार कब्जाने व बढ़ाने के साथ साथ प्राकृतिक
संसाधनों को कब्जाना प्रारंभ किया जिसका आदिवासियों और वनवासियों ने पुरजोर विरोध
किया। अंग्रेजों के विरोध के इतिहास की यदि निष्पक्ष जांच हो तो यह साफ होजाएगा कि
भारत में स्वतंत्रता की पहली लड़ाई यहां के आदिवासियों ने लड़ी है। यह हमारा
दुर्भाग्य है कि अपने संसाधनों पर अपना अधिकार सहित संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए
किये गए इन आदिवासी संघर्षों को हम
विभिन्न आदिवासियों के विद्रोह के तौर पर पढ़ते हैं आजादी की लड़ाई के तौर पर नहीं।
अंग्रेज तो चले गए पर उनके द्वारा विकसित तंत्र बरकरार रहा। समय की प्रगति के साथ
साथ विज्ञान तथा तकनीक के विकास में नए आयाम जुड़ गए हैं। परिणामस्वरूप अब विश्व
एक वैश्विक गांव में तब्दील होगया है।
यानी इस वैश्विक गांव के किसी भी कोने में बैठकर आप समस्त विश्व के संसाधनों का दोहन
कर सकते हो। इसलिए एक बार फिर समस्त बनवासी व आदिवासी क्षेत्र पर कारपोरेट जगत की
कुदृष्टि पड़ी है। (ऐसा नहीं था कि इन क्षेत्रों के संसाधनों का दोहन इससे पहले
रुक गया हो। दोहन चालू था पर उसमें वैश्विकरण के बाद सी तेजी नहीं थी। तब कारपोरेट
जगत तीसरी दुनियां में भारी उद्योग लगाकर उसके बाद कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति
कराकर अपनी पूंजी बढ़ा रहा था।)
तकनीक के
विकास के साथ साथ शासन तथा प्रशासन तंत्र को चलाने के लिए भी नई तकनीक विकसित की
गई। 18वीं तथी 19वीं सदी में बाजार तथा संसाधनों को कब्जाने के लिए शासन तथा
प्रशासन पर प्रत्यक्ष कब्जा यानि उस देश में शासन करना आवश्यक था। केवल चीन को ही
साम्राज्यवादियों ने सेमी कालोनी बनाकर मिलजुल कर लूटा था। अब प्रत्यक्ष कब्जा करने
की आवश्यकता नहीं है। आज विश्व के वैश्विक गांव
के हर देश की सरकार कारपोरेट घरानों के आदेश मानने हर क्षण तत्पर रहती है। अमेरिकी
राष्टपति अमेरिकी लोगों के हित साधने के नाम पर पूरी दुनिया को
अमेरिका के कारपोरेट
घरानों के लिए सुरक्षित बनाने के लिए पूरी दुनियां के देशों का दौरा करते रहते हैं। अब अमेरिका को पूरे विश्व में राज किए बगैर
ही सूपर पावर का दर्जा मिला है। कारण अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों का जाल पूरी
दुनिया में फैला है। उनका किसी भी देश की अर्थव्यवस्था से हाथ खीच लेने से ही उस देश
में जलजला सा आजाता है। जनता द्वारा चुनी सरकारें इन्ही निगमों के हित साधती हैं।
अपने देश की जनता के हितों के संरक्षण के नाम पर बहुराष्ट्रीय निगमों के आगे घुटने
टेकते हैं।उत्ताराखंड के संसाधनों की लूट भी कारपोरेट जगत की कभी न बुझने वाली भूख
को मिटाने के लिए ही की जारही है।
वैश्विक
गांव का दूसरा चमत्कार यह है कि अब हर देश
के मध्य वर्ग के हित कारपोरेट जगत से जुड़े हैं। लोकतंत्र में सरकार के हित या
विरोध में हवा बनाने में मध्य वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।सरकारी नीतियां
तथा कारपोरेट घराने मध्य वर्ग को मजबूत करती हैं। बदले में मध्य वर्ग कारपोरेट
घरानों के हित साधने वाली नीतियों का समर्थन करता है। साथ ही एक क्रोनी
केपिटेलिस्ट क्लास भी विकसित हुआ है जिसके हित भी संसाधनों की लूट से ही सधते हैं।
इसीलिए हमने देखा कि इस भीषण आपदा के पश्चात भी पोलिटिकल क्लास से कोई यह मानने
तैयार नहीं था कि यह मानवकृत है तथा संसाधनों
की लूट तथा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का परिणाम है। हृदयेश जोशी ने एक चैनल में
बताया कि यदि सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगी जाय तो यह साफ होजायगा कि नदियों
के किनारे अवैधरूप से बने अधिकांश होटल उत्तराखंड के राजनीतिज्ञों के थे। इसीलिए
राजनीतिक दल इस पर अंगुली नहीं उठा रहे हैं। वे सिर्फ पर्यावरणविदों को पानी पी पी
कर कोस रहे थे। और विकास के नाम पर किये गए विनाश के इस तांडव को जनता की जरूरत या
जनता का दबाव बता कर सही ठहरा रहे थे।
लेकिन उनसे कोई नहीं कह रहा था कि जनता को दोष देना छोड़िये।
वैश्वीकरण के इस युग में पहाड़ में क्या हुआ है। एक ओर
चिपको के बावजूद जंगल नष्ट होगेए हैं। दूसरी ओर विलुप्त होती प्रजातियों के
संरक्षण के नाम पर राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र घोषित हो गए हैं । वहां स्थानीय लोगों की आवाजाही पर नियंत्रण हैं। चूंकि जंगल कट गए हैं विलुप्त होती प्रजातियां भोजन की खोज
में गांवों में घुस जाती हैं। ग्रामीण आत्मरक्षा के लिए भी उन पर वार नहीं कर सकते
।घायल होने का अवस्था में कुछ हजार मौत पर एक लाख रुपये का मुआवजा देकर सरकार अपना
पल्ला झाड़ लेती है। आज पहाड़ में पहाड़ी के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। जगली
पशुओं का आतंक इतना है कि लोगों ने मोटे अनाजों की खेती करना लगभग बंद कर दिया है।
पहाड़ में अधिकतर मोटे अनाजों की ही खेती होती है। सिचाई की जमीन थोड़ी होती है। विकास के नाम पर सड़कें बनाने, टनल बनाने के लिए अनाप सनाप डायनमाइट
लगाकर पहाड़ को जड़ से खोखला कर दिया है। आम
पहाड़ी के लिए इस प्रकार की आपदा हर साल आती है। परन्तु वह भर वरषात में आती है।
इस साल जून में टूरिस्ट सीजन में आगई। तो पूरा देश हिल गया।यहां पर भ्रष्टाचार चरम
पर है।बिना कमिशन के पत्ता भी नहीं हिलता।पहाड़ टूटने, जमीन धसकने से पहाड़ियों का
अस्तित्व खतरे में रहता है तथा अर्थ व्यवस्था चरमरा गई है। दुर्घटना के बाद सरकारी
मुआवजा इतना कम होता है कि वह लागों के साथ भद्दा मजाक सा लगता है। इस प्रकार
पर्यावरण जो लोगों के जीवन का कभी अभिन्न अंग होता था उसको भी एक वस्तु (comodity) बना दिया गया है। उसके संरक्षण के नाम पर सरकार ने बहुत
बड़े पहाड़ी क्षेत्र को हथिया लिया है। इससे स्थानीय लोगों की मुस्किलें बढ़ गई
हैं। परन्तु प्रजातियों का विलुप्त होने की प्रक्रिया नही थमी है। कारण स्वार्थी
तत्वों के लिए कोई नियंत्रण या नियम कानून नहीं हैं। उन्हें सर्वत्र वैध अवैध
संरक्षण मिला है।
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